अग्नि आलोक
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*वैदिक दर्शन : बलात्कार, देवत्व और भगवत्ता*

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         डॉ. विकास मानव

   _पत्नि के अलावा तमाम अप्सराओं का आनन्द लेने वाला इंद्र एक तपस्वी की पत्नि अहल्या से रेप करता है. वह देवों का राजा, स्वर्गाधिपति कहाता है. ब्रह्मा बेटी को ही पत्नि बनाता है. अपने छोटे भाई की पत्नि को बलात भोगने वाला देवगुरु बृहस्पति है. अपने ही मंडप में साथ व्याहे गए लखन को “अहै कुमार मोर लघु भ्राता” कहकर लंकेश की बहन को उसके पास भेजकर बर्बाद करने ( ‘नाक कट जाना’ मुहावरा का अर्थ समझें) वाला भगवान/पुरुषोत्तम कहाता है. और तो और तमाम भगवानों के अवतार का ठेकेदार विष्णु जलंधर की पत्नि वृंदा से बलात्कार करता है._

      सूर्यदेव ने कुंवारी कन्या कुन्ती को प्रेग्नेंट कर कर्ण को पैदा किया। इसी तरह नाजायज संबंध बनाकर धर्मदेव ने पाण्डु पत्नी कुन्ती से युधिष्ठिर को, वायुदेव ने भीष्म को, इन्द्र ने अर्जुन को, प्रथम अश्विनी कुमार नासत्य ने नकुल को तथा द्वितीय अश्विनी कुमार ने सहदेव को उत्पन्न किया।

     ये सब व्यभिचारजन्य देव सन्तानें हैं. चन्द्र देवता ने बृहस्पतिदेव की पत्नी तारा का अपहरण किया और उससे बुध नाम का पुत्र पैदा किया। 

    क्षमा चाहूंगा, किसी को कुछ कहने का हक़ नहीं, मेरी क्या विसात. यह देवत्व है, भगवत्ता है. समरथ को नहि दोष गुसाई.

*व्यभिचार का ज्योतिषीय दर्शन :*

     वि +अभि+चर् = व्यभिचार। वि= विभिन्न उपायों से, अभि = अन्दर की ओर, चार = चलता है। जो विभिन्न उपायों दिशाओं से दूसरे के घर / गुह्यस्थान / मन में प्रवेश करता और उसको स्वरूप को नष्ट करता वा दूषित करता है, वह कर्म व्यभिचार है।

      हर व्यक्ति में छिद्र होता है। व्यक्तित्व विश्लेषण में सभी ग्रहों की स्थिति देखनी पड़ती है। सर्वागीण दृष्टि से निर्णय लिया जाता है।

    व्यभिचार का कारक है, मंगल करण है, चन्द्रमा कर्म है, शुक्र कर्ता है, लग्न व्यक्तित्व निर्धारण में इस चतुर्दृष्टि का प्रयोग करना है। 

१. मंगल एवं मंगल की राशियों मेष एवं वृश्चिक।

 २. शुक्र एवं शुक्र की राशियां वृष एवं तुला।

३. चन्द्रमा एवं चन्द्रमा की राशि कर्क।

 ४. लग्न एवं लग्नेश का दूषित होना।

५. चतुर्थ भाव (सुख) का दूषित होना। 

६. सप्तम भाव (काम सुख) का दूषित होना।

 लग्न, चतुर्थ, सप्तम में बलवान बृहस्पति का होना अथवा चन्द्रमा पर बृहस्पति की सबल दृष्टि का होना, व्यक्तित्व को उदास बनाता है। इससे अनेकों दोषों का शमन होता है। मेष का शुक्र, वृश्चिक का शुक्र, वृष का मंगल, वृश्चिक का मंगल राशिस्थ हो वा नवांशस्य छिद्र है। मंगल एवं शुक्र की युति किसी भी राशि में हो तो यह भी छिद्र है।

     दशम के अतिरिक्त तीनों केन्द्र स्थानों का पापाक्रान्त होना सूक्ष्म छिद्र है। चन्द्र मंगल शुक्र की युति एक गम्भीर छिद्र है। इनकी पारस्परिक दृष्टि एक बृहत् छिद्र है। 

     प्रत्येक कुण्डली में कोई न कोई छिद्र होता है। कुछ छिद्र दिखते हैं, कुछ नहीं दिखते। जब भी शुक्र में मंगल की दशा वा मंगल में शुक्र की दशा आती है तो जातक व्यभिचारोन्मुख होता है। व्यभिचार दो प्रकार का होता है-मानसिक एवं शारीरिक स्वभावतः व्यक्ति विपरीत लिंग से जुड़ता है। यह जुड़ाव मानसिक होता है।

     शारीरिक व्यभिचार को गम्भीर माना गया है। एक स्वी के अतिरिक्त एक पुरुष का अन्य किसी स्त्री से जुड़ना व्यभिचार है। स्त्री के लिये भी पुरुष के प्रति यह व्यवहार व्यभिचार है। इस जुड़ाव मैं अहिंसा का उत्य नहीं है तो ठीक है, एक सीमा तक इसमें हिंसा का समावेश होते ही यह पाप है और दण्ड्य है। देश काल पात्र का सम्यक विचार कर उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म का निर्णय किया जाता है।

व्यभिचार वंशगत होता है। चन्द्रमा का पुत्र बुध हुआ। बुध ने इला से पुरूरका नाम का पुत्र उत्पन्न किया। पुरुरका का पुत्र ययाति हुआ। ययाति से नहुषु हुआ। नहुष तप बल से इन्द्र पद को प्राप्त किया। इन्द्र होने पर उसने पूर्व इन्द्र की पत्नी शची से व्यभिचार करना चाहा। सप्तर्षिगण उसकी पालकी लेकर चले तो कामान्ध नहुष ने उनका अपमान किया।

     अगस्त्य ऋषि ने उसे शाप दिया और वह स्वर्ग से हो गया। इससे ज्ञात होता है-व्यभिचार आनुवंशिक है। चन्द्रवंश में कृष्ण भी हुए और उन्होंने रास रचा, कुल्या आदि का भोग किया।

      इन्द्र एक पद है। इन्द्र राजा है। इसका अर्थ हुआ, जो पद पर प्रतिष्ठित है, उच्च पद पर आसीन है, राजसत्ता से युक्त है, ऐश्वर्य सम्पन्न है, वह व्यभिचारी होगा। इन्द्र व्यभिचारी है, का अर्थ है- सत्तावान् ऐश्वर्यवान् अधिकार प्राप्त व्यक्ति व्यभिचारी होता ही है।

    ऐसे लोगों को भोग प्रचुर मात्रा में मिलता है तथा व्यभिचार का अवसर भी मिलता रहता है। इसलिये व्यभिचार घटित होता है।

हर पुरुष दुष्ट होता है। हर स्त्री सुष्ट होती है। दुष्ट और सुष्ट का सर्वमान्य मिलन विवाह संस्कार है। बिना संस्कार के सभी कर्म धर्मशास्त्र की दृष्टि से निन्द्य हैं। जब कभी पुरुष सुष्ट होता है तो सन्त कहलाता है तथा जब कभी स्त्री दुष्ट बनती है तो वह कर्कशा कही जाती है। कर्कशा एवं सन्त के मिलन का क्या वर्णन किया जाय।

घाघ कवि कहते हैं :

नस कट पनही बतकट नारि, घाघ कहँ दुःख कहा न जाय।

      यहाँ बतकट (बातों को काटने वाली, प्रत्युत्तर देने वाली, कुतर्क विकतर्क करने वाली) स्त्री की तुलना नसकटपनही (पैर को पीड़ा पहुंचाने वाली जूती) से की गई है। यह कथन सत्य है किन्तु कटु है। क्योंकि इसमें स्वी के प्रति हेय दृष्टि है। ऐसी दृष्टि पुरुषों में सामान्य होती है। दोष होता है पुरुष में।

     वह ली को दूषित करता है। अपने दोष का आरोपण वह स्त्री पर करता है। स्त्री को व्यभिचार की ओर ले जाने बाला पुरुष है, दण्ड पाती है स्त्री।

*दोषी पुरुष, कलंक स्त्री के माथे :*

    शंकराचार्य कहते हैं :

विश्वासपात्र न किमस्ति ?”

(उत्तर= नारी)

द्वार किमेकं नरकस्य?

(उत्तर= नारी)

विद्वान् मा विज्ञतमोऽस्ति को वा?

(उत्तर= नारी)

पिशाच्या न च वञ्चितो यः।

     अर्थात किसका विश्वास नहीं करना चाहिये। नारी का। 

नरक का एकमात्र द्वार क्या है ? नारी जाति। 

 विद्वानों में महाविद्वान कौन है ? नारी रूपी पिशाचिनी से जो ठगा नहीं गया है। अर्थात् जिसने स्त्री संग नहीं किया है।

विषाद्विषं भाति सुधोपमं स्त्री। विष से भी बड़ा विष जो अमृत के समान है, क्या है? स्त्री.

   गोस्वामी तुलसीदास जी नारी के विषय में क्या कहते हैं ? इसकी एक झलक देखिये :

विधिहुँ न नारि हृदय गति जानी।

 सकल कपट अद्य अवगुन खानी॥

(रामचरित मानस, अयोध्याकाण्ड)

नारी के हृदय की गति (बात) को ब्रह्मा भी नहीं जान सकते। यह नारी हर प्रकार के छल कपट), अघ (पाप) और अवगुणों की खान है। 

  सत्य कहहिं कवि नारि सुभाऊ ।

 सब विधि अगह अगाध दुराऊ || 

निज प्रतिबिम्ब वरकु गहि जाई । 

जानि न जाई नारि गति भाई ॥

   ( रा.च.मा. अयोध्याकाण्ड )

      स्त्री के स्वभाव के विषय में कविगण सत्य कहते हैं। हर प्रकार से स्त्री पकड़ (अधिकार) में न आने वाली है। स्त्री के स्वभाव की गहराई का थाह नहीं है तथा इसे जाना नहीं जा सकता। अपना प्रतिबिम्ब भले ही पकड़ लिया जाय, नारी की गति, हे भाई अज्ञेय है।

   स्त्री को दशा पर आह भरते हुए एक कवि लिखता है :

   अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी आँचल में है दूध और आँखों में पानी|

    नारी अबला (बलहीना) है। इसके जीवन की केवल एक कहानी है। क्या कहानी? आंचल में दूध है वह पालनकर्त्री है तथा आँखों में पानी (आँसू) है-बदले में दुःख पाती है।

    * *मेरा दृष्टिकोण :*

पुरुषों ने नारी के विषय में कहा है, नारी ने स्वयं अपने विषय में यह बात नहीं कहीं। अपने को व्यक्ति जितना जानता है, उतना दूसरा उसके विषय में नहीं जान सकता।

    इसलिये नारी के बारे में कहे गये पुरुषों के विचार अपूर्ण एक पक्षीय एवं असत्य हैं।

       मान लिया की नारी डाकिनी, हाकिनी, लाकिनी, पिशाचिनी, चुड़ैल, कुलटा, कर्कशा, चण्डी, छिन्न मस्तका, उपा, रक्तपा, काली, कपालिनी, भैरवी, चामुण्डा, कालिका, कपालिका है। तो क्या यह सत्य नहीं है कि नारी दया, क्षमा, माया, ममता, करुणा, सुफला, मथुरा, निर्मला, विमला, शिवा, लक्ष्मी, विद्या, कामाशीला, सुहृदा, सुप्रभा, दया है।

       नारी के सभी वैविध्यपूर्ण रूप पुरुष के लिये आदरणीय हैं। महोप्रा एवं सौम्या दोनों रूपों में नारी वरेण्य है। नारी का अपमान पुरुष का अपमान है क्योंकि नारी पुरुष से अपृथक् है।

     दोनों को अलग-अलग मानना एवं जानना मूर्खता है। नारी का हर रूप शक्ति है। शक्ति सबके लिये सब काल में सम्मान्य है। हर नारी को मेरा नमस्कार।

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