बलबीर पुंज
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के परिणामों के निहितार्थ क्या हैं? यह ठीक है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जनता ने भाजपा की नीतियों-कार्यक्रमों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व में हो रहे सकारात्मक परिवर्तनों से प्रभावित होकर बहुमत दिया है। परंतु लगता है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के बेतुके बयानों से आहत होकर भी जनता कांग्रेस के खिलाफ मत देने को विवश हो जाती है।
भले ही बीते एक वर्ष से इस दल की अध्यक्षता मल्लिकार्जुन खरगे कर रहे है, परंतु पार्टी की परोक्ष कमान गांधी परिवार के हाथों में ही है। वर्षों से कांग्रेस में विचारधारा का टोटा है, जिसकी पूर्ति घिसे-पिटे वामपंथी जुमलों से करने का प्रयास हो रहा है। इसका सबसे ताजा उदाहरण कांग्रेस द्वारा तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए राजनीति में जाति के भूत को पुन: जीवित करने का प्रयास है।
कांग्रेसी नेताओं द्वारा इन चुनावों में ‘जितनी आबादी, उतना हक’ का नारा बार-बार दोहराया गया। अभी तक सपा, बसपा, राजद जैसे क्षेत्रीय दल जाति आधारित राजनीति करते थे। यह पहली बार है, जब किसी राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस ने इस जिन्न को बंद बोतल से बाहर निकालने की कोशिश की है। जाति निश्चय ही भारतीय समाज की एक सच्चाई है। परंतु अब आधुनिक शिक्षा, सर्वांगीण अवसर, तकनीकी दौर और बाजारवाद के युग में जाति की भूमिका गौण हो गई है। आज के आकांक्षावान युवा जातीय पहचान से ऊपर उठकर देखने की क्षमता रखते हैं। इसलिए राहुल-प्रियंका के ‘सत्ता में आने पर जातिगत-जनगणना कराकर आबादी के हिसाब से हक दिलाने’ के वादे का उलटा प्रभाव हुआ।
इसी वजह से अशोक गहलोत और भूपेश बघेल की योजनाओं के असंख्य लाभार्थी भी कांग्रेस से छिटक गए। इससे पहले गत वर्ष गुजरात विधानसभा चुनाव और अपनी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के समय राहुल ने आदिवासियों को देश का ‘असली मालिक’ बताया था। यदि राहुल के लिए आदिवासी देश के ‘असली मालिक’ हैं, तो शेष लोग कौन हैं? छत्तीसगढ़-मध्य प्रदेश जैसे आदिवासीबहुल राज्य में भाजपा की निर्णायक जीत ने राहुल की ‘आदिवासी बनाम शेष हिंदू समाज’ की राजनीति को भी ध्वस्त किया।
वास्तव में, यह चिंतन भारतीय संस्कृति विरोधी वामपंथ से प्रेरित होने के साथ ब्रितानी औपनिवेशिक उपक्रम (‘बांटो-राज करो’ सहित) से भी जनित है, जिसका अंतिम उद्देश्य भारत को एक राष्ट्र के रूप में नकारना और उसे 1947 की भांति कई टुकड़ों में खंडित करना है। इसका प्रमाण- राहुल के विदेशी विश्वविद्यालयों में दिए उन वक्तव्यों में मिल जाता है, जिसमें उन्होंने भारतीय लोकतंत्र और देश की मौलिक बहुलतावादी संस्कृति को अपमानित करते हुए कहा था—’भारत एक राष्ट्र नहीं, अपितु राज्यों का एक संघ है।’ सच तो यह है कि भारत सदियों से सांस्कृतिक तौर पर एक राष्ट्र है।
यह विडंबना है कि राहुल गांधी मार्क्स-मैकॉले एजेंडे को तब आगे बढ़ा रहे है, जब गांधी जी ने अपनी हिंद स्वराज (1909) पुस्तक में लिखा था- ‘…अंग्रेजों ने सिखाया है कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक-राष्ट्र बनने में आपको सैकड़ों वर्ष लगेंगे। यह बात बिल्कुल निराधार है। जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे, तब भी हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे, हमारा रहन-सहन एक था। …भेद तो अंग्रेजों ने बाद में हमारे बीच पैदा किए… दो अंग्रेज जितने एक नहीं, उतने हम भारतीय एक थे और एक हैं…।’
बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है। स्वतंत्र भारत के सार्वजनिक विमर्श को भी राहुल गांधी ने सर्वाधिक क्षति पहुंचाई है। धुर वैचारिक-राजनीतिक विरोधी होने के बाद भी पंडित नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी ने सीमा नहीं लांघी। इंदिरा गांधी ने, बतौर प्रधानमंत्री, सावरकर और गोलवलकर को भी सराहा। परंतु राहुल अपवाद हैं। अपनी ही सरकार द्वारा पारित अध्यादेश की प्रति को फाड़ना, उद्यमियों को तिरस्कृत करना, एक उपनाम के सभी लोगों को चोर बताना और या ‘पनौती’, ‘डंडे मारने’ जैसे शब्दों का उपयोग करना-इसका प्रमाण है। सच तो यह है कि मोदी-शाह की जोड़ी जनता को अपने पक्ष में मत देने के लिए प्रोत्साहित तो करती है, परंतु राहुल-प्रियंका के वक्तव्य कांग्रेस सरकार के लाभार्थियों को भाजपा के पक्ष में मतदान करने के लिए विवश कर देते हैं।
-लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं