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इस्लामिक देश के लिए बिरादराने शर्मायेदारी ही प्रधान और निर्णायक तत्व

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जयप्रकाश नारायण

विश्व के चार महाद्वीपों मे 57 ऐसे देश हैं जहां इस्लाम के अनुयायी बहुमत में है। इन्हें इस्लामिक कंट्री कहा जाता है। इनके कई संगठन भी है। अरब लीग, (22) ओआईसी (इस्लामी कॉरपोरेशन ऑर्गेनाइजेशन) और ‌ओपेक (तेरह तेल उत्पादक देशों का संगठन) है। जिसमें इस्लामिक मुल्कों का वर्चस्व है। अरब जगत के 22 देशों का विश्व अर्थव्यवस्था में 7 ट्रिलियन डॉलर का योगदान है। दक्षिण पश्चिम एशिया में धरती के नीचे तेल का विशाल भंडार है। “जहां कच्चा तेल इन देशों के लिए प्रकृति का वरदान है। वहीं यह इन देशों के लिए त्रासदी भी है।”

आधुनिक साम्राज्यवादी पूंजी के मुनाफे की हवस के कारण अरब क्षेत्र युद्ध भूमि में बदल गये है। जहां तेल के लिए छीना- झपटी और मारामारी राष्ट्रों के विध्वंस बर्बादी के वृहत्तर दृश्य दिखाई देते रहे हैं। वही अमेरिकी अगुवाई में नाटो देशों द्वारा इन देशों पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए निरंतर षड्यंत्र और संघर्ष चलता रहता है।

साम्राज्यवादी देश अपनी ऊर्जा की जरूरत के लिए मुख्यत: इन देशों पर निर्भर है। चूंकि विश्व साम्राज्यवादी पूंजी के मालिकों का अरब देशों के तेल उत्पादन प्रसंस्करण और वितरण पर पूर्ण नियंत्रण है। इसलिए वे इन देशों के सत्ता समीकरण को भी तय करते हैं। इन देशों में मन माफिक सरकारों के गठन से लेकर उनके संचालन में अमेरिका की निर्णायक भूमिका होती है।

फिलिस्तीनी समाज इस्लाम धर्मावलंबी समाज है। इसलिए विश्व जन गण सहित मुसलमानों में एक धारणा काम करती है कि डेढ़ अरब आबादी वाले इस्लामी देश फिलिस्तीन को बचाने के निश्चय ही कोई ठोस कदम उठाएंगे। आमतौर पर यह सवाल पूछा जाता है कि ‘विरादराने इस्लाम’ का नारा लगाने वाले मौलवी मुल्ला शेख शाहंशाह प्रिंस क्राउन किंग क्या फिलीस्तीनियों को बिरादराने इस्लाम में स्वीकार करते हैं या नहीं?

इस यक्ष प्रश्न का जवाब ढूंढने के लिए हमें अरब जगत की भौतिक स्थिति की ठोस जांच पड़ताल करनी होगी।

आमतौर पर इस्लामी देशों के भोले नागरिक ऐसा समझते हैं कि पिछले 75 वर्षों में अपने मादरेवतन से खदेड़े जा रहे और लुटे-पिटे अर्ध गुलाम फिलिस्तीनियों के लिए उनका राष्ट्र हसिल कराने में इन देशों का निश्चय ही योगदान होना चाहिए। लेकिन हम यह देख रहे हैं अमेरिकी साम्राज्यवाद की हथेली पर बैठा हुआ एक सा छोटा अप्राकृतिक देश-इजराइल ने अरब जगत को घुटने पर ला दिया है।

अमेरिका के संरक्षण में शिकारी बाज की तरह इजराइल फिलिस्तीनियों को कतरे-कतरे नोच कर निगलता जा रहा है। लेकिन अरब मुल्कों के शाह प्रिंस क्राउन और किंग की जमात के सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। वह अपनी पैतृक गद्दी बचाने के लिए अमेरिकी कठपुतली की तरह काम कर रहे हैं।

वह कौन सी स्थिति है कि इन देशों को अमेरिका के इशारे पर नाचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। आठ अरब इंसानों वाली इस धरती पर गाजा में रहने वाले 23 लाख फिलिस्तीनियों के साथ जिस तरह की बर्बरता क्रूरता हो रही है वह शायद मनुष्यता के इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी त्रासदी में से एक है। इस त्रासदी को अभिव्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई सटीक शब्द नहीं है। भाषा भी पूंजीवादी दुनिया के लोकतांत्रिक पाखंड के साम्राज्यवादी लूट के इस दौर में क्रूर होती जा रही मानवीय संवेदना को अभिव्यक्ति करने की क्षमता खो बैठी है।

हमारे सामने मारे गए बच्चों की तस्वीरें हैं। माओं के करूण रूदन है। अपनों को मलवे में ढूंढते हुए बेबस लोग हैं।अस्पतालों में लाशों के अंबार हैं। घायलों की छटपटाती हताश कराहती तस्वीरें हैं। दवा, पानी, भोजन के लिए मरते छटपटाते लोग हैं।

इजरायल द्वारा घोषित तौर पर अस्पतालों पर हो रही बमबारी ने ऐसी विकट स्थिति पैदा कर दी है कि चाह कर भी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं रेड क्रॉस सोसायटी के स्वयंसेवक व स्वयंसेवी संगठन फिलिस्तीनियों को कोई राहत नहीं पहुंचा पा रहे हैं। उनकी बेबसी देखते बन रही है। अब तक सैकड़ों की तादाद में स्वयंसेवक पत्रकार राहतकर्मी मारे जा चुके हैं।

फिर भी दुनिया में इस त्रासदी के लिए एकमात्र जिम्मेदार नाटो के देश “अमेरिका यूके जर्मनी फ्रांस” इसराइल के आत्मरक्षा के अधिकारों पर बहस चला रहे हैं। मानवीय सहायता की जवानी जमा खर्ची की आड़ में चेहरे को बेदाग बनाने की कोशिश के बावजूद भी उनका खूनी चेहरा बार-बार दिखाई दे जा रहा है।    

शायद दुनिया में यह मनुष्य का पहला क्रूर कारनामा होगा। जहां कुल मौत की संख्या में  30% से ज्यादा मासूम बच्चे हो। एक वर्ष से नीचे के बच्चों के मरने की तादाद सैकड़ों में  है। गाजा का खंडहर और कब्रिस्तान में बदल जाना एक ऐसी त्रासदी है जो किसी भी संवेदनशील मनुष्य की शांति और चैन को छीन सकती है।

विश्व में अमन चाहने वाले इंसान फिलिस्तीन की जनता के साथ भावनात्मक तौर पर मजबूती से खड़े है। दुनिया दो खेमें में बंट गयी है। जहां उनकी जनता फिलिस्तीन के साथ है। तो नस्ली धार्मिक कट्टरपंथियों के साथ इन देशों की सरकारें अमेरिका और इजरायल के पक्ष में खड़ी हैं। वहीं अमेरिकी जनता (यहूदियों सहित) इजरायली हमले का विरोध कर रही है तो अमेरिकी सरकार सैनिक और आर्थिक मदद इजराइल को जारी रखते हुए मानवीय होने का नाटक कर रही हैं।

 अब तक 9 हजार से ऊपर नागरिक गाजा में मारे गए हैं। अस्पतालों को ध्वस्त किया जा रहा है। खाना, पानी, दवा, बिजली, इंटरनेट सहित सभी जरूरी सुविधाएं रोक दी गई है। भयानक तबाही मची है। मलबों के नीचे हजारों लोगों के दबे होने की संभावना है। ईधन खत्म होने से अस्पतालों के इमरजेंसी जनरेटर बंद हो रहे हैं। इसलिए लगता है कि अस्पताल मुर्दाघर में बदलने वाले हैं।

हजारों विदेशी स्वयंसेवी संस्थाएं, राष्ट्र संघ के राहत कर्मी रफा बॉर्डर पर जीवनदायिनी सामग्रियों के साथ गाजा में प्रवेश करने के लिए खड़े हैं। लेकिन इजराइल उन्हें गाजा में प्रवेश करने की स्वतंत्रता पूर्वक इजाजत नहीं दे रहा है। राष्ट्र संघ के महासचिव सहित मानवाधिकार संस्थाओं के पदाधिकारी नाटो निर्मित त्रासदी को लेकर चिंतित हैं। वे बार-बार युद्ध रोकने के साथ अस्पतालों शरणार्थी शिविरों पर बमबारी का विरोध कर रहे हैं। साथ ही राहत सामग्री गाजा में जाने देने की मांग रहे हैं। ऑस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री ने इजरायल द्वारा किए जा रहे हैं जनसंहार को युद्ध अपराध करार दिया है।

चूंकि अरब देश नाटो के सदस्य हैं ।इसलिए सऊदी अरब, जार्डन, यूएई सहित अधिकांश अरब लीग के सदस्य देशों के अंदर अमेरिकी सैन्य अड्डे हैं। जिसके द्वारा वह इन देशों पर नियंत्रण रखता हैं। जब तक अमेरिका  को इस इलाके से बेदखल नहीं किया जायेगा और उसके सैनिक वर्चस्व को खत्म नहीं किया जाता है। तब तक अरब जगत के किसी भी देश में यह साहस नहीं है कि वे अमेरिका के विश्व रणनीति के खिलाफ जा सके। ऐसी जटिल परिस्थितियों में इस्लामी देश इजराइल के खिलाफ फिलिस्तीन के पक्ष में क्या कर रहे हैं। इस पर विचार करना बहुत जरूरी है।

 दुनिया में पूंजीवादी क्रांति के संपन्न होने के बाद राजा महाराजा शेख शहंशाह प्रिंस और किंग ऐतिहासिक रूप से अप्रासांगिक हो गये हैं। अगर वे अभी भी धरती पर कहीं बचे हैं तो सामाजिक विकास के लिए बड़ी बाधा है। राजशाहियों को ध्वस्त किए बिना इन देशों में आधुनिक लोकतंत्र के निर्माण की आधार शिला नहीं रखी जा सकती और इन देशों  में लोकतांत्रिक मूल्य-समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और भाईचारा स्थापित नहीं हो सकता और प्राचीन सामाजिक संबंधों का विखंडन किए बिना नागरिक और लोकतांत्रिक समाज का निर्माण और आधुनिक राष्ट्र राज्य नहीं बन सकता।

1933 के आस पास पेट्रोलियम की खोज के बाद अमेरिका सहित पूंजीवादी देशों ने इस धरती पर अपने पंजे गड़ाने शुरू किए। सऊदी अरब के साथ 1933 में ही अमेरिका के रिश्ते बन गये थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1945 में अमेरिकी राष्ट्रपति रुजबेल्ट और वर्तमान सऊदी शासक वंश के संस्थापक के बीच एक बैठक हुई। जिसमें अमेरिका के विश्व के बंटवारे की नीति पर गुप्त सहमति बनी। जो आज तक कायम है। इसके साथ ही जॉर्डन, कतर ,अबू धाबी, दुबई, यूएई, ईरान, यमन, सहित अरब जगत के बादशाहों के साथ अमेरिका के गहरे रिश्ते बनते गये और ये देश पश्चिम एशिया में अमरीकी गुटके महत्वपूर्ण देश बन गए।

इसके बदले अमेरिका ने अरब जगत में उठ रही आधुनिकता की लहरों को दबाने के लिए इन देशों को भारी सैनिक और आर्थिक मदद दी। इन बादशाहों ने अमेरिका की मदद से अपने देश के अवाम पर भारी दमन ढाया और मुख्तलिफ ताकतों का नरसंहार किया। हजारों प्रगतिशील बुद्धिजीवियों कवियों लेखकों सामाजिक कार्यकर्ता को अनेक तरह से यातनाएं दीगई ।उनकी हत्याऐं हुई और उभरते नए विचारों को दबा देने में शाहंशाहिया कामयाब हुई। 

अमेरिका ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समाजवादी विचारों को फैलने से रोकने के लिए सैन्य और सुरक्षासंधियों का जाल बिछाना शुरू किया। तो सबसे पहले अरब जगत के बादशाह उसमें शामिल हुए। इन बादशाहों ने गद्दी बचाने के लिए अमेरिकी कंपनियों को तेल के भंडार सौंप दिए। साथ ही कच्चे तेल के डालर में विनमय के एकाधिकार ने अमेरिका को आर्थिक रूप से बहुत ‌समृद्ध बनाया। इस प्रकार यह राजशाहियां अमेरिका के लिए वरदान साबित हुई।

जहां दुनिया भर में अमेरिका लोकतंत्र और मानव अधिकार का झंडा लिए घूमने का नाटक करता रहा वही वह अरब जगत में उठ रहे लोकतांत्रिक संघर्षों को कुचलना मे सहभागी रहा। जिसका स्वाभाविक परिणाम हुआ कि अरब देश पिछड़े विचारों वाले धर्मभीरू मुल्कों  बने रहे। इन देशों का औद्योगिकरण रुक गयाऔर वे अमेरिका के रहमों करम पर आश्रित हो गए।

जिस कारण वैज्ञानिक चेतना और आधुनिकता के मूल्य यहां के सामाजिक जीवन में प्रवेश नहीं कर पाए। हालांकि तेल की बाजार में बढ़ती मांग के कारण  इन देशों में भारी समृद्धि आई। पेट्रोडालर की प्रचुरता न औद्योगिक विकास की जगह शेखों शाहों और प्रिंस किंगों को समृद्ध के पहाड़ पर बैठा दिया। आधुनिक समय में राजशाहियों द्वारा इकट्ठा की गई अकूत संपदा के गलत इस्तेमाल और गलीज जीवन प्रणाली को देखकर कोई भी व्यक्ति इनसे घृड़ा कर सकता है। 

दूसरी तरफ पिछड़ी धर्म परायण जनता जकात और खैरात पर जिंदा रहने के लिए मजबूर हो गई। इस अंतरविरोधी स्थिति में फंसा हुआ अरबी समाज वस्तुतः आधुनिक विश्व में एक लंगड़ा और कमजोर देश बन कर रह गया। सच कहा जाए तो अभी राष्ट्र-राज्य जैसी समृद्ध अवधारणा अरब जगत में कहीं विकसित नहीं है। शायद भविष्य में किसी बड़े उथल-पुथल के बाद अरब राष्ट्रवाद के बीच से नए राष्ट्र राज्यों का अभ्युदय हो और ये देश आधुनिक सभ्यता के उच्चतम मूल्यों से लैस गतिशील तथा आधुनिक वैज्ञानिक समाज बन सके। 

लेकिन इसकी पहली शर्त है कि अरब देश अमरीकी साम्राज्यवाद के चंगुल से बाहर आए और वहां की जनता खुद अपने मुल्क का भाग्य विधाता बने। अमेरिकी साम्राज्यवाद के पराभव के बाद ही अरब देश मुक्त हो सकेंगे।

ईरान में हुए इस्लामी क्रांति के बाद मुस्लिम जगत में पुनरुत्थानवाद की आंधी चलने लगी। इस अवसर का फायदा उठाते हुए अमेरिका ने इस्लामी आतंकवाद का एक पूरा प्रोजेक्ट ही तैयार कर दिया। खैर इस बात को यहीं छोड़ते हैं।

इस समय जब गजा में नरसंहार चल रहा है। तो खबर आ रही है कि सऊदी अरब के किंग ने सऊदी अरब में अमेरिकी सैन्य अड्डे के निर्माण के लिए मंजूरी दे दी है। साथ ही जॉर्डन के शाह ने मिसाइल रोधी सिस्टम लगाने की अमेरिका से माग की है। दूसरी तरफ कतर और यूएई के बादशाह इजरायल के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को बनाए हुए हैं और वह जवानी जमा खर्च से आगे जाने के लिए तैयार नहीं है। ईरान द्वारा इजराइल से सभी संबंध तोड़ लेने के लिए जद्दा बैठक में रखेगये प्रस्ताव पर इन देशों ने कोई तवज्जो नहीं दी।

लंबे समय से अमेरिका के साथ तनावपूर्ण रिश्तों में रहते हुए ईरान ने कुछ भौतिक आर्थिक मदद फिलिस्तीनियों को दी है। लेकिन युद्ध विस्तारित होकर ईरान को अपने चपेट में न ले ले। इससे ईरानी सरकार लगातार बच रही हैऔर एक हद से आगे नहीं बढ़ना चाहती।

अमेरिका के इशारे पर नाचने वाले अरब जगत के देशों से फिलिस्तीन की जनता के जान माल और फिलिस्तीन के स्वतंत्र देश के लिए किसी सीधी कार्रवाई में जाने की उम्मीद करना खुशफहमी पालना होगा।

हां कुछ विद्रोही संगठनों ने खुलकर फिलिस्तीनियों को समर्थन दिया है। हमास के साथ हिज्बुल्लाह और हुती विद्रोहियों ने मिलकर इसराइल पर हमला किया है। कल अफ्रीकी देश अल्जीरिया की संसद ने सर्वसम्मत से प्रस्ताव पास कर फिलिस्तीनियों के पक्ष में युद्ध में उतारने का एलान किया है। फिलहाल स्थिति बहुत डरावनी है और लगातार बिगड़ती जा रही है।

गाजा में फिलिस्तीनियों के हो रहे जनसंहार ने दुनिया के लोकतांत्रिक जन गण को हिलाकर रख दिया है। लेकिन साम्राज्यवादी पूंजी के मंदी में फंसे होने के कारण अमेरिका सहित नाटो देशों को आर्थिक संकट से बाहर निकलने के लिए युद्ध के अलावा कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए अमेरिका और उसके सहयोगी देश दुनिया के युद्ध विरोधी जन गण की आवाज सुनने के लिए तैयार नहीं है। जिससे आने वाले समय में संभव है दुनिया को बहुत बड़ी त्रासदी से गुजरना पड़े।

आज के दुनिया का यही यथार्थ है कि “विरादराने  इस्लाम (यहां हिंदू, इसाई, यहूदी या कोई भी धर्म लिख सकते हैं) की जगह पर बिरादराने शर्मायेदारी ही प्रधान और निर्णायक तत्व है।” इसलिए आने वाले भविष्य में विश्व की सभी घटनाएं इसी मूल तत्व के द्वारा संचालित होती रहेगी और एक जीती जागती कौम अपने मातृभूमि से बेदखल होकर शरणार्थी शिविरों में रहने के लिए अभिशप्त हो जाएगी।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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