स्वदेश कुमार सिन्हा के आत्म-संस्मरण
पहले भाग में मैंने यह बतलाया था कि पुस्तकों से लगाव होने के कारण मैं गोरखपुर स्थित राहुल सांकृत्यायन संस्थान में जाता था। वहीं बौद्धधर्म के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ा था। इस दौरान मैंने पूर्वांचल के अनेक पुरातात्विक स्थलों को देखा और अनेक नए स्थलों की खोज में भागीदारी दी। बाद में कपिलवस्तु जाकर बौद्धधर्म की दीक्षा ग्रहण कर बौद्धभिक्षु बना। श्रीलंका जाने की भी सोची, लेकिन गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा के संपर्क में आने के बाद उनसे बातचीत करने के क्रम में यह समझ बनी कि बौद्धधर्म तथा सभी धर्मों की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है और आज सभी धर्म प्रतिक्रियावाद के गढ़ बन गए हैं। उनकी प्रेरणा से ही मेरा झुकाव वामपंथ की ओर हुआ।
लाल बहादुर वर्मा अभूतपूर्व प्रतिभाशाली अध्यापक थे। वे इतिहासकार, साहित्यकार और रंगकर्मी; सब कुछ थे, उन्होंने अकेले अपने दम पर पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक कतार खड़ी कर दी थी, जिनमें से अनेक आज भी सक्रिय हैं। जीवन के अंतिम 10-15 वर्षों में वे बुद्ध, आंबेडकर और गांधी के विचारों को मार्क्सवाद से जोड़ने की बात करने लगे थे। वे बुद्ध की करुणा से बहुत प्रभावित थे। हालांकि उनके बदले हुए विचारों से कम्युनिस्ट उन्हें अपने ख़ेमे से बाहर मानने लगे तथा कुछ लोगों ने उन्हें प्रतिक्रियावादी तक कह दिया। लेकिन वे अपने विचारों पर दृढ़ रहे। उन्होंने इसका विस्तृत वर्णन अपनी आत्मकथा ‘बुतपरस्ती मेरा ईमान नहीं’ के दूसरे भाग में किया है।
लाल बहादुर वर्मा के व्यक्तित्व और विचारों से मैं अत्यंत प्रभावित हुआ और तभी से मेरा झुकाव मार्क्सवाद की ओर हुआ। उस समय तक मैंने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर ली थी तथा डीएवी डिग्री कॉलेज में स्नातक में एडमिशन लिया। संभवत: इंटर का रिजल्ट देर से निकलने के कारण विश्वविद्यालय में एडमिशन नहीं मिल पाया। डीएवी काॅलेज मूलतः कायस्थों का कॉलेज माना जाता था। वहां के तत्कालीन प्रधानाचार्य एच.एस. लाल तानाशाह क़िस्म के थे। छात्र तो दूर की बात है, शिक्षक और कर्मचारी भी उनसे बहुत डरते थे। किसी को सार्वजनिक रूप से अपमानित कर देना उनके लिए बहुत छोटी-सी बात थी। ऐसे बिलकुल गैर-राजनीतिक माहौल में हम लोगों ने वहां पर एक वामपंथी छात्र संगठन की स्थापना की। उस कॉलेज में किसी छात्र संगठन की स्थापना करना बहुत कठिन काम था। दिल्ली से दिल्ली विश्वविद्यालय के वाणिज्य विभाग के प्रो. रवींद्र गोयल अपनी नौकरी छोड़कर छात्र संगठन बनाने के लिए गोरखपुर आए थे। डीएवी डिग्री कॉलेज के इतिहास में यह पहली घटना थी, जब वहां किसी छात्र संगठन का गठन हुआ।
विद्यालय के परिसर में पोस्टर लगाने या अध्ययनचक्र चलाने पर प्रधानाचार्य ने हम लोगों को धमकाया तथा कॉलेज से निकालने की बात कही, लेकिन हमें पता था कि वे वैधानिक तौर पर वैसा कुछ नहीं कर सकते थे, इसलिए हम सभी डटे रहे। मेरे संगठन की दो लड़कियों आशु वर्मा और रंजना सिन्हा ने हमेशा डटकर प्रधानाचार्य की तानाशाही का मुक़ाबला किया। 1985-86 में मैंने गोरखपुर विश्वविद्यालय में एमए समाजशास्त्र में एडमिशन लिया। वहां पर वामपंथी राजनीति की शुरुआत के बारे में बताने से पहले थोड़ा गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर के बारे में बताना ज़रूरी है। इस विश्वविद्यालय के निर्माण में एक आईएएस अफ़सर सूरति नारायण मणि त्रिपाठी की बड़ी भूमिका थी, जो बाद में गोरखपुर के जिलाधिकारी बने। उनके बारे में यह बात कही जाती थी, जो सत्य भी थी कि जब वे पहले विश्वविद्यालय कार्य परिषद के अध्यक्ष बने, तो उन्होंने केवल ब्राह्मण शिक्षक-कर्मचारियों की नियुक्ति की। इसी कारण से उस समय पूरे विश्वविद्यालय में ब्राह्मणों का ही वर्चस्व था।
उसी समय गोरखपुर के प्रतिष्ठित गोरखनाथ मठ के महंत दिग्विजयनाथ वैसे तो हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे, लेकिन वे पूर्वांचल में राजपूतों के नेता माने जाते थे। गोरखपुर विश्वविद्यालय में ब्राह्मण और राजपूतों के बीच उन दिनों में वर्चस्व की लड़ाई में त्रिपाठी ने विधि के एक दबंग छात्र हरिशंकर तिवारी को कार्यपरिषद का सदस्य बना दिया। इसके जवाब में दिग्विजयनाथ ने रवींद्र सिंह को आगे बढ़ाया। इस प्रकार हम देखते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में माफिया गैंगवार, जिसे ब्राह्मण-ठाकुर के बीच संघर्ष का नाम दिया जाता है, इसकी शुरुआत गोरखपुर विश्वविद्यालय में ब्राह्मण-ठाकुर के बीच में वर्चस्व की लड़ाई से ही हुई थी। सत्र 1985-86 में जब मैंने एडमिशन लिया था, तब गोरखपुर विश्वविद्यालय में शिक्षकों और कर्मचारियों का जाति समीकरण देखें तो उसमें करीब 85 प्रतिशत ब्राह्मण थे। बाक़ी 15 प्रतिशत में अन्य उच्च तथा दलित-पिछड़े वर्ग के थे। हिंदी विभाग में क़रीब 30 प्राध्यापक थे, जिनमें एक कायस्थ, दो भूमिहार तथा एक पिछड़े वर्ग में शामिल कुम्हार जाति के थे। शेष सभी ब्राह्मण थे। मंडल कमीशन की रिपोर्ट अभी लागू नहीं हुई थी। दलितों के लिए आरक्षण ज़रूर था, लेकिन इसमें भी योग्य प्रत्याशी न मिलने का बहाना बनाकर उच्च जाति के किसी अभ्यर्थी की नियुक्ति कर ली जाती थी।
इस माहौल में हम लोगों ने गोरखपुर विश्वविद्यालय में वामपंथी छात्र संगठन की राजनीति की। गोरखपुर विश्वविद्यालय में अगर छात्र राजनीति की स्थिति देखें, तो इसके संपूर्ण इतिहास में केवल दो कायस्थ और एक भूमिहार छात्रसंघ के अध्यक्ष हुए। बाक़ी सभी ब्राह्मण या राजपूत थे। छात्र संगठनों में केवल अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद था, वे लोग केवल ब्राह्मण-राजपूत की ही राजनीति करते थे।
कोई सोच सकता है? इस तरह के घृणित सवर्णजातीय माहौल में एक वामपंथी प्रगतिशील छात्र संगठन बनाना और उसे चलाना कितना कठिन रहा होगा? क्योंकि विश्वविद्यालय में बहुसंख्यक छात्र उच्च जातियों के थे। सारे हॉस्टल इन्हीं जाति के छात्रों से भरे थे। उस समय दो प्रगतिशील छात्र संगठन की स्थापना हुई, जिसमें एक दिशा छात्र संगठन, जिसमें मैं था, दूसरा प्रगतिशील छात्र संगठन (पीएसओ) था, जो बाद में आइसा संगठन बना। पीएसओ में सुभाष चंद्र कुशवाहा और अशोक चौधरी थे। बाद में सुभाष चंद्र कुशवाहा ने चौरी-चौरा विद्रोह और आदिवासी विद्रोह पर पुस्तकें लिखीं। वे आज भी सल्बार्टन इतिहास पर महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। इनके अलावा हम लोगों के साथ डॉ. सदानंद शाही और अनिल राय जैसे लोग भी थे, जो बाद में बनारस विश्वविद्यालय और गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी बने। इसके अलावा इन दोनों संगठनों से ढेरों लोग बाद में कम्युनिस्ट राजनीति में भी सक्रिय हुए।
गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षकों के बारे में बताना चाहूंगा, जो लंबे समय तक वामपंथी राजनीति से जुड़े रहे, लेकिन उनसे मिलने पर पता लगा कि वे सारे घोर जातिवादी और सामंती मूल्य-मान्यताओं से ग्रस्त लोग थे। इसमें राजनीति शास्त्र के एक भूतपूर्व विभागाध्यक्ष जो ब्राह्मण थे, उनके बारे में कहा जाता है, कि वे ‘एक चलता-फिरता पुस्तकालय’ थे। यह भी कहा जाता था कि दुनिया भर में राजनीति शास्त्र या मार्क्सवादी विचारधारा पर कोई भी नई पुस्तक आती थी, तो उसे वे मंगवा लेते थे और पढ़कर अपडेट रहते थे। हालांकि मुझे उनका इस प्रकार का महिमामंडन अतिशयोक्ति ही लगता था। पहली बार जब मैं उनसे उनके घर पर मिला, तो उसी समय मेरा उनसे मोहभंग हो गया। घर के लोगों से उनका व्यवहार घोर सामंती था। उनके घर में महिलाएं पर्दा करती थीं। मार्क्सवाद की बात तो छोड़िए, उनके घर में यह भी नहीं लगता था कि आप किसी जनवादी व्यक्ति के घर में हैं। जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई, तो वे इसके विरोधी हो गए तथा हर गोष्ठी-सेमिनार में दलित-पिछड़ों के ख़िलाफ़ विषवमन करने लगे। उनकी इस नियति के बारे में मुझे पहले ही से पूर्वाभास था। इन सबके बावज़ूद जब जनसंस्कृति मंच ने गोरखपुर में ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ नामक संगठन बनाया, तब इसका उन्हें अध्यक्ष बनाया गया तथा वे इस पद पर आजीवन बने रहे। मैंने उनके अध्यक्ष बनाए जाने का विरोध भी किया था, लेकिन मेरी बात अनसुनी कर दी गई, तभी मुझे महसूस हुआ कि किस तरह कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक संगठनों पर ब्राह्मणवादी जातिवादी तत्वों का क़ब्ज़ा है।
एक दूसरे, विधि विभाग के विभागाध्यक्ष थे। वे जाति के भूमिहार थे। उनके बारे में बताया जाता है कि अपने छात्र जीवन में वे एसएफआई से जुड़े हुए थे। उन्होंने अपनी छवि एक सख़्त अध्यापक की बनाई थी। लेकिन इस छवि के पीछे उनकी घोर तानाशाही प्रवृत्तियां छिपी हुई थीं। चूंकि विधि विभाग में सेमेस्टर प्रणाली लागू थी तथा विभागाध्यक्ष के पास बहुत से नंबर देने के अधिकार होते थे। मुझे याद है कि उनके विरोध में विधि विभाग में तानाशाही के ख़िलाफ़ धरना देने पर प्रगतिशील छात्र संगठन के दो लोगों को उन्होंने अनुत्तीर्ण करके विभाग से निष्कासित कर दिया था। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने पर वे इसके घोर विरोधी हो गए थे।
असल में मंडल कमीशन ने पूरे समाज में ध्रुवीकरण कर दिया था। लेकिन इसका सबसे ज़्यादा असर गोरखपुर विश्वविद्यालय पर पड़ा। इसका कारण यह था कि विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में – चाहे वो शिक्षक हों या कर्मचारी हों – उच्च जातियों का वर्चस्व था। मंडल कमीशन की रिपोर्ट एक तरह से ब्राह्मण वर्ग के दुर्गद्वार पर बहुजनों द्वारा दस्तक की तरह थी। आमतौर से विश्वविद्यालयों और डिग्री कॉलेजों में शिक्षक अपने बेटे-बेटियों और नातेदार-रिश्तेदारों को टॉप करवाकर उनकी नियुक्ति वाइस चांसलर से मिलकर करवा लेते थे। अनेक लोगों के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि उनका शोध भी शिक्षक ख़ुद ही लिख देते थे। उच्च शिक्षा आयोग में भी यही स्थिति थी। आयोग में उच्च जातियों का बहुमत था। इनके सभी लोग अपने अभ्यर्थियों की नियुक्ति कैसे करवाते थे, यह सभी को ज्ञात हैं। जो बेटे या नातेदार-रिश्तेदार सबसे अयोग्य होते थे, उनकी नियुक्ति कर्मचारियों में करवा दी जाती थी।
लेकिन रिपोर्ट लागू होने के बाद विश्वविद्यालय का परिदृश्य बिलकुल बदल गया, जो शिक्षक हम लोगों की गोष्ठी-सेमिनारों में आकर समाज परिवर्तन और सर्वहारा के अधिकारों की बात करते थे। वे सब मंडल कमीशन के विरोध में खुलेआम आ गए। हिंदी विभाग के एक भूतपूर्व विभागाध्यक्ष, जो दलित-पिछड़ों के पक्ष में कहानी-उपन्यास लिखते थे, वे भी इसके विरोध में आ गए। शिक्षक संघ के अध्यक्ष, जो कि समाजवादी पार्टी से जुड़े थे, वे ख़ुद घुमा-फिराकर दलित-पिछड़ों के अधिकार देने के सरकारी फ़ैसले का विरोध कर रहे थे।
इन सभी में एक बात जो सामान्य थी कि ये सभी ब्राह्मण थे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठन खुलकर मंडल कमीशन का विरोध कर रहे थे, क्योंकि समूची मीडिया में उच्च जातियों का वर्चस्व था। इसलिए मंडल कमीशन के विरोध में छोटी-मोटी घटनाओं को भी एक बड़ी घटना के रूप में पेश कर रहे थे।
उदाहरणस्वरूप मैं एक घटना के बारे में जानकारी दर्ज करता हूं। एक शाम 6 बजे विश्वविद्यालय के हॉस्टल के गेट पर मंडल कमीशन विरोधी दो छात्रों ने एक सरकारी बस को रोका। बस के यात्रियों और चालक-परिचालक को बस से उतारा तथा बस के टायर में आग लगा दी, जो थोड़ी ही देर में बुझा ही दी गई। वहीं पर एक पुलिस की गाड़ी खड़ी थी। पुलिसवाले सारी घटना का एक मूकदर्शक की भांति तमाशा देखते रहे। थोड़ी देर में वे छात्र पुलिस जीप में बैठकर नारा लगाते हुए चले गए। अगले दिन गोरखपुर के सभी समाचारपत्रों में छपा– ‘विश्वविद्यालय के हॉस्टल के सामने मंडल कमीशन के विरोध में भारी प्रदर्शन, बस में आग लगाई गई और दो छात्र गिरफ़्तार।’
यह घटना इस तथ्य को बताती है, कि किस तरह समूचे मीडिया पर उच्च जातियों का क़ब्ज़ा था। मंडल कमीशन लागू होने के बाद यद्यपि उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित-पिछड़ों का वर्चस्व हो रहा था, लेकिन यह वही समय था, जब इसकी काट के लिए भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति भी सिर उठा रही थी। 1990 में गोरखपुर विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था, जिसमें आर.एस. शर्मा, इरफ़ान हबीब, रोमिला थापर जैसे अनेक बड़े इतिहासकारों ने भाग लिया था। इस अधिवेशन में प्राचीन इतिहास के कुछ संघ से जुड़े इतिहासकारों ने बाबरी मस्ज़िद का मुद्दा उठाने की कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हुए।
एक दिन शाम को जब सम्मेलन का एक सत्र चल रहा था, तब गोरखपुर के सांसद तथा तत्कालीन गोरखनाथ मठ के मुख्य महंत अवैद्यनाथ ने अपने शिष्यों के साथ हॉल में घुसकर मंच पर क़ब्ज़ा कर लिया और इतिहासकारों को यह ज़बरदस्ती बताने लगे कि बाबरी मस्ज़िद एक हिंदू मंदिर है। वे और उनके शिष्य इतिहासकारों को धमकाने भी लगे। जब हम लोगों ने तथा अनेक इतिहासकारों ने इसका विरोध किया, तब वे लोग वहां से गए।
गोरखपुर विश्वविद्यालय की तत्कालीन वाइस चांसलर प्रतिमा अस्थाना ख़ुद ही संघ समर्थक थीं, इसलिए उन्होंने इस घटना को रफ़ा-दफ़ा कराने की पूरी कोशिश की। अगले दिन गोरखपुर के समाचारपत्रों में इस घटना के विषय में कोई ख़बर नहीं छपी। महंत अवैद्यनाथ न तो डेलिगेट थे और न ही उन्हें बुलाया गया था। इस घटना के एक-दो दिन बाद गोरखपुर के एक समाचारपत्र ने यह ख़बर प्रकाशित की थी कि ‘कश्मीर और अलीगढ़ से आए मुस्लिम इतिहासकारों ने सम्मानित महंत अवैद्यनाथ का भारतीय इतिहास कांग्रेस अधिवेशन में अपमान किया।’
इस घटना के क़रीब एक माह बाद दिल्ली से गौतम नवलखा के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘साँचा’ में इस घटना की एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित हुई, तब देश को इस घटना के बारे में पता चला। वह घटना यह बताती है कि किस तरह बहुजन राजनीति के विरोध में फासीवादी राजनीति अपना सिर उठा रही थी। दुर्भाग्यवश इसका मुक़ाबला वामपंथी तथा अन्य जनपक्षधर ताक़तें नहीं कर पाईं। गोरखपुर और उसके आस-पास मऊ, आजमगढ़ तथा बलिया आदि जिलों में दलित, पिछड़ों और मुस्लिमों में कम्युनिस्ट पार्टी का काफ़ी जनाधार था। उनके अनेक सांसद और विधायक इस क्षेत्र में चुनाव में जीतते भी रहते थे, लेकिन मंडल कमीशन लागू होने के बाद इन इलाक़ों में कम्युनिस्ट पार्टी को काफ़ी धक्का लगा तथा उसकी जगह बसपा-सपा ने ले ली।
वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टियां अपनी पुरानी सोच पर ही चलती रहीं। वे बहुजन समाज की अस्मिता को नहीं समझ सकीं। यही कारण है कि आज इन इलाक़ों में भाजपा की फासीवादी राजनीति ने क़ब्ज़ा कर लिया है। कमोबेश ऐसी स्थितियां सारे ही हिंदी प्रदेशों में घटित हुईं। इन सबके बावज़ूद मुझे अभी भी लगता है कि भारत में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई की अगुवाई कम्युनिस्ट ही कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी संकीर्णता को त्यागकर समाज परिवर्तन में लगी अन्य ताक़तें के साथ मिलकर साझा मोर्चा बनाना पड़ेगा।
क्रमश: जारी