डॉ. विकास मानव
हमारा भाषाकीय अज्ञान कहे या हमारी अति कामुक मानसिकता जो के कुछ शब्द या संज्ञा को हमेशा कामुकता से जोड़ कर ही देखते ओर समझने की आदत हो गयी है |जब कभी प्रजनन संगत कोई विषय की चर्चा हो तो सीधा हमारे मानस मे शरीर के अंग – उपांग का ही चित्रण आभासित होता है …!! संकुचित ओर हिन मानसिकता से परे हो कर थोड़ा व्यापक द्रष्टिकोण रखने से ही कुछ गहन विषय को समझ या समझाया जा सकता है|
हमारे आसपास ओर समस्त प्रकृति मे निरंतर अनेकों घटनाए घटित होती रहेती है, जिनको हम संसर्ग –संवनन- मैथुन-भोग आदि नाम से जोड़ कर देखते है| खास कर जब योनि – लिंग या मैथुन जेसे शब्दो को केवल हीन और कामुक भाव से ही प्रायोजित किया जाता रहा है|
ये संकुचित दूषित मानसिकता और हीन भाव ही समझे की जो पर्याय वाची शब्द है उनका भी मार्मिक तथ्य से हट कर देह रचना के अंग-उपांग ओर जनन सर्जन नवरचना को भोग – संभोग के सीमित द्रष्टिकोण से देखा जाता है|
यहाँ कुछ तथ्यो को समझने का विशुद्ध प्रयास है बाकी आपकी मानसिकता पर निर्भर करता है|
हमारे ब्रम्हान्ड मे निरंतर अणुपरमाणु का मैथुन होता है| न्यूटोन प्रोटोन + – को समझने इलेक्ट्रॉन का तत्व समझने का प्रयास नहीं यहाँ केवल कुछ भ्रामक मान्यता दूर करनी है|
लिंग ये शब्द केवल नर या मादा की जाती निर्धारित करने तक सीमित नहीं| लिंग एक संज्ञा भर नहीं लिंग अथवा योनि को बहोत से अर्थो मे प्रायोजित किया जाता रहा है|
सामन्या तह हमारे सभी धार्मिक अनुष्ठान को ही देखे तो यज्ञकुंड की रचना मे योनि का अति महत्व स्वीकार कर ओर उस पर लिंग का आकार उभार कर यज्ञ से नवसर्जन के विज्ञान को स्वीकार किया गया है| देवालयो मे प्रधाम माने जाते शिव को मूर्ति ओर लिंग-योनि का प्रतीक दिया गया है जो स्त्री-पुरुष के जननांग नहीं अनंत ब्रम्हान्ड मे नवसर्जन का प्रतीक है|
हमारे द्रष्टिकोण को व्यापक करने की ओर मानसिकता को सकारात्मक बनाए रखना अति आवश्यक है| देवताओ के आराधन मे भी अनेकों मुद्रा प्रदर्शित करना अनिवार्य बताया जाता है जिस मे देव आराधन मे लिंग की मुद्रा ओर देवी आराधन मे योनि मुद्रा दर्शना ये शास्त्र विदित ऋषिपरंपरा है. जब की भोग शब्द ही सुखाकारी का पर्याय है|
संभोग संतुलित या समान भाव से सुख की अनुभूति का निर्देश करता है|
(1) पाश्चात्य पंडित तथा पाश्चात्य विचारो से प्रभावित आजकल के कोई कोई नव शिक्षित भारत -संतान भारतवर्षीय उपासना की बात चलने पर कहने लगते हैं कि यद्यपि दर्शन और धर्मतत्व के सम्बन्ध में भारतवर्ष में ऐसे गंभीर तत्वों का आविष्कार हुआ था, जो समस्त जगत के लिए विस्मयजनक थे, परंतु उपासना के समय वैसी प्रशंसा नहीं की जा सकती। वे कहते हैं कि लिंग उपासना भारतवर्ष का एक कलंक है । उनके विचार से वर्तमान सभ्य युग में इस प्रकार की असभ्य और असभ्यकालोचित आदिम-उपासना का प्रचलित रहना उचित नहीं है।
उनकी इस आलोचना पर धीरतापूर्वक विचार करने से लिंगोपासना के सम्बन्ध में स्वभावतः कुछ-कुछ संशय उत्पन्न होता है। हम बाल्यकाल से ही लिंगरूप शिव की उपासना देख रहे हैं, इसी संस्कार की दृढ़ता से इसकी अश्लीलता हमारे मन को वैसी अश्लील नहीं लगती है परंतु पूर्वसंस्कारों को त्यागकर विचार करने से ज्ञात होता है कि विदेशी समालोचक स्वाभाविक प्रेरणावश ही इस प्रकार की निंदा करते हैं।
प्राचीन इतिहास की आलोचना से ज्ञात होता है कि पृथ्वी की अधिकाँश अति प्राचीन सभ्य जातियों में लिंग उपासना किसी न किसी रूप में प्रचलित थी। भारतवर्ष में भी प्रागऐतिहासिक युग से लिंग उपासना प्रचलित है।
“मोहन जो-दड़ो” में प्राप्त प्राचीन निर्देशनो का अवलोकन करने से ही स्पष्टरूप से ज्ञात होता है कि उस समय भी लोग ठीक आजकल के समान ही, विशेष आकार के शिव्-लिंग की पूजा करते थे। जो उपासना या साधना एक समय जगद्व्याप्यक थी तथा परवर्ती युग में भी भारतवर्ष में जो भगवत्कल्प श्रीशंकराचार्य -प्रभृति असंख्य ज्ञानी और योगैश्वर्य -संपन्न मनीषियों के द्वारा अनुष्ठित होती आ रही है, वह अज्ञ-जनोचित उपहासवचनो का विषय होने योग्य कदापि नहीं है, बिना तीव्र – साधना के किसी भी तत्व का सम्यक रूप से ज्ञान होना संभव नहीं है।
(2) श्लील और अश्लील का विचार नव्य-रूचि से संपन्न युवकों की दृष्टि के निर्णय के अनुसार नहीं हो सकता। व्यक्तिगत संस्कार तथा सामाजिक मनोभावों से संवेष्टित प्रकृति के अनुसार आपेक्षिक रूप से श्लील अश्लील का निर्धारण हो सकता है। नग्न-काय पवित्र-चित्त छोटे शिशु की दृष्टि में संसार में कहीं कुछ अश्लील नहीं देखा जाता।
यही बात ज्ञान संपन्न परमहंस की दृष्टि से भी समझनी चाहिए , अन्यत्र जिसका जिस प्रकार संस्कार होता है, वस्तु सत्ता उसके निकट उसी प्रकार प्रतिभात हुआ करती है। भगवान् की सृष्टि में अपवित्र कहलाने वाली कोई वस्तु नहीं है , परंतु कलुषित-ह्रदय-दृष्टा अपने अंदर की कालिमा का आरोपण कर वस्तु-विशेष को अपवित्र समझ लेता है।
शुद्ध चित्त से जिस ओर देखें , उस ओर सत्य की उज्ज्वल मूर्ती को देख कर आनंद प्राप्त कर सकते हैं । फिर किसी भी स्थान में संकोच का कारण नहीं प्रतीत होगा। लिंग और योनि – ये दोनों ही सृष्टि के मूल रहस्य हैं। पुरुष और स्त्री के पारस्परिक सहयोग के बिना सृष्टि -प्रभृति कार्य संपन्न नहीं कर सकते। शिव और शक्ति, ईश्वर और माया, पुरुष और प्रकृति, प्रस्थान भेद से चाहे जिस नाम से लिया जाय,सर्वत्र ही दो मूल शक्तियों के पारस्परिक संघर्ष से सृष्टि कार्य संपन्न होते हैं।
(3) अब विचारणीय है कि क्या ये ही वास्तव में मूल शक्तियां हैं , अथवा इनके पीछे कोई और अद्वीतीय शक्ति है ?
उत्तर स्पष्ट है – जब तक द्वैत जगत का अतिक्रमण नहीं किया जाता , तब तक इन दो शक्तियों को ही मूल शक्ति मानना पड़ता है। कार्यक्षेत्र में मूलतः यही प्रतीत होता है और युक्ति से भी यही बात सिद्ध होती है। ईरानी, यहूदी, तथा अन्य किसी भी प्राचीन धर्म में यही मौलिक द्वैत स्वीकृत हुआ है । परंतु याद रखना चाहिए कि वस्तुतः इस द्वैत के मूल में नित्य अनुस्यूत -भाव से अद्वैत सत्ता ही है।
सृष्टि के प्रारम्भ में यद्यपि प्रकृति और पुरुष दोनों पृथक रूप में उपलब्ध होते हैं, तथापि ये जान लेना चाहिए कि सृष्टि की आदिभूत बीजावस्था में, ये दोनों शक्तियां ही अभिन्न रूप में ही विराजमान रहती हैं । इसे चाहे ईश्वर कहो, या महाशक्ति; उसमे कुछ अंतर नहीं पड़ता।
उस अवस्था में एक ओर जैसे प्रकृति और पुरुष परस्पर भेदरहित और एकाकार है , वैसे ही दूसरी ओर वह अद्वैत ईश्वर-सत्ता भी निरंजन एवं निष्कल-सत्ता के साथ एकीभूत है। यह अव्यक्त अवस्था है , इसको एक ओर सृष्टि का बीज कहे जाने पर भी, दूसरी ओर यह नित्य-सृष्टि से अतीत, प्रपंचहीन, शांत और निःस्पन्द शिव-भावमात्र है। इसी की स्वतंत्रता के उन्मेषवश इस अक्षोभ्य चित-सत्ता के ऊपर वाक् और अर्थ के समान नित्य-संपृक्त, परंतु भेदयुक्त ; पुरुष और प्रकृति-रूप तत्व-द्वय का आविर्भाव होता है। ये पुरुष और प्रकृति एक होते हुए भी , भिन्न हैं ; भिन्न होते हुए भी, एक हैं।
इनमे से एक को छोड़कर दूसरा अपनी सत्ता का संरक्षण नहीं कर सकता। पारमार्थिक दृष्टि से वह अव्यक्त अवस्था न होने पर भी, सांसारिक-दृष्टि से सृष्टि की अभिव्यक्ति न होने के कारण, इसको एक प्रकार से अव्यक्त कहा जा सकता है। शास्त्र के मत से यह अलिंग अवस्था है, किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से निष्कल-अवस्था अलिंग है; अतः इसको महालिंग अवस्था कहा जा सकता है।
लिंग और अलिंग इन दो शब्दों का तात्पर्य आपेक्षिकभाव से समझना पड़ेगा। परिचायक चिन्ह को “लिंग” कहते हैं। जिसकी अभिव्यक्ति नहीं है , उसका निदर्शन नहीं दिखलाया जा सकता है किन्तु इस अव्यक्त-सत्ता से जो तेजोमय और ज्योतिर्मय तत्व आविर्भूत होता है, वह स्वयं आविर्भूत होता है ; इसलिए उसे स्वयंभू कहा जाता है। यही अव्यक्त अवस्था का परिचायक है। इसलिए यह लिंग-पद का वाच्य है।
योनि-तत्व की कुछ धारणा न होने से लिंग-रहस्य सम्यक प्रकार से नहीं जाना जा सकता है। अतः प्रसंगतः संक्षेप में योनिरहस्य के सम्बन्ध में भी दो चार बातें जानना आवश्यक है, जिससे प्रस्तावित विषय को अच्छी तरह से समझा जा सके।
यद्यपि यह विषय अत्यंत जटिल है , एवं सिवा अंतःप्रविष्ट साधक के दुसरे के लिए नितांत दुर्बोध्य है, तथापि आलोचना का विषय होने के कारण संक्षेप में दो चार बाते कह देना आवश्यक समझता हूँ।
(4) जिस प्रकार आधार और आधेय परस्पर सम्बन्ध-विशिष्ट हैं, उसी प्रकार एक प्रकार से लिंग एवं योनि को भी समझना चाहिए। परंतु ध्यान रहे यह सादृश्य सर्वांगीण नहीं है। जब आद्या-शक्ति या श्रीभगवान् परम-साम्यावस्था में रहते हैं, उस समय उनमे लिंग या योनि, किसी प्रकार के भी द्वैत-भाव की कल्पना संभव नहीं है। परंतु जहाँ अनादि द्वैतभाव प्रकाशित है , वहां एक के बिना दुसरे की उपलब्धि नहीं की जा सकती। तंत्रशास्त्र में योनि को त्रिकोण रूप से एवं लिंग को उसके केंद्रस्वरुप या मध्य-बिंदु-रूप बतलाया गया है।
सृष्टि की अतीत अवस्था में सर्वशक्ति नित्य-प्रकाशमान अथवा नित्य-अवगुंठित है, वहां बिंदु मंडल और बिंदु के मंडल-पर्यन्त निःसृत किरणधारा, ये तीनो ही अभिन्न रूप से प्रकाशित होती हैं। इस अभेदात्मक सत्ता में मंडल को योनि के एक बिंदु को लिंग के पूर्वरूप होने की कल्पना की जा सकती है। परंतु सृष्टि की आदिम-अवस्था के समय यद्यपि यह आदिम अवस्था भी अनादि काल से ही वर्तमान है ; बिंदु एवं उसके आवरण – इन दोनों में एक भेदाभास जाग उठता है। इसके फलस्वरूप जो आवरणरूप मंडल बिंदु के साथ अभिन्न रूप से वर्तमान था, वह भेद सृष्टि से पहले त्रि-रेखांकित त्रिकोण-समन्वित क्षेत्र-रूप से प्रकट होता है।
यद्यपि बिंदु से अनंत किरणमालायें विकीर्ण होती हैं तथापि संकुचित अवस्था के समय सृष्टि के आरम्भकाल में तीन किरणे ही प्रधानतः धारण करने योग्य हैं। ये तीनो रश्मियाँ सरल रेखाओं के रूप में परस्पर समान दूरी पर रहकर, तीन ओर बढ़ती हैं। महाशून्य के वक्ष स्थल पर यह विकिरण लीला संपन्न होती है इसलिए ये सर्वत्र समानभाव से ही होती है।
उस समय आकर्षण या विकर्षण करने की कोई भी शक्ति वर्तमान नहीं होती। इसलिए ये तीनो रेखाएं परस्पर सम-भावापन्न ही होती हैं। एक ही मूल स्थान से निर्गत होने के कारण , जब ये तीनो रेखाएं प्राथमिक गति के निरोध के समय स्थिरता प्राप्त करती हैं , तब इनके अग्रभाग परस्पर मिलने के लिए पुनः गतिविशिष्ट हो जाते हैं। फलतः तीन बाह्य रेखाओ का विकास होता है , एवं एक समबाहु और समकोण त्रिभुज का आविर्भाव होता है।
उस समय ये तीन बाह्य रेखाएं ही केंद्र स्वरुप बिंदु का आवरण मानी जाती हैं। कहना नहीं होगा कि यही प्रथम आवरण है। कम से कम तीन सरल रेखाओ के किसी भी वस्तु का वेष्टन नहीं किया जा सकता।
तंत्र-शास्त्र में इसी त्रिकोण या त्रिभुज को “मूल-त्रिकोण” कहा गया है। बिंदु के स्पंदन के तारतम्य के कारण इस त्रिकोण के रूप भी भिन्न भिन्न प्रकार के हो सकते हैं , क्योंकि बाहु या कोण का परस्पर असंख्य प्रकार का वैषम्य संघटित हो सकता है। किन्तु मूल त्रिकोण साम्यभावापन्न होने से सर्वदा एक ही प्रकार का रहता है। यह मूल त्रिकोण ही विश्व की उत्पत्ति का कारण “महायोनि स्वरुप” है।
अब इसका मध्यवर्ती बिंदु विक्षुब्ध होकर उर्ध्वगतिशील ज्योतिर्मय रेखा के रूप में परिणत होता है, तब उसको उज्जवल प्रकाशपुंज के स्तम्भ रूप में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। कहना नहीं होगा कि यही वह पूर्ववर्णित स्वयंभू नामक ज्योतिर्लिंग है। अंतर्दृष्टि खुल जाने पर भीतर और बाहर सभी जगह यह लीला स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। बाइबल और अन्यान्य धर्म ग्रंथों में जिस अग्नि स्तम्भ (pillar of fire) का वर्णन मिलता है, वह भी इस लिंग-ज्योति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
(5) अब तक जिस प्रकार वर्णन किया गया , उससे तो आपाततः यही समझ में आता है कि योनि से ही लिंग का विकास होता है।
यद्यपि यह धारणा निर्मूल नहीं है, परंतु अभी तक लिंग और योनि के पारस्परिक सम्बन्ध को हृदयंगम नहीं किया जा सकता। सरलतापूर्वक समझने के लिए इस विषय पर और भी कुछ स्पष्ट कहने की चेष्टा करता हूँ। जिस योनि के सम्बन्ध में कहा गया है, उसके मूलतः एक होने पर भी , द्वैत जगत में उसे द्विविध जानना चाहिए। एक ब्रह्म-योनि और दूसरी मातृ-योनि। इसलिए त्रिकोण भी ऊर्ध्वमुख और अधोमुख भेद से दो प्रकार का है। दोनों के ही केंद्रस्थल में बिंदु वर्तमान है।
बिंदु विक्षुब्ध होकर जब रेखारूप में गतिशील होता है, तब वह भी ऊर्ध्वमुख और अधो-भेद से दो प्रकार का हो जाता है । इनमे से एक का नाम उर्ध्वलिंग और दुसरे का नाम अधोलिंग है। साधारण अवस्था में जगत के यावत् जीवजन्तु अधोलिंगविशिष्ट ही हैं , परंतु साधना के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति के प्रबुद्ध होने पर , ये उर्ध्व लिंग के रूप में आ सकते हैं।
(6) बिंदु जब विसर्ग के रूप में परिणित होता है, अर्थात जब द्वैतजगत का मूलभूत द्वन्द आविर्भूत होता है, तब एक बिंदु ऊपर व दूसरा नीचे गिर जाता है। इन दोनों बिंदुओं की संयोजक रेखा ही अक्षरेखा या ब्रह्मसूत्र है। ऊपर का बिंदु एक त्रिकोण का मध्यबिंदु है, इसी प्रकार नीचे का बिंदु भी एक दुसरे त्रिकोण का मध्यबिंदु है। जब उर्ध्वत्रिकोण एवं तन्मध्यस्थ-बिंदु विक्षुब्ध होता है, तब उस बिंदु से अधोमुखी (नीचे की ओर) शक्ति धारा निकलती है। यही सृष्टि अवस्था की सूचना है। इसी प्रकार जब अधःस्थित बिंदु और त्रिकोण विक्षुब्ध होते हैं, तब उस बिंदु से उर्ध्वमुखी शक्ति धारा निःसृत होती है। यह संहार की अवस्था है।
(7)जो शक्ति-धारा सृष्टि के समय उर्ध्वबिंदु से नीचे की ओर उतर जाती है , यह त्रिकोण क्षेत्ररूप से उसे अपने वक्षस्थल पर धारण कर लेता है। इसी के फलस्वरूप प्राकृतिक देह निर्मित होते हैं, एवं अज्ञानमय प्रपंच का आविर्भाव होता है। दूसरी ओर , जब अधोलिंग उर्ध्वलिंग अवस्था को प्राप्त होकर उर्ध्वमुखी शक्ति का संचार करता है, तब दूसरा त्रिकोण क्षेत्रस्वरुप होकर , उसको बीजरूप में धारण कर लेता है। इसी के फलस्वरूप अप्राकृतिक या दिव्य-प्रपंच का आविर्भाव होता है। देवता का देह-निर्माण या साधक को दिव्यभाव की प्राप्ति इसी से हुआ करती है। दिव्य सृष्टि के मूल में प्राकृत -संहार की आवश्यकता रहती है , एवं प्राकृत-सृष्टि के मूल में दिव्य-सृष्टि का तिरोभाव आवश्यक है।
अतएव सृष्टि और संहार – ये दोनों ही क्रियाएँ परस्पर अनुस्यूत हो रही हैं , दोनों के मूल में लिंग एवं योनि का परस्पर संयोग विद्यमान है।
(8)तंत्रशास्त्र में जिस मध्यबिंदु से विशिष्ट षट्कोण का वर्णन मिलता है, उसे इस ऊर्ध्वमुख और अधोमुख त्रिकोण के परस्पर संयोग से ही उत्पन्न समझना चाहिए। मध्यबिंदु दोनों त्रिकोणों के लिए ही समान है। यह षट्कोण ही शिवशक्ति का मिलित रूप है। हिन्दू बौद्ध जैन – सभी सम्प्रदायों के उपासक इसे किस न किस रूप में स्वीकार कर चुके हैं।
मैंने यहाँ जिस योनि और लिंग की बात कही है, वैदिक साधना में इसी ने यज्ञकुण्ड और यज्ञाग्नि का स्थान प्राप्त किया है। आचार्यों ने अनेकों जगह स्पष्ट लिखा है कि कुण्ड ही प्रकृति या योनि है , एवं अग्नि ही रूद्र या शिवज्योति है। देहतत्व-विद योगियों द्वारा वर्णित आधार चक्र भी यह कुण्ड या योनिस्वरुप है। तन्मध्यस्थ ज्योति जब प्रकाशित होकर ब्रह्म-मार्ग पर संचार करती है, तब उसी को ‘लिंग’ कहते हैं।
(9)लिंग कितने प्रकार के हैं और योनि कितने प्रकार की है ? एवं उनके मौलिक भेद क्या हैं ? इन विषयों पर यहाँ विचार कर लेना चाहिए।
लिंग एक होते हुए भी , योनि या अधारभेद से असंख्यरूपों में अविष्कृत होता है। स्वयंभूलिंग, बाणलिंग, इतरलिंग-प्रभृति सारे भेद केवल एक ही लिंग के विभिन्न विकास हैं। उसी प्रकार यह भी सत्य है कि मूल-योनि भी एक ही है, पर लिंग की विचित्रता के कारण वह भी खंड खंड योनियों के रूप में आविर्भूत होती है।
शास्त्रो में जो चौरासी लाख योनियों का वर्णन है, उसका भी यही एकमात्र कारण है। अतएव एक दृष्टि से लिंग भी एक है और योनि भी एक ही है परंतु दूसरी दृष्टि से देखने पर दोनों का ही वैचित्र्य अनंत प्रकार का है। जीव देह में जिन मूलाधारादि षट्संख्यक आधार-कमलों का वर्णन आता है , वह भी वस्तुतः योनि का ही प्रकार-भेदमात्र है। सर्वत्र ही बिन्दुरूप में लिंग अनुस्यूत है। इसकी अतीत अवस्था में बिंदु निराधार होकर अव्यक्त हो जाता है , लिंग का अलिंग में पर्यसान हो जाता है , एवं द्वैतभाव शांत होकर अद्वैत-भाव में आविर्भूत हो जाता है।
उस समय लिंग और योनि में किसी भी प्रकार के पार्थक्य का अनुभव नहीं किया जा सकता। यही निरालंब या निर्विकार अवस्था है।
वेदांत सूत्रकार ने कहा है – “योनेः शरीरम्”। यह बिलकुल सच है क्योंकि लिंग-ज्योति योनि में प्रविष्ट होकर यदि पुनः उत्थित न हो, तो किसी प्रकार देह निर्माण कार्य संपन्न नहीं हो सकता। हम जो भिन्न भिन्न इन्द्रियों के सहयोग से दर्शन श्रवणआदि भिन्न भिन्न कार्य सम्पादन करते हैं , यह भी सृष्टि कार्य का एक अंग है।
अतः इसके मूल में भी लिंग-योनि का समबन्ध वर्तमान है, इसमें कुछ संदेह नहीं है। इसलिए जगत के स्वरुप का भलीभाँती विश्लेषण करने पर यह लिंग और योनि-तत्व क्षुद्रतम् परमाणु के गठन से लेकर बृहत्तम ब्रह्माण्ड के संस्थान तक, सर्वत्र दिखलाइ पडेगा। पश्यन्ति मध्यमा वैखरी – ये तीन प्रकार के शब्द ही त्रिकोण की तीन रेखाओं के रूप में कल्पित हैं। इन्ही का दूसरा नाम इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति है। अथवा निम्न स्तर पर सत् रज तम हैं।
(9)मध्यस्थ बिंदु परा-वाक् या शब्द की तुरीय अवस्था का निर्देशन है। अतः बिन्दुयुक्त त्रिकोण मायासाहित ईश्वर अथवा शिव-शक्ति का ही नामान्तर है। यही सम्मिलित रूप से चतुर्विध वाक्-तत्व की समष्टि है , अर्थात शब्द-ब्रह्म-स्वरुप है। इस पर यथार्थ अधिकार होने से शब्दातीत, वेद के अगोचर, अप्रमेय, निष्कल और निरंजन, तत्त्वातीत सत्ता का साक्षात्कार होता है।
जिसको ॐकार या प्रणव कहा जाता है, वह अर्धमात्रायुक्त इस त्रिकोण का ही नामान्तर है । यही योगशास्त्र की कुण्डलिनी या शब्द मातृका है। इस त्रिकोणात्मक योनि की तीनो रेखाएं जब एक सरल एवं सम-रेखा में परिणत होंगी , जब वह रेखा अर्धमात्रा में पर्यवसित हो जायेगी और जब अर्धमात्रा बिंदु में विलीन होकर अव्यक्त हो जायेगी, तब मध्यस्थ बिंदु आवरण मुक्त होकर बिंदु भाव से अतीत , सर्वविकल्प-रहित अद्वैत-सत्ता में विलीन हो जायेगा।
लिंग रहस्य के सम्बन्ध में मैंने अभी संक्षेप में यहाँ दो चार बातें बतलायी हैं। इस समय इसकी विस्तृत आलोचना संभव नहीं है, परंतु यह निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि गौरापीठ पर शिवलिंग-उपासना में अश्लीलता रत्ती मात्र भी नहीं है। इसके असली तत्व से अनभिज्ञ लोग ही इस प्रकार की अश्लीलता की कल्पना कर दिल्लगी उड़ाया करते हैं।
मैंने जो कुछ कहा है , उसमे लिंग के तत्व का बहुत थोड़ा सा विवेचन हुया है। यह लिंगोपासना स्थूल जगत में किस प्रकार एवं किन-किन प्राकृतिक नियमो से चली , इस विषय की आलोचना यहाँ नहीं की गयी है। लिंगोपासना में मृत्तिका, सुवर्ण एवं रजतादि धातु प्रभृति उपादानों के भेद में क्या रहस्य है और इसकी अन्यान्य आनुषांगिक क्रियायों का क्या रहस्य है, एवं द्वैत जगत में विष्णु प्रभृति देवताओ की अपेक्षा शिव-तत्व से इसका अधिकतर घनिष्ठ सम्बन्ध क्यों है , ये बाते इस लेख में नहीं उठायी गयी हैं। लिंग-रहस्य यथार्थरूप से बुद्धिगोचर होने पर ये सब स्थूल-विषय और भी सहज ही समझ आ सकेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं।
*योनि मुद्रा और उसके लाभ :*
यौगिक दृष्टि से अपने अंदर कई प्रकार के रहस्य छिपाए रखनेवाली मुद्रा का वास्तविक नाम ‘योनि मुद्रा’ है| तत योग के अनुसार केवल हाथों की उंगलियों से महाशक्ति भगवती की प्रसन्नता के लिए योनि मुद्रा प्रदर्शित करने की आज्ञा है| प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव लंबी योग साधना के अंतर्गत तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना से भी दृष्टिगोचर होता है|
इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से साधक की प्राण-अपान वायु को मिला देनेवाली मूलबंध क्रिया को भी साथ करने से जो स्थिति बनती है, उसे ही योनि मुद्रा की संज्ञा दी है| यह बड़ी चमत्कारी मुद्रा है|
पद्मासन की स्थिति में बैठकर, दोनों हाथों की उंगलियों से योनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं|ऋषियों का मत है कि जिस योगी को उपरोक्त स्थिति में योनि मुद्रा का लगातार अभ्यास करते-करते सिद्धि प्राप्त हो गई है, उसका शरीर साधनावस्था में भूमि से आसन सहित ऊपर अधर में स्थित हो जाता है|
इस मुद्रा का प्रयोग साधना में शाक्ति को द्रवित किये जाने में किया जाता है |भगवती [शक्ति ]की साधना में उन्हें प्रसन्न करने के लिए इस मुद्रा का प्रदर्शन उनके सम्मुख किया जाता है |पंचमकार साधना में मुद्रा का आवश्यक स्थान होता है|
योग तन्त्र का पूरा आधार एक गुढ़ रहश्य है जिसे जितना भी समजा जाये कम ही पड़ता है, सदियों से साधक ने इस आधार को समजने की कोशिश की है और अत्यधिक से अत्यधिक ज्ञान प्राप्त करने परभी उसके सभी पक्ष का अनावरण नही हो पाया है, वह आधार है कुण्डलिनी शक्ति. कुण्डलिनी के जितने भी पक्ष अब तक विविध सिद्धोने सामने रखे है वह मनुष्यों को उसकी शक्ति के परिचय के लिए पर्याप्त है. सामान्य रूप मे साधको के मध्य कुण्डलिनी का षट्चक्र जागरण ही प्रचलित है,
लेकिन उच्चकोटि के योगियों का कथन है की सहस्त्रारजागरण तो कुण्डलिनी जागरण की शुरुआत मात्र है, उसके बाद ह्रदयचक्र, चित चक्र, मस्तिस्क चक्र, सूर्यचक्र जागरण जैसे कई चक्रों की अत्यधिक दुस्कर सिद्धिया है जिनके बारे मे हम सामान्य मनुष्यों को भले ही ज्ञान न हो लेकिन इन एक एक चक्रों के जागरण के लिए उच्चकोटि के योगीजन सेकडों साल तक साधना रत रहते है.
इस प्रकार यह कभी न खत्म होने वाला एक अत्यधिक गुढ़ विषय है. इसी क्रम मे अलग अलग लाखो-करोडो विधान प्रचलित है.
योग तन्त्र के मध्य कायाकल्प के लिए एक अत्यधिक महत्वपूर्ण विधान है. कायाकल्प और सौंदर्य का सही अर्थ क्या है, इसके बारे मे पहले ही चर्चा की जा चुकी है की यह मात्र काया को सुन्दर बनाने की कोई विधि मात्र नही है.
यह आत्मा की निर्मलता से लेके पाष से मुक्त होके आनंद प्राप्ति की क्रिया है. अगर साधक आतंरिक चक्रों के दर्शन की प्रक्रिया कुण्डलिनी के वेगमार्ग से करता है तब उसे मूलाधार से आगे बढ़ते ही एक त्रिकोण द्रष्टिगोचर होता है, जो की आतंरिक योनी है, मनुष्यका ह्रदय पक्ष और स्त्री भाव इस त्रिकोण पर निर्भर करता है, और उसके ऊपर मणिपुर चक्र के पास एक लिंग ठीक उस त्रिकोण अर्थात योनी के ऊपर स्थिर रहता है, जो की व्यक्ति के मस्तिष्क पक्ष और पुरुष भाव से सबंधित है.
यह त्रिकोण और लिंग से एक पूरा शिवलिंग का निर्माण होता है जिसे योग-तन्त्र मे आत्मलिंग कहा जाता है. इस लिंग के दर्शन करना अत्यधिक सौभाग्य सूचक और सिद्धि प्रदाता है. शिवलिंग के अभिषेक के महत्व के बारे मे हर व्यक्ति जनता ही है. यु इसी क्रम मे साधक इस लिंग का अभिषेक करे तो आत्मलिंग से जो उर्जा व्याप्त होती है वह पुरे शरीर मे फ़ैल कर आतंरिक शरीर का कायाकल्प कर देती है.
उसके बाद साधक निर्मल रहता है, उसके चेहरे पर और वाणी मे एक विशेष प्रभाव आ जाता है. साधक एक हर्षोल्लास और आनंद मे मग्न रहता है और कई सिद्धिया उसे स्वतः प्राप्त होती है.
योगतन्त्र मे इस दुर्लभ विधान की प्रक्रिया इस प्रकार से है. यथासंभव इस अभ्यास को साधक ब्रम्ह मुहूर्त मे ही करे, लेकिन अगर यह संभव न हो तो कोई ऐसे समय का चयन करे जब शोरगुल न हो और अभ्यास के मध्य कोई विघ्न ना आये. साधक पहले अपनी योग्यता से सोऽहं बीज के साथ अनुलोम विलोम की प्रक्रिया करे. उसके बाद भस्त्रिका करे.
अनुभव मे आया है की जब साधक २ मिनट मे १२० बार पूर्ण भस्त्रिका करे तब उसे कुछ समय आँखे बांध करने पर कुण्डलिनी का आतंरिक मार्ग कुछ क्षणों तक दिखता है. इस समय मे साधक को ॐ आत्मलिंगाय हूं का सतत जाप करते रहना चाहिए. नियमित रूप से अभ्यास करने पर वह लिंग धीरे धीरे साफ़ दिखाई देने लगता है.
जब वह पूर्ण रूप से दिखाई देने लग जाए तब आत्मलिंग के ऊपर आप अपनी कल्पना के योग्य ॐ आत्मलिंगाय सिद्धिं फट मंत्र द्वारा अभिषेक करे. जिसे आँखों के मध्य हम बहार देखते है, चित के माध्यम से शरीर उसे अंदर देख सकता है, चित ,द्रष्टि के द्वारा पदार्थो का आतंरिक सर्जन करता है और उसे ही मस्तिक के माध्यम से हम बिम्ब समज कर हम उसे बहार देखकर महसूस करते है, तो इस प्रक्रिया मे चित का सूक्ष्म सर्जन ही मूल सर्जन की भाव भूमि का निर्माण करता है, इस लिए अभिषेक करते वक्त चित मे से निकली हुयी अभिषेक की कल्पना सूक्ष्मजगत मे मूल पदार्थ की रचना करती ही है, जिससे आप जो भी अभिषेक विधान की प्रक्रिया करते है वो आपके लिए भले ही कल्पना हो, सूक्ष्म जगत मे उसका बराबर अस्तित्व होता ही है.
अभिषेक का अभ्यास शुरू होते ही साधक का कायाकल्प भी शुरू हो जाता है| ‘ लिंग ‘ का सामान्य अर्थ ‘ चिन्ह ‘ होता है। इस अर्थ में लिंग पूजन , शिव के चिन्ह या प्रतीक के रूप में होता है। सवाल उठता है कि लिंग पूजन केवल शिव का ही क्यों होता है , अन्य देवताओं का क्यों नहीं ? कारण यह है कि शिव को आदि शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है , जिसकी कोई आकृति नहीं। इस रूप में शिव निराकार है।
लिंग का अर्थ ओंकार ( ॐ ) बताया गया है…. “प्रणव तस्य लिंग ” उस ब्रह्म का चिन्ह प्रणव , ओंकार है .. .अतः ‘ लिंग ‘ का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं अपितु उनके ‘ पहचान चिह्न ‘ से है , जो अज्ञात तत्त्व का परिचय देता है। यह पुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप मानता है|
प्रधानं प्रकृतिश्चैति यदाहुर्लिंगयुत्तमम्।
गन्धवर्णरसैर्हीनं शब्द स्पर्शादिवर्जितम्॥ ( लिंग पुराण 1/2/2).
अर्थात् प्रधान प्रकृति उत्तम लिंग कही गई है जो गन्ध , वर्ण , रस , शब्द और स्पर्श से तटस्थ या वर्जित है। शिवलिंग की आकृति — -भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार यह संपूर्ण ब्रह्मांड मूल रूप में एक अंडाकार ज्योतिपुंज ( बिगबेन्ग का महापिन्ड – नीहारिका के स्वरुप की भांति – – विज्ञान ) के रूप में था। इसी ज्योतिपुंज को आदिशक्ति ( या शिव ) भी कहा जा सकता है , जो बाद में बिखरकर
अनेक ग्रहों और उपग्रहों में बदल गई।( विज्ञान के अनुसार – – समस्त सौरमंडल महा-नेब्यूला के
बिगबैंग द्वारा बिखरने से बना है|)
वैदिक विज्ञान — ‘ एकोहम् बहुस्यामि ‘ का भी यही साकार रूप और प्रमाण है। इस स्थिति में मूल अंडाकार ज्योतिपुंज ( दीपक की लौ या अग्निशिखा भी अंडाकार रूप होती है अतः ज्योतिर्लिंग कहा गया ) का प्रतीक सहज रूप में वही आकृति बनती है , जिसकी हम लिंग रूप में पूजा करते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड की आकृति निश्चित ही शिवलिंग की आकृति से मिलती – जुलती है इस तरह शिवलिंग का पूजन , वस्तुत : आदिशक्ति का और वर्तमान ब्रह्मांड का पूजन है।
शिव के ‘ अर्द्धनारीश्वर ‘ स्वरूप से जिस मैथुनी – सृष्टि का जन्म हुआ, जो तत्व-विज्ञान के अर्थ में विश्व संतुलन व्यवस्था में ( जो हमें सर्वत्र दिखाई देती है ) -शिव तत्व के भी संतुलन हेतु योनि-तत्व की कल्पना की गयी जो बाद में भौतिक जगत में लिंग-योनि पूजा का आधार बनी|
उसे ही जनसाधारण को समझाने के लिए लिंग और योनि के इस प्रतीक चिह्न को सृष्टि के प्रारम्भ में प्रचारित किया गया|
*आध्यात्मिक आधार :*
— ब्र ह्म अलिंगी है|
—-उससे व्यक्त ईश्वर व माया भी अलिंगी हैं|
—जो ब्रह्मा , विष्णु, महेश व …रमा, उमा, सावित्री ..के आविर्भाव के पश्चात —-विष्णु व रमा के संयोग से ….व विखंडन से असंख्य चिद्बीज अर्थात “एकोहं बहुस्याम” के अनुसार विश्वकण बने जो समस्त सृष्टि के मूल कण थे | यह सब संकल्प सृष्टि ( या अलिंगी-अमैथुनी— ASEXUAL— विज्ञान ) सृष्टि थी| लिंग का कोइ अर्थ नहीं था|
— प्रथमबार लिंग-भिन्नता …रूद्र-महेश्वर के अर्ध नारीश्वर रूप की आविर्भाव से हुई,
—-जो स्त्री व पुरुष के भागों में भाव-रूप से विभाजित होकर प्रत्येक जड़, जंगम व जीव के चिद्बीज या विश्वकण में प्रविष्ट हुए|
—-मानव-सृष्टि में ब्रह्मा ने स्वयं को पुरुष व स्त्री रूप —-मनु-शतरूपा में विभाजित किया और लिंग –अर्थात पहचान की व्यवस्था स्थापित हुई| क्योंकि शम्भु -महेश्वर लिंगीय प्रथा के जनक हैं अतः –इसे माहेश्वरी प्रजा व लिंग के चिन्ह को शिव का प्रतीक लिंग माना गया|
*जैविक-विज्ञानी (बायोलोजिकल) आधार :*
पर – —सर्वप्रथम व्यक्त जीवन एक कोशीय बेक्टीरिया के रूप में आया जो अलिंगी ( एसेक्सुअल .. ) था ..समस्त जीवन का मूल आधार – —> जो एक कोशीय प्राणी प्रोटोजोआ ( व बनस्पति—प्रोटो-फाइट्स–यूरोगायरा आदि ) बना| ये सब विखंडन (फिजन)
द्विलिंगी पुष्प
—–> बहुकोशीय जीव …हाईड्रा आदि हुए जो विखंडन –संयोग ,बडिंग, स्पोरुलेशन से प्रजनन करते थे|—. वाल्वाक्स आदि पहले कन्जूगेशन( युग्मन ) फिर विखंडन से असंख्य प्राणी उत्पन्न करते थे| इस समय सेक्स –भिन्नता अर्थात लिंग –पहचान नहीं थी l|
—–> पुनः द्विलिंगीय जीव( अर्धनारीश्वर –भाव ) …केंचुआ, जोंक..या द्विलिंगी पुष्प वाले पौधे .. अदि के साथ लिंग-पहचान प्रारम्भ हुई| एक ही जीव में दोनों स्त्री-पुरुष लिंग होते थे|
——> तत्पश्चात एकलिंगी जीव …उन्नत प्राणी ..व वनस्पति आये जो ..स्त्री-पुरुष अलग अलग होते हैं … मानव तक जिसमें अति उन्नत भाव—प्रेम स्नेह, संवेदना आदि उत्पन्न हुए| तथा विशिष्ट लिंग पहचान आरम्भ हूँ. यथा :
स्त्री में पुरुष में~
१-बाह्य पहचान : योनि, भग — लिंग (शिश्न)
२-आतंरिक लिंग : अंडाशय, यूटरस –वृषण (टेस्टिज).