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फासिस्ट जेनोसाइड पर आधारितपूरी दुनिया में 211 फिल्में,कश्मीर फाइल्स फिल्म के फिल्म होने पर संदेह पैदा करता है

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जनार्दन

नस्लवाद और नरसंहार पर समय-समय पर फिल्में बनती रही हैं। यहूदियों के नरसंहार पर कई फिल्में बनें हैं। युवा फ़िल्मकार मनोज मौर्य के अनुसार पूरी दुनिया में 211 फिल्में हैं जो फासिस्ट जेनोसाइड पर आधारित हैं। पहली फिल्म 1940 में नाइट ट्रेन टु म्यूनिख (करोल रीड) और आखिरी फिल्म आश्विट्ज़ रिपोर्ट्स (पीटर बेब्जक) है। स्टीवेन स्पेलबर्ग के निर्देशन में बनी फिल्म शिंडलर्स लिस्ट (Schindler’s List) इस दिशा में बनी फिल्मों में सिरमौर की तरह है। फिल्म शिंडलर्स लिस्ट आस्ट्रेलियाई उपन्यासकार थॉमस केनेली (Thomas Keneally) के उपन्यास शिंडलर्स आर्क (Schindler’s Ark) पर आधारित होने से साहित्य के मानवीय पहलू से पलायन नहीं कर पाई है। ऑस्कर अवार्ड से सम्मानित इस फिल्म पर ज्यादा बात न करते हुए सिर्फ एक पहलू की ओर ध्यान दिया जा सकता है, और वह है इसका पोस्टर – इस फिल्म का पोस्टर मटमैले पृष्टभूमि का है, जिस पर दो हॉथ उकेरे गए हैं- एक सहायता देता हाथ और दूसरा सहायता लेता हाथ। भयानक यातना के समय में हाथों के यह मिलाप इंसान को सारे मुश्किलों से लड़ने के काबिल बनाता है।

हालिया रिलीज फिल्म कश्मीर फाइल्स के पोस्टर पर कुल छ: मुखाकृतियाँ उकेरी गई हैं, जिसमें से पाँच मुखाकृतियाँ फिल्म के उन किरदारों की हैं, जिनके साथ फिल्म में जुल्म होते दिखाया गया है। एक मुखाकृति फिल्म के खलनायक फारुक मलिक बट्ट की है। पर्दे पर इस किरदार को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक चिन्मय मांडेलकर ने निभाया है। फिल्म उत्पीड़ित नायकों और खूंखार खलनायक के बीच बँटी हुई है। खलनायक खूँखार दरिंदा है। वह एक नारा बार-बार देता है –‘मुसलमान बनो, भागो या मर जाओ’ और उत्पीड़ित पक्ष सिर्फ शोषित है और बार-बार दबे स्वर में भारत माता की जै और तत्कालीन केंद्र सरकार को दोष देता रहता है। उत्पीड़ित पक्ष भारतीयता से ओतप्रोत है और खलनायक इस्लामोफोबिया का केंद्र बिंदु। केंद्र सरकार के साथ-साथ फिल्म में पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की छवि भी दिखाई गई है। पूरी फिल्म में एक भी मानवीय करुणा वाला कश्मीरी मुसलमान नहीं दिखता। चूंकि जब कश्मीरी पंडितों को पलायन के लिए मजबूर किया गया था, तब वहाँ का शासन राज्यपाल जगमोहन के अधीन था। और जगमोहन जी अटल जी के राजनीतिक सचिव रह चुके थे। फिल्मकार द्वारा इस पूरे तथ्य से किनारा कर लेना अकारण नहीं है। तथ्य से किनारा करने का यह कृत्य फिल्म के सबसे चमकदार संवाद ‘गलत बात को दिखाना उतनी बड़ी बुराई नहीं है जितना सच्चाई को छिपाना’ की कलई खोल देता है। इसी कारण कश्मीर फाइल्स में फाइल जैसा कुछ नहीं है – डाक्युमेंटरी फिल्म तो बिल्कुल नहीं। यह डाक्युमेंटरी का अहसास दिलाती एक साधारण फिल्म है, जिसे सिनेमाई रूप से थोड़ा अधिक बेहतर होना चाहिए था।

फिल्म में सच के दो संस्करणों को दिखाया गया है। एक संस्करण के साथ कृष्ण पंडित के दादा के साथी और दूसरे संस्कण के साथ फारूक अहमद बट्ट और राधिका मेमन खड़ी हैं। जब कृष्ण के दादा पुष्कर नाथ (अनुपम खेर) की मृत्यु होती है, तो वह उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उनकी राख के साथ कश्मीर लौटता है और दादा के चार दोस्तों से मिलता है। वह दादा के चारों दोस्तों के साथ अपने पुश्तैनी घर जाकर दादा के अस्थि-भस्म को बिखेर देता है। यह दृश्य अर्थपूर्ण और कश्मीरी पंडितों की घर वापसी का रूपक रचता है। बहरहाल दादा के चारों दोस्त उसे कश्मीर की ‘असली’ कहानी सुनाते हैं। कृष्ण पंडित के साथ ‘कश्मीर की असली कहानी’ के इस संस्करण से दर्शक को भी परिचित कराया जाता है। यह नेरेटिव इतना तीखा और शक्तिशाली है कि दर्शक इस सत्य के साथ खुद को जोड़ भी लेता है।

सिनेमा एक उत्पाद है, जो बाजार के मनोविज्ञान को बनाता भी है और लाभ भी लेता है। सिनेमा का कारोबार बाजार के मनोविज्ञान पर निर्भर करता है। हमारे यहाँ बाजार की वह हैसियत बन चकी है, जहाँ उन्माद, भय और हिंसा की कीमत लगाई जा सकती है। मनोरंजन माध्यम में इसकी शुरूआत बहुत पहले हो चुकी थी। युद्ध पर बनी फिल्मों ने इस तरह के बाजार को खाद-पानी देने का कार्य किया। इस दिशा में अनिल शर्मा की गदर-एक प्रेम कथा और ऊरी-द सर्जिकल स्ट्राइक जैसी तमाम फिल्मों के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। हालांकि इन फिल्मों और कश्मीर फाइल्स में कुछ अंतर भी है, और वह है – उदार-देशभक्त मुसलमान या अल्पसंख्यक का अभाव। कश्मीर फाइल्स की पूर्ववर्ती फिल्मों में कम से कम एक उदार और देशभक्त मुसलमान किरदार हुआ करता था, जो फिल्म के हिंदू नायक के उद्देश्य के लिए कुर्बान हो जाया करता था। फिल्म में वह सौहार्द्र वाला गीत भी गा लिया करता था, मसलन – ये तेरी मेरी यारी अल्लाह को है, पसंद भगवान को है प्यारी आदि। मगर कश्मीर फाइल्स उस मुकाम पर खड़ी फिल्म है, जहाँ दिखावा के लिए भी उदार और देशभक्त मुस्लिम किरदार की जरूरत अब शेष नहीं रह गई है। यही वह जगह है, जहाँ फिल्म और राजनीति दोनों हमकदम और हमराज से हैं।

इस फिल्म के प्रदर्शित होने के बाद देश भर से तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं सुनने-पढ़ने-देखने को मिल रही हैं। प्रतिक्रियाओं की बाढ़ में बहने से जरूरी है कि शांत मन से फिल्म पर विचार किया जाए। कश्मीरी पंडितों का दर्द वास्तविक है। उन्हें पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस पलायन को सिनेमा जैसे लोकप्रिय माध्यम का विषय बनना चाहिए (बना भी है)। सवाल विषय के चयन पर न होकर उसकी प्रस्तुति पर होना चाहिए। देखा और समझा यह जाना चाहिए कि श्री अग्निहोत्री द्वारा 170 मिनट से अधिक लंबी फिल्म में जो दिखाया गया है, वह कैसे और क्यों दिखाया गया है? साथ ही जिस समय में यह फिल्म छविगृहों में दिखाई जा रही है, वह समय कैसा है? इस फिल्म के लिए समय का पक्ष एक जरूरी पक्ष है।

फिल्म कश्मीर फाइल्स फिल्म सेंसर बोर्ड द्वारा पूरी उदारता से पास की गई है। सेंसर बोर्ड की उदारता अब न परेशान करती है, न हैरान। चावल के ड्रम में छिपे करन पंडित (अमन इकबाल) को गोलियों से भून दिया जाना, उसके खून से सने चावल को उसकी पत्नी और कृष्ण पंडित की माँ शारदा पंडित ((भाषा सुंबली) को खाने पर मजबूर किया जाना, आरा मशीन से शारदा के जिस्म का चीरा जाना और सूची से मिलान करके चौबीस लोगों को गोली से भून डालना, जैसे दृश्य अत्यंत भयावह हैं। भारतीय सिनेमा में हिंसा का यह पैटर्न संभवत: पहली बार प्रस्तुत हुआ (बैंडिट क्वीन, चाइल्ड ऑफ वार और भाग मिल्खा भाग में भी हिंसा की ऐसी छवि अनुपस्थित) है।

फिल्म में हम लोग बनाम वे लोग  बार-बार दोहराया गया है। इस संवाद का सर्वाधिक दुहराव प्रतिनायकों के हिस्से आया है। यहाँ तक कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और वहाँ की वामपंथी शिक्षिका राधा मेनन (पल्लवी जोशी) को भी प्रतिपक्ष के रूप में उकेरा गया है।   को प्रतिपक्ष के गान के रूप में पेश करके सांस्कृतिक दुराव के आख्यान को गाढ़ा किया गया है। फिल्म में हम देखेंगे नज़्म और कृष्ण पंडित (दर्शन कुमार द्वारा अभिनीत) आमने-सामने हैं। जरा सोचिए कि कृष्ण पंडित किस तरह की आइडेंटिटी है? क्या कृष्ण की जगह रमेश और पंडित की जगह कोई दूसरा जाति सूचक टाइटिल लगाने से वह बात आ पाती, जो फिल्म का उद्देश्य है? हमें विचार करना चाहिए कि आखिर हम देखेंगे और ‘कृष्ण पंडित’ के आमने-सामने रखे जाने के मायने क्या हैं? क्या भारतीय गणतंत्र में दो अस्मिताओं को इस तरह एक दूसरे के आमने-सामने रखे जाने की आवश्यकता है, साथ ही यह भी कि इस तरह की सांस्कृतिक अलगाव जरूरत क्यों है?

फिल्म कश्मीर फाइल्स फिल्म सेंसर बोर्ड द्वारा पूरी उदारता से पास की गई है। सेंसर बोर्ड की उदारता अब न परेशान करती है, न हैरान। चावल के ड्रम में छिपे करन पंडित (अमन इकबाल) को गोलियों से भून दिया जाना, उसके खून से सने चावल को उसकी पत्नी और कृष्ण पंडित की माँ शारदा पंडित ((भाषा सुंबली) को खाने पर मजबूर किया जाना, आरा मशीन से शारदा के जिस्म का चीरा जाना और सूची से मिलान करके चौबीस लोगों को गोली से भून डालना, जैसे दृश्य अत्यंत भयावह हैं। भारतीय सिनेमा में हिंसा का यह पैटर्न संभवत: पहली बार प्रस्तुत हुआ (बैंडिट क्वीन, चाइल्ड ऑफ वार और भाग मिल्खा भाग में भी हिंसा की ऐसी छवि अनुपस्थित) है। फिल्म कई जगह बच्चों की आंखों दिखाई जान पड़ती है – मुसलमान बनो, भाग जाओ या मर जाओ का मायने जानता बच्चा, जम्मू-कश्मीर के पड़ोसी मुल्कों के रूप में भारत, अफगानिस्तान और चीन को याद करता बच्चा, गोली का शिकार होते सैनिक के सामने खड़ी बच्ची और फिल्म के खलनायक के साथ खामोश मगर पत्थर की मानिंद आखों वाला बच्चा।

फिल्म में सच के दो संस्करणों को दिखाया गया है। एक संस्करण के साथ कृष्ण पंडित के दादा के साथी और दूसरे संस्कण के साथ फारूक अहमद बट्ट और राधिका मेमन खड़ी हैं। जब कृष्ण के दादा पुष्कर नाथ (अनुपम खेर) की मृत्यु होती है, तो वह उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उनकी राख के साथ कश्मीर लौटता है और दादा के चार दोस्तों से मिलता है। वह दादा के चारों दोस्तों के साथ अपने पुश्तैनी घर जाकर दादा के अस्थि-भस्म को बिखेर देता है। यह दृश्य अर्थपूर्ण और कश्मीरी पंडितों की घर वापसी का रूपक रचता है। बहरहाल दादा के चारों दोस्त उसे कश्मीर की ‘असली’ कहानी सुनाते हैं। कृष्ण पंडित के साथ ‘कश्मीर की असली कहानी’ के इस संस्करण से दर्शक को भी परिचित कराया जाता है। यह नेरेटिव इतना तीखा और शक्तिशाली है कि दर्शक इस सत्य के साथ खुद को जोड़ भी लेता है। इस कहानी को आख्यान के रूप में गढ़ा गया है, जिसमें बताया जाता है कि कश्मीर को ज्ञान का सिरमौर पंडितों ने बनाया। आन की खोज में रत पंडितों को सभ्यताओं के संघर्ष का सामना करना पड़ा। इस संघर्ष के दौरान उनके साथ धोखा हुआ और उन्हें एक खास समुदाय को खुश रखने के लिए तत्कालीन राज्य और केंद्र सरकार के सहारे छोड़ दिया गया। यहीं पर राजा ललितादित्य मुक्तपीड और कश्यप श्रृषि के पराक्रम और ज्ञान को बताया जाता है। सत्य का दूसरा संस्करण खलनायक बिट्टा, जो गुलाम मोहम्मद डार उर्फ बिट्टा और यासीन मलिक (जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के चेहरे) के संयोजन से खड़ा किया गया पात्र है, द्वारा इतने अविश्वसनीय तरीके से बताया जाता है कि दर्शक की पूरी सहानुभूति सत्य के पहले वाले संस्करण के साथ हो जाती है।

। मित्रों के बीच जो बातें होती हैं, वह गहरे अर्थ लिए हुए हैं, जैसे गलत दिखाना गलत है, वैसे ही सच को छुपाना महापाप है या यहूदियों की बातें इसलिए सुनी गईं, क्योंकि उन्होंने दुनियॉ को अपनी सुनने के मजबूर किया आदि।

कश्मीर फाइल्स इसलिए भी थोड़ी अलग किस्म की फिल्म ठहरती है, क्योंकि जिस तरह से इसमें मुस्लिम पक्ष अनुपस्थित है, उसी तरह प्यार का पक्ष भी नदारद है। जिस कश्मीर को इस्तेमाल हिन्दी फिल्मों में सुंदर नजारे और कर्णप्रिय गीतों के फिल्मांकन के लिए किया जाता था, वह पक्ष इस फिल्म में सियार के सिर पर सिंह की तरह अनुपस्थित है। लगता है विवेक अग्निहोत्री ने यह तय कर लिया है कि कश्मीर के मुसलमानों पर जो आरोप है कि वे वहाँ के पंडितों के साथ जो किये हैं, उसका दंड यही है कि उन्हें (मुसलमानों) प्यार करते हुए न दिखाया जाए। इससे एक सुविधा अवश्य मिल गई – प्यार के अभाव से खाली स्पेस को हिंसा से पाटना आसान हो गया। साथ ही कैमरे ने घाटी के उदास गहरे रंगों को जिस शिद्दत से कैद किया है, वह एक भयानक सम्मोहन पैदा करता है।

फिल्म ने जिस तरह मिठुन चक्रवर्ती, प्रकाश बेलावाड़ी, पुनीत इस्सर और अतुल श्रीवास्तव को  पुष्कर नाथ के मित्र के रूप में पेश किया है, वह विश्वसनीय है। मिठुन और मृणाल कुलकर्णी हिंदी फिल्म में पति-पत्नी के रूप में शायद पहली बार पेश किए गए हैं। उनकी देह-भाषा एक दूसरे को सपोर्ट करती है। मित्रों के बीच जो बातें होती हैं, वह गहरे अर्थ लिए हुए हैं, जैसे गलत दिखाना गलत है, वैसे ही सच को छुपाना महापाप है या यहूदियों की बातें इसलिए सुनी गईं, क्योंकि उन्होंने दुनियॉ को अपनी सुनने के मजबूर किया आदि।

फिल्म का मुख्य पात्र पुष्कर नाथ अपने पोते से बार-बार कहता है कि पढ़ाई की बात करो राजनीति की नहीं, मगर फिल्म बार-बार राजनीतिक प्रोपगेंडा को परोसने की जतन करती जान पड़ती है। तथ्यों के एकतरफा प्रदर्शन में यह बात बार-बार उजागर होती है। फिल्म सीधे फारूक अब्दुल्ला और मुफ्ती मोहम्मद सईद पर हमला करती है और अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस को पंडितों के पलायन के लिए जिम्मेदार ठहराती है, लेकिन यह बताना भूल जाती है कि जनवरी 1990 में केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार सत्ता में थी, जिसका अस्तित्व भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों के बाहरी समर्थन पर निर्भर था।

इतना ही नहीं फिल्म कश्मीरी पंडितों के पलायन और नरसंहार और उनके साथ हुए अन्याय की बात तो करती है, मगर न्यायपालिका की भूमिका और कश्मीरी पंडितों की वास्तविक कानूनी लड़ाई के किसी सतह को छूती तक नहीं।

फिल्म का अंत कृष्ण पंडित के उस तकरीर से होता है, जो वह हम देखेंगे के गायन के बाद देता है। लगभग सात-आठ मिनट में वह जो कुछ कहता है, वह इस फिल्म का सार और उद्देश्य दोनों है। कृष्ण पंडित मिथकीय आख्यान का सहारा लेकर जिस तरह हिंदुत्व और बुद्ध को एक साथ जो़ड़ते हुए सूफियों और दरवेशों को कठघरे में खड़ा करता है वह सांस्कृतिक लड़ाई और दो अस्मिताओं के बड़े नेरेटिव के भविष्य की ओर बड़ी मुखरता से संकेत करता है। फिल्म का समापन व्यापक छात्र समूहों के मध्य लक्षित विश्वविद्यालय में होना अर्थपूर्ण है।

जनार्दन सिनेमा के गंभीर अध्येता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।   

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