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नारायणमूर्ति और पूंजीवादी प्रवृत्ति 

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भारत जैन

नारायणमूर्ति की क्या मजबूरी थी देश के युवाओं से सप्ताह में सत्तर घंटे काम करने की सलाह के पीछे  ?  मूर्ति पर्याप्त ख्यातिप्राप्त और सफल उद्योगपति हैं इसीलिए ‍तो उनकी बात को करोडों लोगों ने सुना / पढ़ा। पढ़े – लिखे हैं ये भी सब जानते हैं क्योंकि आई टी फील्ड में कोई संस्था शुरू करना केवल पूंजी निवेश से नहीं हो सकता था जब मूर्ति ने इन्फोसिस की स्थापना की । 

कारण है आज के युग की पूंजीवाद में गहरी आस्था । पिछली अनेक शताब्दियों में यूरोपियन साहसिकों ने अमेरिका और फिर एशिया में आराम से ज़िन्दगी बसर कर रहे लोगों को उनके संतुष्ट जीवन जीने को निकम्मापन कहा और महत्त्वाकांक्षी होने को ही जीवन का वास्तविक सूत्र बताया । 

मूर्ति ने एक ही पीढ़ी में भारत चीन के बराबर प्रगति कर सके इसके लिये सत्तर घंटे काम करना ज़रूरी बताया । बहस में यह पूछना आवश्यक है कि भारत चीन के बराबर पहुंचे इसकी ज़रूरत ही क्या है  ? चीन अमेरिका के बराबर या उससे भी आगे निकलना चाहता है । मगर किसलिए  ? 

हर इंसान जो धरती पर है उसकी मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी हों , यह सोच तो शुभ मानी जा सकती है मगर मूलभूत आवश्यकताएं क्या हैं क्या इसका मानदंड किसी विशेष देश की उपलब्‍धियां  होंगी यह कैसे तय होगा ? 

सच्चाई यही है कि पूंजीवाद  ‘ अधिक और बेहतर ‘ पाने का विचार हर मन में आरोपित कर व्यक्ति को सतत व्यग्र और असंतुष्ट ही बना  रहा है । 

पहले व्यक्ति के मन में कामना का बीज आरोपित करो और फिर कामनापूर्ति के प्रयास के फल का अधिकतम हिस्सा अपने कब्जे में ले लो , यही पूंजीवादी सोच है । 

इसी अनन्त दौड़ में पूंजीवाद हर इंसान को उलझाकर मानव जीवन को नारकीय बना रहा है । अपनी बुद्धि से मनुष्य ने वह संभावना तो पैदा कर दी है कि आज हर इंसान संसाधनों का न्यायोचित विभाजन कर न्यूनतम ज़रूरतें पूरी कर सके मगर इतनी समझदारी पैदा नहीं हुई है कि ऐसा संभव हो । 

अभी कल ही की दो  रिपोर्ट्स हैं : रिलांयस इंडस्ट्रीज का पिछली तिहाई का मुनाफ़ा 19,878 करोड़ यानि 218.44 करोड़ प्रतिदिन और केरल में 23,000 प्रतिमाह वेतन के लिये चपरासी की पोस्ट के लिये ग्रेजुएट इंजीनियरर्स ने भी साइकिलिंग टेस्ट दिया । 

और मजे की बात यह है कि चपरासी की पोस्ट के लिए साइकिलिंग टेस्ट भी केवल एक परम्परा के तहत ही चल रहा है , अब कोई उपयोगिता नहीं है उसकी ।

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