कनक तिवारी
मायाराम सुरजन को हमारी पीढ़ी ने बाबूजी कहा था। उनका व्यक्तित्व बढ़ती उम्र के बावजूद तेज़ हवा के झोंके की तरह था। वे जहां जाते, खुशनुमा मौसम बुन देते। गंभीर बने दीखना, चिंता का लबादा ओढ़े रहना ज्यादातर पत्रकारों की भी नीयत और नियति होती है। हिंदुस्तान में पत्रकारिता सुनिश्चित व्यवसाय नहीं है। चाय या काॅफी की चुस्कियां, पान की गिलौरियां, तम्बाकू की पिचपिच और बीड़ी तथा सिगरेट की वैकल्पिक विवशताओं के कश लगाते पत्रकार भी हैं। मायाराम सुरजन ऐसे ही हिचकोले खाने वाले नौजवान का नाम था। उनकी बाल्यावस्था में ही पिता को लकवा लग गया था। वे वर्धा से स्नातकीय पढ़ाई खत्म करने के बाद पत्रकारिता को लकवाग्रस्त व्यवसाय नहीं बनने देने का जोखिम लेकर कलम के सहारे आगे बढ़े थे। नवभारत, नई दुनिया, देशबंधु, नवीन दुनिया और जाने कितने छोटे-बड़े अखबारों की रीढ़ की हड्डी बने बाबूजी परम्परावादी पत्रकार नहीं थे। उन्होंने अखबार मालिकों की तरह सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। मायाराम सुरजन ने पुत्रों को व्यापारहीनता के गुर भी घुट्टी में डालकर पिलाए। जबलपुर में मेरी ससुराल होने से वे मेरी पत्नी को बेटी मानते सांस्कारिक होने से पैर छूते थे। मुझसे कहते परिवार के लिहाज़ से तुम दामाद हो लेकिन कर्म में छत्तीसगढ़िया होने से पुत्र। जीवन भर मुझे यह डबल रोल निभाना पड़ा। पांच पुत्रों के पिता मायाराम सुरजन ने मध्यप्रदेश में पत्रकारिता की इबारत में मूल्यहीनता के खिलाफ योद्धा की तरह अनथक संघर्ष किया। पत्रकारिता ही नहीं, प्रदेश के साहित्यकारों के रचनात्मक कर्म की धर्मशाला भी थे। छोटे से छोटा लेखक भी उनकी सदाशयता और स्नेह से वंचित नहीं था। बड़े से बड़े साहित्यकार से खौफ नहीं खाना भी विनयशीलता में शामिल था। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन धीरे धीरे मायाराम सुरजन का समानार्थी बन रहा था।
रायपुर में अपने महाविद्यालयीन प्राध्यापकीय दौर में मैं उनके ज़्यादा करीब आया। ‘देशबंधु‘ में कभी कभार लिखने भी लगा। मेरे लेख कभी काटे छांटे नहीं गए, न संक्षिप्त किए गए और न कभी उनसे बाबूजी की असहमति हुई। कुछ लेख विवादास्पद होते। तब भी उदारता और साहसपूर्वक छापे गए। उनका मिलने जुलने का सलीका अनौपचारिक, बेतकल्लुफ और रिश्तों की गर्मी के अहसास का होता कि लगता हम एक ही छत के नीचे परिवारजन हैं। उन्होंने कभी नफासत और गोपनीयता का लबादा ओढ़कर या विनम्र होकर नहीं दिखाया। उनसे मिलने जाने में हम प्रतीक्षा सूची में नहीं होते थे। वे लिखते लिखते भी कलम बंद कर अपनी मुस्कराहट भरी आंखों से देखते। ठहाके भी लगाते। हम किसी की शिकायत भी करते तो बाबूजी ने पहली प्रतिक्रिया में हमें खारिज नहीं किया। कई बार तो मन करता कि खाली बैठे हैं। तो उनकी बैठकी में चला जाए। एक बुजुर्ग का हाथ अगर लगातार सिर पर घूम जाएगा, तो हममें जीने का नया जोश उगेगा। उनके जाने के बाद बेहतर मनुष्य होने की संगति पाने की वह तासीर छिन गई है। बस यादें हैं। यादें तो हवा होती हैं।
सभी लोग दम्भ नहीं कर सकते कि मायाराम सुरजन से उनके संबंध इस तरह के थे कि वे बेलाग छूट ले सकते। मुझे दम्भ है और इसके गवाह भी हैं। उनसे औरों की घनिष्ठता मेरे बनिस्बत बहुत ज़्यादा रही होगी। उम्र के फासले के बावजूद जब भी मैंने कहा आपको अपनी बौद्धिक प्रतिबद्धताओं के कारण ‘न तो माया मिली और न ही राम,‘ तो वे निरुत्तर होकर हंसते थे। उनकी मुस्कान निश्छल होती थी और मेरी पूरक मुस्कान कुटिल। पितातुल्य व्यक्ति पर लगभग कटाक्ष करने के बाद मैं फिर कहता ‘माया और राम दोनों ने भले आपको छलावा दिया हो बाबूजी! लेकिन हैं तो आप सुरजन।‘ उनकी पीढ़ी ने गांधी के तेवर देखे थे और सुभाष बोस की ऊर्जा ने उसे ओजमय बनाया। मायाराम सुरजन अपना संसार समेटे वर्ष के आखिरी दिन पुराने कैलेण्डर के पृष्ठ की तरह चले गए। नए साल के सभी अखबारों के मुख पृष्ठ झुंझलाए हुए थे।
कई बातों पर उनके साथ संपादकीय सहकर्मियों से भी गुफ्तगू और बहस होती। कई छोटी बड़ी घटनाएं हैं। तब ‘देशबंधु‘ अखबार नहीं था। वह मनुष्य होते जाने की फितरत का विश्वविद्यालय था। रामाश्रय उपाध्याय, रम्मू श्रीवास्तव, सत्येंद्र गुमास्ता, राजनारायण मिश्र, बसंत कुमार तिवारी, सत्येन्द्र गुमाश्ता, ललित सुरजन, गिरजा शंकर, सुनील कुमार, राघवेन्द्र गुमाश्ता और न जाने कितने नाम याद करूं। वे बौद्धिक महफिलें होती थीं। उनमें तर्कशील घातप्रतिघात, चुटीले संवाद, खोजी कोशिशें और सुनने और प्रोन्नत होने की हिकमतें और तमीज एक दैनिक अखबार के दफ्तर को किसी जनतांत्रिक शोध विश्वविद्यालय में तब्दील करती रहतीं अपने अनिवार्य फक्कड़पन के साथ। रायपुर में वह एक दौर था जो वक्त की गलती से यादों से गुम हो गया है।
वैश्य वंश में जन्म लेने के बावजूद मायाराम सुरजन ने गरीबी विरासत में पाई। रुपया उन्हें जीवन भर काटता ही रहा और वे रुपए को काटते रहे। उन्होंने धीरे धीरे अखबार की चुनौतियों में रुपयों के प्रभाव को देखा लेकिन मुद्रा के संस्थागत महत्व से प्रभावित नहीं हुए। ‘देशबंधु‘ ने नए नए प्रयोग रुपया इकट्ठा करने के लिए किए। उनका असली मकसद होता था जल्दी जल्दी और ज्यादा से ज्यादा रुपया किस तरह खर्च किया जाए। मैं उनसे कहता आपने पिछले जन्म में कोई गड़बड़ की होगी वरना ब्राह्मण वंश के संस्कार और क्षत्रिय वंश के तेवर होने के बावजूद कहां विधाता ने आपको वैश्य कुल में जन्म दिया। इस पर वे खिलखिलाकर हंसते थे और कहते थे कि इस जन्म के कर्म की वजह से अगला जन्म तो शूद्र के यहां लूंगा। तभी मेरी मुक्ति होगी। उनके नेतृत्व में देशबंधु अनेक उपेक्षित सवालों का अनाथालय बनता गया था। ग्रामीण जीवन के अनगिन सवालों को उठाने का काम भी जिस तरह देशबंधु ने किया, वह बाबूजी के नेतृत्व में अनेक संवाददाताओं से सजी टीम का ही हो सकता था। यही वजह है कि इस क्षेत्र में की गई रिपोर्टिंग के सभी मुख्य पुरस्कार इसी पत्र समूह को मिलते रहे हैं।
मैं मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम का अध्यक्ष हुआ। तब कई बार मिलना जुलना हुआ। वे दूसरी मंजिल के मेरे दफ्तर में सीढ़ियां चढ़कर आते क्योंकि लिफ्ट नहीं थी। मैं उलाहना देता। बाबूजी आपको इस तरह चढ़कर इतने ऊपर नहीं आना चाहिए। मुझे बुला लिया होता। वे मुस्कान के साथ बोलते। भाई मुझको तुमसे कुछ व्यावसायिक काम था। तो क्यों न मैं भी कुछ उस अनुशासन का पालन कर लूं। इसमें कुछ बुरा भी क्या है। यह एक संदेश था। 19 नवंबर 1977 को इंदिरा गांधी के 60 वें जन्मदिन पर इंदिरा जी के समर्थन में मेरा लेख लगभग पूरे पृष्ठ का देशबन्धु में छापा गया था। तब इंदिरा जी सत्ता से बाहर थीं और यह उनका सबसे खराब जन्मदिन था। मेरे कहने पर बाबूजी अखबार का वह लेख कुछ बाद में दिल्ली जाकर इंदिरा जी से भेंट करते वक्त उन्हें दे आए थे। उसके कुछ दिन बाद मैं इंदिरा जी से मिला था। मैंने अपने लेख की चर्चा उनसे की। मुस्कराते हुए उन्होंने अपनी मेज का दराज खोला। वह लेख वहां पड़ा था। कहा कि मैंने उसे पढ़ा है। तुम्हें धन्यवाद। संयोगवश मैं 1995 में मध्यप्रदेश हाउसिंग बोर्ड का चेयरमैन भी हुआ। तब मैंने जबलपुर के कटंगा में हाउसिंग बोर्ड काॅलोनी का नाम मायाराम सुरजन के नाम पर किया। मुझे लगा मैं बाबूजी के लिए ज्यादा कुछ कर भी नहीं पाया।
मैं देशबंधु का पाठक रहा हूं। मायाराम सुरजन के व्यक्तित्व पर टिप्पणी करने की बौद्धिक स्थिति मेरी कब से हो गई? ये टूटी-फूटी पंक्तियां पत्रकारिता की आलोचना से संबंधित नहीं हैं। उनका मानवीय पक्ष मेरे जेहन में इस कदर हावी रहा है कि उससे उबरने का अवसर ही नहीं मिला। जब कभी उनसे रूबरू होता तो जु़बान लड़खड़ा जाती। तर्क भोथरे हो जाते। मायाराम सुरजन से संवादहीन होना मेरी अनिवार्यता नहीं थी लेकिन अनिवार्यता ही तो थी। वे मेरी इस स्थिति से बार बार चिंतित होते थे। कभी कभी तो झुंझलाकर कहते भी थे कि मुझे उनसे खुलकर उन मुद्दों पर बात करनी चाहिए जो मुद्दे वे उठा रहे हैं। वे कहते थे कि ‘क्या मैंने कोई ठेका ले रखा है और तुम क्या केवल श्रोता हो?‘ कभी कभार वन डे क्रिकेट की शैली में जब मैं अचानक चौके छक्के लगाने की मुद्रा में उनके तर्कों पर टूट पड़ता तो मेरे अकेले श्रोता मायाराम सुरजन जैसे मेरी धुंआधार बैटिंग पर ताली बजाने की मुद्रा में समर्थन की स्वीकृति में सिर हिलाते जाते थे। उनकी मुस्कान उस समय इन्द्रधनुषी होती थी। वह एक के बाद सप्त सुरों के आरोह अवरोह की तरह गहराती जाती थी। उनके जाने के बाद मुझे ऐसे बुजुर्ग की तलाश रही है जो उनकी तरह हमारी ज़िंदगी के रास्तों की मंज़िलों का पता लिखते हुए मुस्कान के समीकरण लिख सके। मायाराम सुरजन व्यक्ति नहीं, पिछली पीढ़ी का अध्याय थे।
भोपाल में 45 बंगले में स्थित उनके निवास से मायाराम सुरजन के निधन की मुझे जैसे ही खबर मिली, मैं दौड़ता हुआ वहां पहुंचा। बहुत कम लोग वहां उस समय पहुंच पाए थे। उन सबके बीच गंभीर चेहरा लिए खड़े बडे़ बेटे ललित को लोग ढाढ़स बंधाने की कोशिश कर रहे थे। बदहवासी की हालत में मेरे वहां पहुंचते ही मैंने ललित के कंधे पर हाथ रक्खा। उन्होंने मुझे अपनी बांहों में जकड़ लिया और फूटफूटकर रोने लगे। अंदर बहुत कुछ दुख के बर्फ की सिल्लियां भी थीं जो रिश्तों की गर्मी में पिघलने लगीं। फिर तो दुख मनाना ही हम सबके नसीब और भविष्य में हो गया। कुछ नाम हैं। व्यक्तित्व हैं। रिश्ते हैं। जो डींग मारने या प्रचार करने के लिए हो जाते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनमें भावनाओं की पुलक होती है। अंदर लेकिन कहीं उसमें मनुष्य होने की गर्माहट जीवित रहती है। तकलीफ तो झेलनी पड़ती है, जिसके कारण हमारा कुछ छिन जाता है। उसकी भरपाई हम कुदरत की कठोरता के कारण कर भी तो नहीं पाते। सौ बरस पहले कोई पैदा हुआ था। यह याद बार बार करना हमारे हिस्से और करतब में तो है।