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मध्यप्रदेश में फिर गूंज रहे ‘राम’, BJP के आएंगे कितने काम?…

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मुनेश्वर कुमार

भोपाल: राम राम जी! ये तीन शब्द देश के हर हिंदी भाषी नागरिक के कानों तक जरूर पहुंचे होंगे। यह भी कहा जा सकता है कि ये शब्द किसी न किसी रूप में उसके जीवन का हिस्सा रहे हैं। राम किसी की आस्था हैं तो किसी का विश्वास! राम को लेकर सबका नजरिया अलग-अलग है। राम की अलग अलग तरह की व्याख्याएं भी होती रही हैं। सबने अपने अपने नजरिए से राम को देखा और समझा है। वाल्मीकि के राम, तुलसी के राम, कम्बन के राम और पेरियार के राम। तरह-तरह के राम लोगों ने पढ़े और जाने हैं। देखा तो किसी ने नहीं है। सब ने जैसा सुना वैसा राम को गुना!

राम की बात आज इसलिए क्योंकि आज वे एक बड़ा चुनावी मुद्दा बने हुए हैं। देश और मध्यप्रदेश में राज कर रही बीजेपी चुनावी वैतरणी पार करने के लिए एक बार फिर राम का सहारा ले रही है। देश-दुनिया में अपनी अलग पहचान बना चुके देश के मुखिया नरेंद्र मोदी चुनावी सभाओं में राम नाम के रथ पर सवार नजर आते हैं। वहीं, बीजेपी सड़कों पर राम को उतार चुकी है। नरेंद्र मोदी अपनी चुनावी सभाओं में राम को अहम मुद्दा बना रहे हैं। वे कह रहे हैं कि राम को काल्पनिक बताने वालों को सत्ता के लिए तरसा दो। अपनी पार्टी के लिए वोट मांग रहे मोदी राम और उनके मंदिर का खुल कर जिक्र कर रहे हैं। उनका आरोप है कि कांग्रेस राम मंदिर बनने ही नही देना चाहती है। वह राम को काल्पनिक बताती है।
बड़े-बड़े लगे हैं होर्डिंग

उधर बीजेपी ने पूरे प्रदेश में अयोध्या में निर्माणाधीन मंदिर के बड़े-बड़े होर्डिंग लगा रखे हैं। इन पर मंदिर के साथ मोदी और अन्य बीजेपी नेताओं की तस्वीरें हैं। इन पर लिखा है कि बन रहा है भव्य राम मंदिर! नीचे लिखा है – भाजपा को वोट दीजिए।

मोदी सहित बीजेपी का हर नेता चुनावी सभाओं में राम-राम जप रहा है। राम की आड़ में कांग्रेस को कटघरे में खड़ा कर रहा है। पर सवाल यह है कि इस चुनाव में राम बीजेपी के कितने काम आयेंगे?

बर्खास्त हो गई थीं बीजेपी की सरकारें

करीब 31 साल पहले बीजेपी नेताओं के नेतृत्व में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराया गया था। उस समय उत्तरप्रदेश , मध्यप्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की सरकारें थीं। केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। विवादित ढांचा 6 दिसंबर 1992 को गिराया गया था। उसके साथ ही इन चारो राज्यों की सरकारें भी बर्खास्त कर दी गई थीं। बीजेपी ने इसका कड़ा विरोध किया था। उसके साथ ही वह पूरी तरह हिंदुत्व के रथ पर भी चढ़ गई।

लेकिन कुछ महीने बाद जब इन चारों राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए तो राम बीजेपी के काम नहीं आए। राजस्थान को छोड़ सभी राज्यों में बीजेपी चुनाव हार गई। जबकि उसका मुख्य मुद्दा राम और उनका मंदिर ही था। तब मध्यप्रदेश में तो पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय सुंदरलाल पटवा ने दो मुद्दों पर ही अपना चुनाव अभियान चलाया था। पहला मुद्दा था राम मंदिर और दूसरा मुद्दा था सरकार बर्खास्त करके उनके साथ किया गया “अन्याय”! लेकिन पटवा जी अपनी कैबिनेट के सदस्य तय करते रह गए जनता ने सत्ता कांग्रेस को सौंप दी। दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बन गए। मंदिर के लिए सुप्रीम कोर्ट से एक दिन की सजा पाने वाले कल्याण सिंह भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठ पाए। हां, बाद में बीजेपी को केंद्र में सत्ता अवश्य मिली।

अटल बिहारी बाजपेयी पहले 13 दिन फिर 13 महीने और फिर पांच साल के लिए देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन उन्हें 2004 में जनता ने सत्ता से बाहर कर दिया।
1993 से 2023 के बीच सरयू नदी में बहुत पानी बह गया है। देश की राजनीतिक तस्वीर बदल गई है। बीजेपी में तो अप्रत्याशित बदलाव आया है। अदालत के फैसले के बाद राम का मंदिर भी बन रहा है। उसका भरपूर प्रचार भी हो रहा है। राम जी भी प्रचार का मुद्दा हैं।

पर सवाल यह है कि क्या राम का नाम नरेंद्र मोदी को चार राज्यों में चुनावी वैतरणी पार करा पाएगा? क्या 30 साल बाद राम के नाम पर लोगों को एक छाते के नीचे लाया जा सकता है? लोगों के मन में क्या है ये तो लोग ही जाने और राम जी क्या करेंगे राम ही जानें!

लेकिन एक बात साफ है! करीब दस साल से देश को अपने ढंग से चला रहे नरेंद्र मोदी के पास ‘राम’ के अलावा कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। चुनावी सभाओं में वे आज भी कांग्रेस को ही कोसते हैं। उस पर देश को बर्बाद करने का आरोप लगाते हैं। वे राम की आड़ ले रहे हैं। उनके निर्माणाधीन मंदिर का हवाला दे रहे हैं। लोगों को मुफ्त भोजन देने की उपलब्धि को पांच साल और चलाने की बात कह रहे हैं। लेकिन अपने दस साल के शासन और विकास की उपलब्धियां वे कम ही गिनाते हैं। कांग्रेस और राम से आगे वे बढ़ ही नहीं पा रहे हैं।

ऐसे में क्या आम मतदाता राम के नाम पर वोट डालने जायेगा ? यह बड़ा सवाल है। क्योंकि जब 31 साल पहले उसने वह रास्ता नहीं चुना था तो अब क्या राम की प्रासंगिकता बढ़ गई है? या फिर पिछले दो दशक में सामाजिक ध्रुवीकरण की जो दिन रात कोशिश की गई है क्या अब उसकी फसल पक गई है ?

पिछले एक दशक में देश में धार्मिक उन्माद खूब बढ़ा है। उसका लाभ भी खूब लिया गया है। लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लग रहा है राम और उनका मंदिर जीत दिला पाएंगे। कुछ महीने पहले हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनाव यही प्रमाणित करते हैं।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या धर्म के नाम पर राजनीति की इजाजत हमारा संविधान देता है। क्या हमारे देश की आदर्श चुनाव आचार संहिता के नियम बदल गए हैं। यह सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि केंद्रीय चुनाव आयोग इस समय पूरी तरह आंखें मूंदे बैठा है। वह न कुछ देख रहा है न कुछ सुन रहा है। हां, कुछ कह भी नहीं रहा है।

ऐसे में सामाजिक मूल्यों के लिए सब कुछ छोड़ने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम “राम” पर नजर जाती है। देखना यह है कि राम क्या करेंगे! हजारों साल पहले जो आदर्श उन्होंने स्थापित किए थे, उनके प्रति जनमानस में आस्था जगाएंगे?यह भी कह सकते हैं कि राम के लिए यह कठिन परीक्षा की घड़ी है। वे सत्ता के लिए अपने नाम का दुरुपयोग करने वालों को रावण की तरह सबक सिखाएंगे या परोक्ष रूप से उनकी मदद करेंगे?

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