अग्नि आलोक
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*श्रमिकों सांस छीन रही है मालिकों  की हवस*

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✍  पुष्पा गुप्ता 

    बीते अक्टूबर में देश के अलग-अलग इलाकों में आग लगने की कई घटनाएँ हुई। चाहे दिल्ली का बवाना औद्योगिक क्षेत्र हो या गुजरात या उत्तराखण्ड या पंजाब। देश के मुख्यत: सभी प्रमुख राज्यों में कारखानों में आग की चपेट में आने से मज़दूर घायल हुए या मौत ने उन्हें लील लिया।

      सबसे अधिक आग लगने की घटनाएँ दिल्ली के बवाना औद्योगिक क्षेत्र में सामने आयी। सितम्बर के अन्त में बवाना के सेक्टर-3 के ओ-58 के लाइटर की फैक्ट्री में ज़ोरदार धमाका हुआ। इसमें क़रीब 4 मज़दूरों की मौके पर ही मौत हो गयी और 4 मज़दूर बुरी तरह घायल हुए। धमाका इतना ज़ोरदार था कि समाने वाली फैक्ट्री तक के शीशे टूट गये।

     फैक्ट्री में हज़ारों की संख्या में लाइटर मौजूद थे, जिसे बिना किसी सुरक्षा के तोड़ कर दाने में तब्दील करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, लाइटर का गैस लीक होने के कारण ही धमाका हुआ। फैक्टरी में 8 मज़दूर काम करते थे। मौके पर मौजूद लोगों ने बताया कि जब धमाका हुआ था, ऐसा लगा कहीं बम फटा हो। बाहर आकर देखा तो मज़दूर लाइटर के बीच में बिखरे हुए पड़े थे।

     इसके बाद बवाना के सेक्टर-5 में बीते दो हफ़्तों में चार कारखानों में आग लगी। समय रहते मज़दूर फैक्ट्रियों से निकल गये, अन्यथा यह भी बड़ी घटना बन जाती।

12 अक्टूबर को दिल्ली के ही पीरागढ़ी उद्योग नगर औद्योगिक क्षेत्र के कारखाने में आग लगी। आग की भयावहता का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता था कि आग को बुझाने के लिए करीब 33 अग्निशमन गाड़ियों को मशक्कत करनी पड़ी।

    25 अक्टूबर को गुजरात के अरावली जिले में एक केमिकल फैक्ट्री में भीषण आग लग गयी। इस आग में केमिकल से भरे 60 से ज़्यादा टैंकर जलकर खाक हो गये।

    17 अक्टूबर को रुड़की में रायपुर के पास बल्ब बनाने वाली एक फैक्टरी परिसर में बने दो गोदामों में भीषण आग लग गई। फायर ब्रिगेड की 13 टीमों ने 14 घण्टे के बाद आग पर काबू पाया।

    कर्नाटक के अनेकल तालुक में 7 अक्टूबर को एक पटाखे के गोदाम में ब्लास्ट होने से 14 मज़दूरों की मौत हो गयी, जबकि घटना में कई लोग गम्भीर रूप से घायल हुए। बेंगलुरु के पास स्थित इस गोदाम में जान गँवाने वाले 14 लोगों में ज़्यादातर ग़रीब छात्र थे, जो अपनी पढ़ाई का खर्च जुटाने के लिए छुट्टियों के दौरान वहाँ काम करते थे। आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि मृतकों में छह 12वीं कक्षा और ग्रेजुएशन के विद्यार्थी थे।

     6 अक्टूबर को अमृतसर के मजीठा रोड स्थित नागकलाँ दवा फैक्टरी क्वालिटी फार्मास्यूटिक्ल लिमिटेड में आग लगी। आग लगने से फैक्टरी में पड़े 500 के क़रीब केमिकल ड्रम एक के बाद एक धमाके के साथ फट गये। प्रशासन ने चार मज़दूरों की मौत की पुष्टि की, जबकि दो लोग गम्भीर रूप से झुलस गये। जानकारी के अनुसार फैक्टरी में क़रीब 1600 मज़दूर काम करते थे।

यह सब महज़ दुर्घटनाएँ नहीं मालिकों व इस पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा की जाने वाली निर्मम हत्याएँ हैं। आये-दिन कीड़े-मकौड़ों की तरह कारख़ानों में मज़दूरों को मरने के लिए पूँजीपति मज़बूर करते हैं।

     श्रम मन्त्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि बीते पाँच वर्षो में 6500 मज़दूर फैक्ट्री, खदानों, निर्माण कार्य में हुए हादसों में अपनी जान गवाँ चुके हैं। इसमें से 80 प्रतिशत हादसे कारखानों में हुए। 2017-2018 कारखाने में होने वाली मौतों में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।

     साल 2017 और 2020 के बीच, भारत के पंजीकृत कारखानों में दुर्घटनाओं के कारण हर दिन औसतन तीन मज़दूरों की मौत हुई और 11 घायल हुए। 2018 और 2020 के बीच कम से कम 3,331 मौतें दर्ज़ की गयी। आँकड़ों के मुताबिक, फैक्ट्री अधिनियम, 1948 की धारा 92 (अपराधों के लिए सामान्य दण्ड) और 96ए (ख़तरनाक प्रक्रिया से सम्बन्धित प्रावधानों के उल्लंघन के लिए दण्ड) के तहत 14,710 लोगों को दोषी ठहराया गया, लेकिन आँकड़ों से पता चलता है कि 2018 और 2020 के बीच सिर्फ़ 14 लोगों को फैक्ट्री अधिनियम, 1948 के तहत अपराधों के लिए सज़ा दी गयी।

     यह आँकड़े सिर्फ़ पंजीकृत फैक्ट्रियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि दिल्ली और पूरे देश में लगभग 90 फ़ीसदी श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े हैं और अनौपचारिक क्षेत्र में होने वाले हादसों के बारे में कोई पुख़्ता आँकड़े नहीं हैं।

 पंजीकृत कारख़ानों के उपलब्ध DGFASLI डेटा के अनुसार, 2020 में भारत में 363,442 पंजीकृत कारख़ाने थे, जिनमें से 84 फीसदी चालू अवस्था में थे और उनमें तक़रीबन 2 करोड़ कर्मचारी काम कर रहे थे। डीजीएफएएसएलआई के आँकड़े बताते हैं कि 2020 तक पहले के चार सालों में हर साल पंजीकृत कारखानों में औसतन 1,109 मज़दूरों की मौतें हुईं और 4,000 से ज़्यादा लोगों को चोटें आईं।

     अगर दिल्ली की बात करें तो दिल्ली के श्रम विभाग से एक आरटीआई ज़वाब में प्राप्त आँकड़ों के आधार पर पता चलता है कि दिल्ली में अक्टूबर 2022 तक 13,464 पंजीकृत कारखाने थे। इसमें 2018 और 2022 के बीच 118 मौतें हुई। वही देश में कारखानों में सबसे अधिक मौतें गुजरात में हुई है।

     चार साल के दौरान फैक्टरी में होने वाली पाँच में से एक से ज़्यादा मौतें और घायल होने की घटनाएँ गुजरात में हुई हैं। डीजीएफएएसएलआई के आँकड़ों के अनुसार, 2019 में गुजरात में कारखानों में सबसे अधिक 79 मज़दूरों की मौत हुई और 192 मज़दूर घायल हुए।

      इसी गुजरात मॉडल को भाजपा और मोदी देश भर में लागू करने की बात करते हैं, जो मज़दूरों के लिए क़ब्रगाह है। गुजरात ही वह राज्य है जहाँ सबसे पहले श्रम क़ानूनों को ख़त्म किया गया था। याद कीजिए इसी गुजरात मॉडल का झुनझुना मोदी और भाजपा 2014 में सबको पकड़ा रहे थे।

आख़िर क्यों दिल्ली से लेकर देश के कारख़ानों में आग लगातार आग लगती रहती है और मज़दूर मरते रहते हैं? क्यों इसपर कोई कार्रवाई नहीं होती? ज़वाब साफ़ है! मज़दूरों की मौत के ज़िम्मेदार कोई और नहीं बल्कि फैक्टरी मालिक और उनके चन्दे से चलने वाली पूँजीवादी पार्टियों की सरकारें हैं।

     आज दिल्ली से लेकर पूरे देश के कारख़ानों में सुरक्षा के कोई इन्तज़ाम नहीं हैं। मालिकों द्वारा हर रोज़ अपने मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए मज़दूरों की जान को जोख़िम में डाला जाता है। सस्ते श्रम के तौर पर महिलाओं को काम पर लगाया जाता है और निर्मम परिस्थितियों में काम करा कर मालिक अपना मुनाफ़ा पीटते हैं। इन्हीं मालिकों, पूँजीपतियों के पैसे से तमाम चुनावबाज़ पार्टियाँ चुनाव लड़ती हैं।

     वे ही इस हत्या, लूट और शोषण को क़ानूनी जामा पहनाते हैं, जिसकी वज़ह से ये घटनाएँ आम होती जा रहीं हैं। इन मौतों पर मगरमच्छ के आँसू बहाने वाली तमाम पार्टियों के हुक्मरान ही असल में इन घटनाओं को प्रश्रय देते हैं। उनके लिए मज़दूरों की मौत महज़ एक संख्या है।

 सभी पार्टियों के बहुत से मन्त्री स्वयं कारखाना-मालिक हैं और किसी श्रम क़ानून को लागू नहीं करते, मज़दूरों को कोई सुरक्षा उपकरण नहीं देते हैं। सवाल तो यह भी बनता है कि जी-20 के नाम पर “अवैध झुग्गियों” को तोड़ दिया जाता है, ग़रीबों रोजी-रोटी उजाड़ दी जाती है, वहीं तमाम अवैध कारखानों से लेकर फैक्ट्रियों में सुरक्षा इन्तज़ामों की कमी पर सब चुप्पी साधे रहते हैं! ऐसा क्यों?

     क्योंकि इनमें से तमाम फैक्ट्री कारखानों के मालिक भाजपा या अन्य किसी पार्टी के नेता या उसके समर्थक ही है। इन्ही पार्टियों के ज़्यादातर नेता-मन्त्री ख़ुद ही कारखाने चलवाते हैं, उन्हें लाइसेंस दिलवाते हैं। देश के 28 करोड़ मज़दूर कारखानों में रोज़ जान हथेली पर रखकर इन मालिकों इनकी तिजोरियाँ भरते हैं।

      अगर दिल्ली की बात करें तो दिल्ली में बसे 29 औद्योगिक क्षेत्रों के हालात यह हैं कि किसी भी कारखाने में सुरक्षा के नियम-क़ानून लागू नहीं होते। ऊपर से केजरीवाल नौटंकी करता है कि उसने मज़दूरों की ज़िन्दगी बदल दी और उनका वेतन बढ़ा दिया। काग़ज़ों में वेतन बढ़ोत्तरी की घोषणा के बाद अब 8 घण्टे के कार्य दिवस के हिसाब से कुशल श्रमिकों के लिए न्यूनतम मासिक वेतन 20,903 रुपये से बढ़ाकर 21,215 रुपये किया गया है।

     अर्द्धकुशल श्रमिकों के लिए इसे 18,993 से 19,279 और गैर-कुशल श्रमिकों के लिए 17,234 से 17,494 रुपये किया गया है। पर असलियत तो हम सब जानते हैं कि दिल्ली में काम कर रहे डेढ़ करोड़ से ज़्यादा मज़दूरों पर इससे रत्ती भर भी फ़र्क़ नहीं पड़ेगा क्योंकि पूरी दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में श्रम क़ानून लागू ही नहीं होते। दिल्ली के अन्दर एक बड़ी आबादी घरेलू कामगारों की है, जिनके लिए न्यूनतम वेतन एक खोखले शब्द के अलावा कुछ है ही नहीं।

      एक तरफ़ मज़दूरों से लेकर कामगारों की बड़ी आबादी रोज़ 200 रुपये में अपना हाड़-माँस गलाती है और बदतर हालात में जीने को मज़बूर है, वहीं दूसरी तरफ़ केजरीवाल मज़दूरों का ‘मसीहा’ बनने की नौटंकी कर रहा है। जब श्रम क़ानून लागू करवाने की बात आती है तो, उनके श्रम मन्त्री बड़े बेशर्मी से बोल देते है कि पूरी दिल्ली में सिर्फ़ चौंसठ औद्योगिक इकाई में श्रम क़ानून लागू नहीं हो रहा। मालिकों के ख़िलाफ़ कभी इनका मुँह नहीं खुलता, क्योंकि इन्ही मालिकों के हितों की रक्षा करने के लिए तो ये “आम आदमी” मुख्यमन्त्री बना है।

अगर दिल्ली के बवाना औद्योगिक क्षेत्र की बात करें तो, यहाँ दाना लाइन के सबसे अधिक कारखाने हैं और यहाँ काम करते वक़्त जान जाने का ख़तरा सबसे अधिक होता है। आये-दिन यहाँ आग लगने से लेकर, दाने की मशीन में हाथ कटने की ख़बरें आती रहती हैं। यहाँ मालिकों द्वारा श्रम क़ानून लागू करना तो दूर की बात है, मज़दूरों को 6000-7000 हज़ार के लिए रोज़ जान जोख़िम में डाल कर काम करना पड़ता है। किसी भी फैक्ट्री के सुरक्षा के उपकरण तक मौजूद नहीं होते।

      आप जानते होंगे कि पहले फैक्ट्री इन्स्पेक्टर फैक्ट्रियों में जाँच के लिए कभी-कभी आ जाते थे।इससे सब वाकिफ़ हैं कि वे सीधा मालिकों के केबिन में जाकर अपनी जेब गरम करके निकल जाते थे। इसके बावजूद मज़दूर अपनी शिकायत दर्ज़ करा सकता था। पर मोदी सरकार द्वारा लाये जा रहे चार लेबर कोड आने के बाद से फैक्ट्री इन्स्पेक्टर का पद ही समाप्त कर दिया जायेगा।

      वैसे इसकी शुरुआत काफ़ी पहले ही हो चुकी थे। आँकड़ें बताते हैं कि 2020 में फैक्टरी इन्स्पेक्टर के लिए स्वीकृत 1,040 पदों में से सिर्फ 69% पदों पर भर्ती की गयी थी। यानी 412 कार्यरत कारखानों के लिए एक फैक्ट्री इन्स्पेक्टर। गुजरात में 453 कार्यरत कारखानों के लिए एक निरीक्षक है, जबकि दिल्ली में 973 कारखानों के लिए एक निरीक्षक है। इससे ही समझा जा सकता है कि सरकारों को मज़दूरों की कितनी “चिन्ता” है। वहीं फ़ासीवादी मोदी सरकार जो काग़ज़ों पर श्रम क़ानून बचे हैं, उन्हें भी ख़त्म करने की योजना को अमली जामा पहना चुकी है।

     चार लेबर कोड लागू होने के बाद मालिकों द्वारा मज़दूरों को लूटने में कोई बाधा नही आयेगी। काम से निकालना आसान हो जायेगा, यूनियन बनाना और मुश्किल हो जायेगा, ओवरटाइम के घण्टे बढ़ा दिये जायेंगे, महिलाएँ और बच्चों से भी रात की शिफ्ट में काम करवाया जा सकेगा और मालिकों को सबसे बड़ा यह फ़ायदा होगा कि इतना सब वह मज़दूर के साथ कर सकता है, पर मज़दूर इन सब के ख़िलाफ़ एक केस तक नही कर पायेगा।

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