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राजनीतिक समीकरण बदलने की कवायद में अखिलेश यादव

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लखनऊ: उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव की तैयारियों को पूरा कराया जा रहा है। इसको लेकर तमाम दल अपनी- अपनी राजनीतिक लामबंदी में जुट गए हैं। वोट बैंक को एकजुट रखते हुए नए समीकरण को जमीन पर उतारने की कोशिश की जा रही है। इस क्रम में अखिलेश यादव अपने माय (मुस्लिम- यादव) समीकरण को राजनीतिक जमीन पर बरकरार रखते हुए इसमें दलित- पिछड़ों को जोड़ने की कोशिश में लगे हैं। अब उनकी नजर पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक वोट बैंक को साधने की है। इसके लिए पीडीए समीकरण को जमीन पर उतारने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें आजम खान एक बड़ी भूमिका निभाते दिखते हैं। आजम खान सपा अध्यक्ष को अल्पसंख्यक वोट बैंक के बीच मजबूती से बनाए रखने में कामयाब होते दिखते हैं। यही वजह है कि अखिलेश यादव के बयानों में आजम का जिक्र होता है। इरफान सोलंकी उस तरह का भरोसा अखिलेश को दिलाते नहीं हैं। उनकी पकड़ मुस्लिम वोट बैंक में नहीं है, जैसी आजम की है।

अखिलेश यादव के बयानों को देखेंगे तो आपको उनके राजनीतिक समीकरण बदलने की कवायद साफ दिखेगी। अपने बयानों में पीडीए के दलित पिछड़ा की तो बात हर जगह करते हैं। लेकिन, ए को लेकर उनकी परिभाषा समय-समय पर बदलती रही है। पहले उन्होंने ए का मतलब अल्पसंख्यक कहा। पिछले दिनों एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान उन्होंने ए का मतलब अगड़ा बताया। मध्य प्रदेश के चुनावी मैदान में प्रचार करते हुए उन्होंने ए का मतलब आदिवासी बताया। हालांकि, अखिलेश की इस रणनीति को लेकर राजनीतिक विश्लेषक अलग-अलग नजरिए से देखते हैं। ए से अल्पसंख्यक न बोलने का कारण इस वर्ग के वोट बैंक पर अपना अधिकार की तरह होने का भरोसा होना है। यह भरोसा उन्हें आजम खान से मिलती दिख रही है।

ए मतलब कहीं आजम तो नहीं?

पीडीए के ए का मतलब कुछ लोग आजम से भी लगाते हैं। दरअसल, 2017 तक यूपी की राजनीति के दमदार चेहरे और पावरफुल नेताओं में से एक आजम खान योगी सराकार बनने के बाद से परेशान हैं। रामपुर से उनकी राजनीतिक पकड़ को खत्म करने की कोशिश लगातार जारी है। रामपुर लोकसभा उप चुनाव और रामपुर एवं स्वार विधानसभा उप चुनावों में आजम के करीबियों की हार ने उनकी मुश्किलों को बढ़ा कर रख दिया है। फरवरी 2020 में पहली बार जेल गए आजम खान 2022 के मध्य में जेल से बाहर आए और एक बार फिर जेल पहुंच गए हैं। बेटे अब्दुल्ला आजम के फर्जी सर्टिफिकेट केस में सजा सुनाए जाने के बाद उनकी परेशानी बढ़ी है।

आजम खान इस सबके बाद भी समाजवादी पार्टी के साथ जुटे दिखते हैं। 1992 में मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश में एक अलग राजनीतिक धारा बनाने की योजना बनाई। इसमें आजम खान ने मुख्य भूमिका निभाई। भले ही आजम खान 2010 में मुलायम से अलग हुए। लेकिन, यह अलगाव अधिक दिनों का नहीं रहा। अखिलेश को सीएम बनाने के 2012 के फैसले का जिस प्रकार से आजम ने बचाव किया था। यह अखिलेश के लिए काफी फायदेमंद रहा। पिछले साल आजम के जेल से बाहर आने के बाद अल्पसंख्यक वोट बैंक की नाराजगी को दूर करने में अखिलेश कामयाब रहे थे।

इरफान पर अखिलेश को भरोसा नहीं?

लोकसभा चुनाव 2024 में तमाम जातीय समीकरणों को साधने की कोशिश में जुटे सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का अपने ही विधायक इरफान सोलंकी के प्रति उदासीन रवैया कई सवाल खड़े करते हैं। इरफान के मामले में वे बड़े स्तर पर प्रयास करते नहीं दिखे हैं। इसका कारण यह भी कहा जा रहा है कि इरफान ने हमेशा उनके लिए परेशानी खड़ी की है। इरफान ने जून 2011 में महिला आईएएस अधिकारी रितु माहेश्वरी के कार्यालय में घुसकर दुर्व्यवहार किया था। शिकायत के बाद इरफान को गिरफ्तार किया गया। इरफान की गिरफ्तारी के बाद उनके समर्थकों की कानपुर पुलिस के साथ झड़प हुई थी। इरफान के माफी मांगने के बाद मामला शांत हुआ।

अखिलेश यादव के सीएम रहते इरफान ने उनकी टेंशन बढ़ाई थी। फरीदाबाद में फ्रंट शीशे पर काली फिल्म लगी गाड़ी से इरफान जा रहे थे। पुलिस ने गाड़ी रोकी। ट्रैफिक पुलिस ने गाड़ी रोकी तो हुड़दंगियों की भीड़ ने ट्रैफिक पुलिस से मारपीट शुरू कर दी। उस समय इस घटना को अखिलेश के लिए बड़ी शर्मिंदगी करार दिया गया था। उस समय सपा शासन से जुड़ी गुंडागर्दी को खत्म किए जाने की बात कही गई थी। इसके अलावा 28 फरवरी 2014 को जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज और हैलेट अस्पताल के जूनियर डॉक्टरों पर हमले का भी आरोप इरफान और उसके समर्थकों पर लगा था।

इरफान पर अभी भी धोखाधड़ी और महिला के घर को जलाने का आरोप चल रहा है। महिला के घर को जलाए जाने के मामले में आरोप इरफान सोलंकी और उसके भाई रिजवान सोलंकी पर लगा है। इस मामले में पिछले दिनों कोर्ट में गवाही हुई थी। इसमें गवाह ने घटनास्थल पर दोनों के पहले से ही मौजूद होने की बात कही थी। इस प्रकार के आरोपों को लेकर अखिलेश उनके पक्ष में खड़े होने से कतराते हैं। अखिलेश से जुड़े नेताओं का कहना है कि इस प्रकार के मामले में समर्थन से लोगों का भरोसा कम हो सकता है। इसलिए, ऐसे मामलों को अधिक तरजीह देने से सपा अध्यक्ष खुद को अलग रख रहे हैं। हालांकि, सपा अध्यक्ष की ओर से लगातार सपा नेताओं को टारगेट किए जाने का आरोप योगी सरकार पर लगाया जाता रहा है।

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