कनक तिवारी
कैलेण्डर हमारी राष्ट्रीय बौद्धिक चेतना का भी सबसे बड़ा सन्दर्भ ग्रन्थ है। रोज़ बताता है इतिहास की ख़ंदकों में कौन महापुरुष दफ़्न हो गया है या भूगोल में भूकम्प की तरह पैदा हुआ है। इसलिये देश चाहे तो उनकी याद जन्म या निधन के दिन कर सकता है।
सारा मुल्क अचानक उस महान व्यक्ति के लिए श्रद्धा की भावना से भावविभोर हो जाता है। उसकी आत्मा कई दिनों से बंद पड़े यादों के तहखाने से सभा भवनों में जबरन खींचकर लाई जाती है। उसकी तस्वीरें, मूर्तियां, शिलालेख, नामपट्ट, स्मारक व भाषणों के कैसेट ढूंढ़े जाते हैं। ऐसा लगता है कि यह महापुरुष आज के दिन अपनी जीवन की कहानी की इनिंग्स की फिर शुरुआत अंत नहीं करे तो देश बेचारा आयोजनहीन, बेजान और बिना काम का हो जाएगा।
लोगों की पूरी चेतना लेकिन ऐसे महापुरुष की कथित, तिलिस्मी, किताबी, पंडिताऊ छवि के लिये ही बेचैन होती है। उनके विचारों के मर्म या उनके अस्तित्व के अर्थ जैसी बुनियादी चीजों से अक्सर सरोकार नहीं होता। लोग किसी तरह उनके बारे में बीसों बरस पहले रटाये गये भाषणों की पंक्तियां दुहराते चलते हैं। किसी तरह उनके नये सन्दर्भ विद्वान की मुद्रा में खड़े होकर नई पीढ़ी के कानों में कड़वे तेल की तरह उड़ेल देते हैं। यही तो श्रद्धांजलि या यादध्यानी समारोहों का अर्थ रह गया है। किसी नेता ने यादों के नक्कारखाने में अपनी यादों की तूती बरसों बरस बजाई हो। तो ऐसे पुरुषों को और ज़्यादा बडे़े आयोजन के द्वारा पुनर्जीवित करना राष्ट्रीय कर्तव्य हो जाता है।
. जवाहरलाल के बारे में लिखना सचमुच कठिन लेकिन मोहब्बत भरा काम है। अन्य किसी भारतीय नेता के बदले नेहरू के लिये विशेषण कम पड़ जाते हैं। उन्हें महान जनतान्त्रिक, समाजवादी, विदेश नीति नियामक, मानवतावादी विचारक, वैज्ञानिक वृत्ति का प्रवक्ता, आर्थिक आयोजन का प्रणेता, लाड़ला जन नेता, श्रेष्ठ लेखक, वक्ता के रूप में इतिहास याद रखेगा।
नया हिन्दुस्तान अमूमन नेहरू के ही दिमाग की उपज है। महापुरुषों की तुलना कभी नहीं करनी चाहिये। सभी महापुरुषों के लिए आदर रखने के बावजूद भारत के ताजा इतिहास में तीन नाम सहसा उभरते हैं। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई के तीन मोड़ या युग दिए। तिलक, गांधी और नेहरू। ‘गीता रहस्य‘ के लेखक तिलक भारतीय ऋषि परम्परा के प्रतिनिधि हैं। वे भारत का जीवन्त अतीत भी हैं। अतीत से प्रेरणा लेकर समकालीन परिदृष्य में गांधी ने मनुष्य इतिहास में नये प्रयोग किये। वे खुद बीसवीं सदी का नया इतिहास बने। इन दोनों परम्पराओं से लैस होकर भी स्वायत्त नेहरू आधुनिक भारत के भविष्य हुए। उनकी आंखें हिन्दुस्तान और दुनिया के उस क्षितिज पर थीं, जहां से आजाद भारत वक्त के गर्भ से जन्म लेने को था। तिलक, गांधी और नेहरू प्रवाह थे। तिलक सरस्वती की तरह जो अतीत, वर्तमान और भविष्य के संगम की कारक रही है। गांधी गंगा की तरह जो कर्म की नदी है। नेहरू यमुना की तरह थे, जो रसमयता की नदी है।
. भारत में 1860 का दशक ऐतिहासिक है। इसी दशक में विवेकानन्द, गांधी, टैगोर, मोतीलाल नेहरू जैसे कई महापुरुष पैदा हुये जिन्होंने नये भारत को जन्म दिया। उसके बीस बरस बाद 1880 से 1890 के बीच उतने ही महापुरुष पैदा हुए। उनमें नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना आजाद आदि के नाम लिए जा सकते हैं। विश्व इतिहास में इन दो दशकों में इतने बड़े नेता नहीं पैदा नहीं हुए। इन दो दशकों के प्रतिनिधि के रूप में गांधी और नेहरू ने सियासी हिन्दुस्तान को ज़्यादा अभिभूत कर रखा है। गांधी ने देश के जनजीवन को जितना झकझोरा, शायद जीवित इतिहास के किसी महापुरुष ने नहीं। आइन्स्टाइन जैसे महान वैज्ञानिक ने कहा कि आने वाली पीढ़ियां शायद कठिनाई से मानेंगी कि इस धरती पर हाड़ मांस वाला ऐसा कोई व्यक्ति पैदा हुआ होगा। गांधी के घोषित उत्तराधिकारी के रूप में जवाहरलाल ने इतिहास को इसी तरह चकाचौंध किया।
. मैं नेहरू का वकील नहीं हूं। उनसे प्रभावित होने के बाद भी उनके पक्ष में पूर्वग्रह लेकर कोई बात नहीं कहना चाहता। उनकी गलतियों की अनदेखी भी नहीं करता। उनके लिये बाजार से खरीदे गये पेटेण्टयुक्त विशेषणों का उपयोग भी नहीं करना चाहता। तटस्थ, निर्मम और ठंडे मूल्यांकन के बाद कहा जा सकता है कि आज़ाद हिन्दुस्तान में जितने भी नये रुजहान आये, उनमें से ज़्यादातर नेहरू ने पैदा किये। उनकी पीठ पर छुरा मारने वाले चीनी आक्रमण के बावजूद भारत की विदेश नीति दुनिया के सोच को नेहरू का योगदान है। उसकी ही बुनियाद पर तटस्थ आंदोलन बरगद के पेड़ की तरह अपनी जड़ें गहरी करता रहा है। पीत पत्रकारिता की शैली में लिखी उनके निजी सचिव मथाई की किताब में वर्णित एडिना माउन्टबेटन वगैरह से संदिग्ध संबंधों को उजागर करने के स्टंट के बावजूद जवाहरलाल ने सदियों से पीड़ित हिन्दुस्तानी औरतों के हक में संसदीय प्रक्रिया से नये कानूून रचे।
. हिरोसिमा और नागासाकी के अमेरिकी जुल्म से सबक लेकर जवाहरलाल ने भारत के लिये एटम की नई शांति नीति बनाई। उसकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है। तानाशाह जैसी हैसियत के बावजूद जवाहरलाल ने राष्ट्रपति पद के लिए डाॅ. राधाकृष्णन बनाम डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद या पुरुषोत्तम दास टंडन के कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में चुनाव, महाराष्ट्र की स्थापना जैसे अनेक मौकों पर अपनी मर्जी के खिलाफ दूसरों के विचारों का सम्मान किया। देश के सबसे लाड़ले और व्यस्त नेता होने के बाद भी संसद की कार्यवाहियों को वक्त और गरिमा देते थे। उसकी याद कर आज के कर्मठ कांग्रेसी विधायकों, सांसदों और मंत्रियों को तो सीख लेनी चाहिये। असाम्प्रदायिकता का बुनियादी अक्स उनकी आत्मा की पर्तों को चीरकर समा गया था। उसकी तारीफ सैयद शहाबुद्दीन और सलमान रश्दी एक साथ कर सकते रहे। भारत के ताकतवर पत्रकार जब मानहानि विधेयक के थोपे जाने से एक तरह से नाराज और आतंकित हो गये थे। तब उन्हें अपने बचाव में जवाहरलाल के ही वाक्यांशों की याद आई थी। अब भी समझ उपजती है कि इतिहास को नेहरू की कितनी ज़रूरत है।