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*प्रेम और सरलता : इन्हीं दो चीज़ों से घबराता है मनुष्य*

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        ~ पुष्पा गुप्ता

    दोनों ही चीज़ें सही मायने में एक ही चीज़ हैं। यह लगभग असंभव है कि प्रेमी सरल न हो और सरल प्रेमी न हो। लेकिन मनुष्य का मन ऐसा है कि उसे जटिल में ही रुचि पैदा होती है, कुछ चुनौतीपूर्ण लगता है, कुछ पूरा करने जैसा लगता है, कुछ जीत लेने जैसा लगता है।

    प्रेम को वह बरते कैसे ? वहाँ कुछ करने के लिए है ही नहीं। प्रेम अंतस को छू गया, बस, बात पूरी हो गई।

  युद्ध, महामारी इत्यादि से निबटने में मनुष्य का मन माहिर है, वह कूद पड़ेगा, जूझ जाएगा, मच जाएगा। प्रेम लेकिन असहनीय है।

    किसी को सचमुच में प्रेम करके देखो, एकदम निःस्वार्थ प्रेम, वह समझ ही नहीं पाएगा कि आपके जैसे प्रेमी को बरता कैसे जाए।

    सचमुच के प्रेम को बरतने का मनुष्य जाति के पास कोई प्रशिक्षण नहीं है। फिर जो प्रेमी हुए, उन्होंने ऐसी उड़ती-उड़ती बातें की हैं, ऐसा हवा में उड़ते हुए जीवन जिया कि उनके जिये हुए से कोई बात पल्ले ही नहीं पड़ती, उल्टे ख़ौफ़ अलग बैठ जाता है।

     महादेवी के केवल वचनों से कैसे जीने की बूझ पैदा की जाए, वह स्त्री जो निर्वस्त्र फिर रही है ? मीरां गीत गा रही है, गालियाँ खा रही है, विष पी रही है, उसके जीवन से जीने के लिए क्या सूत्र निकाला जाए ?

    फटा कंबल ओढ़ कर घूमने वाले मजनूँ की हँसी से कैसे समझ लिया जाए कि उसने क्या पा लिया ? हमारे कपड़े में तो ज़रा-सा दाग़ लग जाए तो छुपाने लगते हैं कि कहीं कोई देख न ले। ये लोग तो प्रेम का दाग़ लिए फिर रहे थे। इन्हें देख कर प्रेम किया भी कैसे जाए ?

   प्रेम तो जब होगा, आपके सिर को उतार कर आपके सिर पर चढ़ जाएगा। यहाँ देखा-देखी से क्या होता है भला ?

  प्रेम दो लोगों के बीच की घटना नहीं है, नहीं हो सकता। दो लोगों के बीच तो केवल कामना पैदा होती है, पा लेने की कामना, छू लेने की कामना, हड़प लेने की कामना। प्रेम की राह में कामना सबसे निकृष्ट बात है। जो चीज़ क्षण भर का सुख देती हो और मन भर का दुःख, वह उत्कृष्ट हो भी कैसे सकती है ? कि हो सकती है ? प्रेम का कामना से क्या लेना-देना ? वह है, तो है।

    जैसे एक साम्राज्य में दो राजा नहीं होते, वैसे प्रेम में भी दो लोगों का कोई काम नहीं है, कोई औचित्य नहीं है। वह अकेले का साम्राज्य है। जो प्रेम में देता है, प्रेम उसे ही सब कुछ देता है। जो प्रेम से भागता है, प्रेम उसके भाग नहीं आता।

  यह थोड़ा कच्ची-सी बात लगती है कि मजनूँ की कहानी में आख़िर तक लैला है। कहानी लैला से शुरू भर होती है, ख़त्म नहीं होती। लैला तो पहली सीढ़ी भर थी। और मजनूँ को कहीं अटारी नहीं चढ़ना कि लैला को सीढ़ी बनाए, मगर अस्तित्त्वगत योजनाएँ इसी तरह तो बनती हैं। कोई सीढ़ी बन जाता है, कोई अटारी चढ़ जाता है।

    लैला पहली सीढ़ी में छूट गई है। मजनूँ बहुत आगे निकल गया है। अब यह लैला मजनूँ की कहानी नहीं रह गई है। अब यह मजनूँ और मजनूँ की कहानी है। अब क्या फ़र्क़ पड़ता है कि सामने शीरी है कि साहिबाँ है कि जूलियट कि फ़रहाद कि रोमियो कि मिर्ज़ा कि दोस्त कि दुश्मन कि धरती कि आसमान कि नदी कि समंदर कि जंगल कि सेहरा, अब सब लैलामय है।

      यह वही मजनूँ है जो लैला की गली से आने वाले कुत्ते के पाँव चूम लेता है। जो कुत्ते में अपने प्रिय को देख सकता है, उसके लिए अब क्या बचा देखने को ? इसके बाद मजनूँ रोता नहीं, वह हँसने लगता है। अब बात जम गई है, अब मामला ऐसा हो गया है कि मजनूँ को सब मिल के पागल समझते हैं और अकेला मजनूँ सबको पागल समझता है.

   आज दुनिया भर में जितनी भी प्रेयसियाँ अपने प्रेमी से प्रेम पाने के लिए रो रही हैं, प्रेमी मुग़ालते में बैठे हैं, असल बात यह है कि सारी लड़कियाँ मजनूँ के लिए रो रही हैं।

    मजनूँ तो पूरा हो गया था तभी, फिर वह नहीं लौटा दोबारा इस मैट्रिक्स में फँसने, लैला मगर बार-बार लौटती है। ये सारी लड़कियाँ लैला हैं, जो प्रेम के लिए रो रही हैं, मजनूँ मगर इन्हें नहीं मिलता, वह तो गया।

    ये सारे लड़के, जो प्रेम के लिये रो रहे हैं, ये सब भी लैला हैं, इन्हें भी मजनूँ नहीं मिलता। मजनूँ एक शख़्स का नाम थोड़े ही रह गया है, मजनूँ अब गुणवाचक संज्ञा है। ये तमाम लोग प्रेम के लिए रो रहे हैं, प्रेम में नहीं रो रहे। इन्हें मजनूँ नहीं मिलता, नहीं मिलना।

     मिले भी कैसे, वह तो अपने ही भीतर की गुफा में छुपा बैठा है, बाहर ढूँढ़ोगे तो थर्माकोल का मजनूँ मिल सकता है, असली मजनूँ तो नहीं।

  भाई, किसी को लगता है राष्ट्रवाद बड़ा ख़तरा है, किसी को लगता है आयातित संस्कृतियों से ख़तरा है। लेकिन मैं तुझ से कह दूँ कि यह सब बचकाने ख़तरे हैं। असल में दुनिया को मजनूँ से ख़तरा है।

  इसीलिए तो लोग उसे पत्थर मारते हैं। नहीं मारेंगे तो वह पूरी दुनिया को हँसी के बाग में बदल देगा।

  कल जब हम पर हँसी का दौरा पड़ा था, तब मुझे यही ख़याल आ रहा था कि –

  सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुजुर्ग!

  हम लोग भी फ़क़ीर इसी सिलसिले के हैं.

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