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इस साल नोटबंदी का जश्न क्यों नहीं मनाया उत्सव प्रेमी सरकार ने?

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अनिल जैन

पिछले आठ-नौ वर्षों से वैसे तो केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ दल की ओर से कैलेंडर देख कर हर मौके पर कोई न कोई इवेंट होता रहता है। यहां तक कि कोरोना महामारी के दौरान भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान पर ताली-थाली, दीया-मोमबत्ती-आतिशबाजी, अस्पतालों पर विमानों से फूल-वर्षा और टीका महोत्सव जैसे आयोजन हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित तमाम योजनाओं को उपलब्धि की तरह पेश करते हुए आयोजन किए जाते हैं, भले ही उन योजनाओं के कोई सकारात्मक परिणाम न मिले हों। लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा लागू की गई नोटबंदी का कोई जिक्र न तो सरकार की ओर से किया जाता है और न ही भारतीय जनता पार्टी कभी उसका नाम लेती है। नोटबंदी के सात साल पूरे होने पर भी उसके बारे में कुछ नहीं कहा गया।

इससे पहले भी आठ नवंबर को नोटबंदी की बरसी पर सरकार और सत्तारूढ़ दल दोनों मौन रहते रहे हैं। इस बार भी दोनों चुप्पी साधे रहे। अलबत्ता इस बार भी सोशल मीडिया में नोटबंदी छाई रही। आम लोगों ने अपनी तकलीफें साझा कीं और प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्रियों के उस समय के भाषणों व बयानों के वीडियो क्लिप शेयर करते हुए उनका मजाक उड़ाया।

नोटबंदी के समय सरकार का कहना था कि उसने नोटबंदी के जरिए अर्थव्यवस्था से बाहर गैर कानूनी ढंग से रखे धन को निशाना बनाया है, क्योंकि इस धन से भ्रष्टाचार और दूसरी गैरकानूनी गतिविधियां बढ़ती हैं। टैक्स बचाने के लिए लोग इस पैसे की जानकारी छुपाते हैं। सरकार का मानना था कि जिनके पास बड़ी संख्या में गैरक़ानूनी ढंग से जुटाया गया नकदी है, उनके लिए इसे क़ानूनी तौर पर बदलवा पाना संभव नहीं होगा। लेकिन रिजर्व बैंक की अगस्त, 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक बंद किए गए नोटों का 99.3 फीसदी हिस्सा बैंकों के पास लौट आया है। 

रिजर्व बैंक यह रिपोर्ट चौंकाने वाली थी और इस बात का संकेत दे रही थी कि लोगों के पास नकदी के रूप में जिस गैर कानूनी या काला धन होने की बात कही जा रही थी, वह सच नहीं थी और अगर सच थी तो यह भी सच है कि लोगों ने अपने काले धन को सफेद यानी क़ानूनी बनाने का रास्ता निकाल लिया था। वैसे नोटबंदी के समय ही प्रो. अरुण कुमार सहित कई जाने माने अर्थशास्त्रियों ने सरकार की इस धारणा को गलत ठहराया था कि नकदी का मतलब काला धन होता है। इसलिए नोटबंदी से काला धन खत्म होना ही नहीं था। विदेशों में जमा भारतीयों के काले धन पर तो इसका असर पड़ने का कोई सवाल नहीं था। 

नोटबंदी से काला धन खत्म होने के दावे के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने दावा किया था और बाद में कई दिनों तक उनके मंत्री भी देश को समझाते रहे कि नोटबंदी से नकली नोटों का चलन भी रुकेगा और आतंकवाद पर भी लगाम लग जाएगी। लेकिन जब काला धन खत्म होने के बजाय बढ़ने के संकेत और सबूत मिलने लगे, 500 और 2000 के नए नोटों की शक्ल में नकली नोट बाजार में आने लगे और आतंकवादी वारदातों में कोई कमी नहीं आई तो नोटबंदी की आलोचना भी तेज़ हुई।

तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पैंतरा बदलते हुए कहा कि देश में कैशलेस इकोनॉमी बनाने यानी नकदी व्यवहार कम करने के लिए नोटबंदी प्रधानमंत्री का मास्टर स्ट्रोक है। उस समय के एक अन्य मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि नोटबंदी से देश में देह व्यापार में कमी आई है। कुछ अन्य मंत्रियों ने भी नोटबंदी के फैसले का बचाव करने के लिए इसी तरह के उलजुलूल बयान दिए थे।

बहरहाल यह प्रचार आज तक हो रहा है कि नोटबंदी के बाद देश में डिजिटल लेन-देन बढ़ गया है। यह सही है कि तब से अब तक डिजिटल लेन-देन बढ़ा है लेकिन सच यह भी है कि नकदी पर लोगों की निर्भरता भी पहले से कहीं ज्यादा हो गई है और बैंकों पर लोगों का भरोसा कम हुआ है। नोटबंदी के 7 साल बाद देश में कैश सर्कुलेशन रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है। आरबीआई द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान में 32.42 लाख करोड़ रुपये कैश सर्कुलेशन में हैं, जो 4 नवंबर 2016 को मौजूद 17.97 लाख करोड़ रुपये से 71.84 फीसदी ज्यादा है।

रिजर्व बैंक की परिभाषा के मुताबिक जनता के हाथ में नकदी होने का मतलब है ‘करंसी इन सरकुलेशन माइनस कैश इन बैंक्स’ यानी कुल तरलता में से बैंकों की नकदी अलग कर दें तो जो बचता है वह लोगों के हाथ की नकदी है और अभी यह 32 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है। माना जा रहा है कि कोरोना वायरस की महामारी से पैदा हुए हालात ने भी नकदी के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ाया है। 

लेकिन यह तस्वीर का एक पहलू है। इस आंकडे से कैश बबल पर फैलाए गए मोदी सरकार के झूठ की कलई तो खुलती ही है, साथ ही यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि नोटबंदी के फैसले के बाद देश में हाहाकार मचा। जिन रसूखदार लोगों के पास भारी मात्रा में 500 और 1000 के नोट थे, उन्हें तो बैंकों से अपने नोट बदलवाने में कोई परेशानी नहीं हुई।

लेकिन सीमित आमदनी वाले आम लोगों ने अपनी भविष्य की आवश्यकताओं के लिए जो छोटी-छोटी बचत अपने घरों में कर रखी थी, उन्हें अपने नोट बदलवाने के लिए तमाम तरह की दुश्वारियों का सामना करना पड़ा। उन्हें कई-कई दिनों तक बैंकों पर लाइन में लगना पड़ा, पुलिस के डंडे भी खाने पड़े और बैंक कर्मचारियों से अपमानित भी होना पड़ा। इस सिलसिले में 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। 

जिस समय नोटबंदी के चलते देश भर में हाहाकार मचा हुआ था, उसी दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अपने विदेशी दौरों में अपने इस फैसले के लिए अपनी पीठ थपथपाते हुए इसे साहसिक और ऐतिहासिक कदम बताया था। उन्होंने विदेशी धरती पर सार्वजनिक कार्यक्रमों में विद्रूप ठहाका लगाते हुए कहा था, “घर में मां बीमार है लेकिन इलाज के लिए जेब में पैसे नहीं है.. लोगों के घरों में शादी है लेकिन नोटों की गड्डियां बेकार हो चुकी हैं।” उनके इस कथन पर वहां मौजूद अनिवासी भारतीयों का समूह जिस तरह तालियां पीट रहा था, वह बड़ा ही अमानवीय और वीभत्स दृश्य था। 

नोटबंदी के चलते छोटे-मझौले स्तर के कारोबारियों के काम-धंधे ठप हो गए, जो अब भी पूरी तरह से पटरी पर नहीं लौट पाए हैं। लाखों लोगों को नौकरियां गंवानी पड़ी हैं। आज बेरोजगारी आजाद भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा है तो इसकी बड़ी वजह नोटबंदी भी है। जिनके पास रोजगार बचा हुआ है, उनकी आमदनी कम हुई है। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला तो बहुत पहले से ही चला आ रहा है, लेकिन नोटबंदी के बाद कई छोटे कारोबारियों और बेरोजगार हुए लोगों ने भी असमय मौत को गले लगाया है और यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है।

सरकार आंकड़ों की बाजीगरी दिखाते हुए भले ही यह ढोल पीटती रहे कि भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, लेकिन हकीकत बेहद स्याह है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत गिरने का सिलसिला भी नोटबंदी के बाद ही तेज हुआ है। देश से होने वाले निर्यात में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार कमी आई है।

नोटबंदी के कारण पहली बार यह शर्मनाक नौबत आई है कि भारत सरकार को अपना खर्च चलाने के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष से एक बार नहीं, दो-दो बार पैसा लेना पड़ा है और मुनाफे में चल रहे सरकारी उपक्रमों को निजी क्षेत्रों को बेचना पड़ रहा है। इन्हीं हालात के चलते नोटबंदी के बाद जीडीपी ग्रोथ पूरी तरह बैठ गई है। वित्तीय वर्ष 2015-16 के दौरान जीडीपी की जो ग्रोथ रेट 8 फीसदी के आसपास थी वह पिछले साल 2020-21 में माइनस में 7.3 दर्ज की गई थी, जिसमें 2021-22 और 2022-23 के दौरान कुछ सुधार आया है। 

संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनडीपी तमाम आंकड़ों के आधार पर बता रही है कि भारत टिकाऊ विकास के मामले में दुनिया के 190 देशों में 117वें स्थान पर है। अमेरिका और जर्मनी की एजेंसियां बताती हैं कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया के 125 देशों में भारत 111वें स्थान पर है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल जैसे देश भी भारत से बेहतर स्थिति में हैं। ‘वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक-2022’ में भारत का 125वां स्थान है। 137  देशों में भारत का स्थान इतना नीचे है, जितना कि अफ्रीका के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है। 

सरकार का कहना है कि कोरोना महामारी ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। यह सच भी है लेकिन सच यह भी है कि भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी के पहले ही रसातल में जा चुकी थी और इसकी शुरुआत नोटबंदी के बाद ही शुरू हो गई थी।

नोटबंदी के शुरुआती दौर में जब इस फैसले की देश-दुनिया में व्यापक आलोचना हो रही थी और विशेषज्ञों द्वारा उस पर सवाल उठाते हुए उसे देश की अर्थव्यवस्था के लिए विध्वंसक फैसला बताया जाने लगा था तो मोदी ने गोवा में एक कार्यक्रम के दौरान भावुक और नाटकीय अंदाज में कहा था, “मैंने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए नोटबंदी का कदम उठाया है। मैं जानता हूं कि मैंने कैसी-कैसी ताकतों से लड़ाई मोल ली है। मैं जानता हूं कि कैसे लोग मेरे खिलाफ हो जाएंगे, वे मुझे बर्बाद कर देंगे, मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे, लेकिन मैं हार नहीं मानूंगा। आप ईमानदारी को बढ़ावा देने के काम में मेरी मदद कीजिए और सिर्फ 50 दिन का समय मुझे दीजिए।” 

मोदी ने यह भाषण नोटबंदी लागू होने के पांचवें दिन बाद यानी 13 नवंबर 2016 को दिया था। उन्होंने कहा था, ”मैंने देश से सिर्फ 50 दिन मांगे हैं। मुझे 30 दिसंबर तक का वक्त दीजिए। उसके बाद अगर मेरी कोई गलती निकल जाए, कोई कमी रह जाए, मेरे इरादे गलत निकल जाए तो देश जिस चौराहे पर खड़ा करके जो सजा देगा, उसे भुगतने के लिए मैं तैयार हूं।’’ 

प्रधानमंत्री मोदी के उस भाषण के बाद कई ’50 दिन’ ही नहीं पूरे 1825 दिन बीत गए हैं, लेकिन वे भूल से भी अब नोटबंदी का जिक्र तक नहीं करते हैं। नोटबंदी के तहत 1000 और 500 रुपये का करेंसी नोट बंद कर उनकी जगह जो 2000 और 500 रुपये का नया करेंसी नोट चलन में लाया गया था, उसमें भी दो हजार का नोट अभी कुछ दिनों पहले ही सरकार ने चलन से बाहर कर दिया है। लेकिन आज तक किसी ने यह नहीं बताया है कि 1000 की जगह 2000 रुपये का नोट चलाने का क्या औचित्य था। अब जबकि उस नोट को चलन से बाहर कर दिया गया है तो भी नहीं बताया जा रहा है कि ऐसा क्यों किया गया?

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के एक साल बाद 7 नवंबर, 2017 को संसद में कहा था कि नोटबंदी एक आर्गनाइज्ड (संगठित) लूट और लीगलाइज्ड प्लंडर (कानूनी डाका) है। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के शब्दों में नोटबंदी पूरी रफ्तार से चल रही कार के टायरों पर गोली मार देने जैसा कार्य था। आज नोटबंदी के छह साल बाद उनका कहा सच साबित हो रहा है। सरकार भी इस हकीकत को समझ चुकी है।

इसीलिए उसने अपने अपराध-बोध के चलते नोटबंदी के सात साल पूरे होने पर पूरी तरह खामोशी बरती। सरकार के ढिंढोरची की भूमिका निभाने वाले कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया ने भी इस मामले में सरकार का अनुसरण किया। ज्यादातर टीवी चैनल या तो सरकार के पसंदीदा खेल हिंदू-मुस्लिम में मगन रहे या फिर चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सहारा देते दिखे।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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