*प्रकाश महावर कोली*
*## जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।*
*गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही, वह भारत की ही नारी थी।*
*22 नवम्बर का वह ऐतिहासिक दिन है, जिस दिन झांसी की पावन धरती पर कोली समाज की झलकारी ने जन्म लिया और अल्पआयु में ही झांसी की धरती के रण में कूदकर वीरांगना के रुप में अपने अदम्य शौर्य, साहस और पराक्रम से फिरंगी अंग्रेज दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए. उस निडर आर्यन लेडी वीरांगना को षड़यंत्रकारी इतिहासकारों ने इतिहास के पन्नों में वह स्थखध नहीं दिया, जिसकी वह हकदार थी, वह वीरांगना थी, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की अभिन्न सहेली एवं अ अंगरक्षक, लक्ष्मीबाई की हमशक्ल वीरांगना झलकारी बाई. भला हो बुंदेलखंड के चंद इतिहासकारों का जिन्होंने वीरांगना झलकारी के स्वर्णिम इतिहास को इतिहास के पन्नों से खोजकर समाज के सामने लाकर झलकारी को सम्मान दिया. प्रस्तुत है झलकारी की जीवन गाथा, इन्दौर समाज के विशेष संवाददाता प्रकाश महावर कोली की कमल से. सम्पादक.*
*वीरांगना झलकारी की जीवनगाथा*
देश की आजादी के पहले स्वतंत्रता आंदोलन में झांसी की रणभूमि पर रानी लक्ष्मी बाई के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रजों से लोहा लेने वाली वीरांगना झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवा सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। झलकारी बाई की 6 वर्ष की उम्र में ही उनकी माँ जमुनादेवी की मृत्यु हो गयी, उनके पिता ने ही उनका पालन-पोषण कर उन्हें एक लड़के की तरह उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया।
उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं का रख-रखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थीं। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक खूंखार चीते से हो गयी थी, चीते ने जैसे ही झलकारी पर हमला करने के लिए झपटा, उसी समय झलकारी ने अपनी सूझबूझ और साहस का परिचय देते हुए अपनी कुल्हाड़ी से उस चीते को एक ही वार में मार डाला। इसी प्रकार गांव के मुखिया के घर डाकुओं ने हमला बोला, तब जंगल में झलकारी को सूचना मिली, तब वह जंगल से तुरंत गांव पहुंची और दरांते के बल पर डाकुओं को खदेड़ कर भगाया।
झलकारी की इस बहादुरी से गांव के लोगों को चिंता सताने लगी कि अब ऐसी बहादुर कन्या से कौन विवाह करेगा।
एक बार झलकारी के पिता सदोवा सिंह झांसी में आयोजित दंगल देखने आते वहां झांसी की सेना में तोपची पूरन कोली जो कि एक नामचीन पहलवान थे, को कुस्ती लड़ते देख सदोवासिंह ने गांव के लोगों के माध्यम से पूरन के पिता के सामने झलकारी के विवाह का प्रस्ताव रखा और झलकारी की वीरता और साहस से अवगत कराया, पूरन के पिता ने प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया और झलकारी के साथ पूरन का विवाह कर दिया।
पूरन कोली भी बहुत बहादुर था, पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखती थीं, दोनों में आलौकिक समानता थी। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई काफी प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया, और तलवारबाजी व घुड़सवारी का प्रशिक्षण देकर दुर्गा सेना सेनापती नियुक्त कर दिया।। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक, तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था। फलस्वरूप झलकारी बाई झांसी की महिला सैन्य टुकड़ी दुर्गा दल की सेनापति बन गई।
एक बार की बात है फिरंगी अंग्रेज सैनिकों ने झांसी के किले को चारों तरफ से घेर लिया तब रानी लक्ष्मीबाई अपनी महिला एवं पुरुष सेना के साथ मंत्रणा कर रही थी, चूंकि झलकारी रानी लक्ष्मीबाई की विश्वसनीय सहेली और अंगरक्षक थी, इसलिए बिना रोक टोक रानी के कक्ष में वह आ जा सकती थी, इसी का फायदा उठाकर झलकारी रानी के कक्ष में गई और रानी की वैषभूषा पहन कक्ष से बाहर आई तब मंत्रणा में लीन सैनिक रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी को आश्चर्य भरी नजरों से देखने लगे, तभी झलकारी ने रानी को सम्बोधित करते हुए कहा रानी साहिबा गुस्ताखी माफ मैंने आपके वस्त्र पहने, लेकिन इसके सिवाय मेरे पास और कोई विकल्प नहीं था।
रानी के कारण पूछने पर झलकारी ने कहा रानी साहिबा हमारे और झांसी के लिए आपका जीवित रहना बहुत जरूरी है, इसलिए मैंने आपके वस्त्र पहने हैं, मैं आगे के गेट से अंग्रेज सेनिकों से लगते हुए कालपी की और कूच करुंगी, मुझे रानी लक्ष्मीबाई समझ अंग्रेज सैनिक मेरे पीछे भागेंगे तबआप पिछले दरवाजे दरवाजे से सुरक्षित निकल जाईऐगा।
रानी को झलकारी की सलाह उचित लगी और झलकारी के सुझाव पर उन्होंने अमल किया।
झांसी के किले से बाहर निकल अंग्रेज सैनिकों से लोहा लेते हुए झलकारी सेंकड़ों सेनिकों को मौत के घाट उतारते हुए कालपी तक पहुंच गई, वहां अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें गिरफ्तार कर अंग्रेज अफसर ह्यूरोज के सामने पेश किया। तब ह्यूरोजने पहचान के लिए झांसी के सेना के गद्दार दुल्हाजु को बुलवाया, उसने आते ही झलकारी को पहचान लिया और अपना मुंह छुपाने लगा, तभी झलकारी ने गद्दार कहते हुए दुल्हाजू पर वार करने का प्रयास किया, लेकिन अंग्रेज सैनिकों की गिरफ्त से वह छूट नहीं पाई।
ह्यूरोज के पूछने पर दुल्हाजु ने बताया कि यह रानी लक्ष्मीबाई नहीं बल्कि झलकारी कोलन है।
तभी एक सैनिक ने झलकारी को पागल कहते हुए कहा कि सर यह पागल लड़की है। तभी ह्यूरोज ने कहा कि इस जैसी एक प्रतिशत लड़कियां भी झांसी की सेना में आ गई तो हमें भारत छोड़ने से कोई रोक नहीं पाएगा।
इसके बाद 4 अप्रेल 1858 को झलकारी को अंग्रेज अफसरों ने झलकारी को फांसी की सजा दी।
*इतिहासकारों ने लिपीबद्ध किया :–*
मुख्यधारा के इतिहासकारों द्वारा, झलकारी बाई के योगदान को बहुत विस्तार नहीं दिया गया है, लेकिन आधुनिक लेखकों ने उन्हें गुमनामी से उभारा है। जनकवि बिहारी लाल हरित ने ‘वीरांगना झलकारी’ काव्य की रचना की.
हरित ने झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है :
*लक्ष्मीबाई का रूप धार, झलकारी खड़ग संवार चली.*
*वीरांगना निर्भय लश्कर में, शस्त्र अस्त्र तन धार चली*
अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल श्री माता प्रसाद ने झलकारी बाई की जीवनी की रचना की है। इसके अलावा चोखेलाल वर्मा ने उनके जीवन पर एक वृहद काव्य लिखा है, मोहनदास नैमिशराय ने उनकी जीवनी को पुस्तकाकार दिया है. और भवानी शंकर विशारद ने उनके जीवन परिचय को लिपिबद्ध किया है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है.
*जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।,*
*गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही, वह भारत की ही नारी थी।*
लेखक : *प्रकाश महावर कोली*
14, महावर नगर, अन्नपूर्णा रोड़, इन्दौर
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*लेखक अखिल भारतीय वीरांगना झलकारी महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं*.