अग्नि आलोक
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*कहानी : आत्महत्या*

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       ~ दिव्या गुप्ता

हल्की-फुल्की रोज़मर्रा की नोक-झोक ने आज विराट रूप ले लिया था. रोहित और निधि का झगड़ा आज इतना बढ़ चुका था की चुपचाप निधि दस मंजिल की छत से कूदकर आत्महत्या करने को चल दी. निधि नीचे कूदने ही वाली थी की पीछे से उसी बिल्डिंग के वॉचमैन की पत्नी लक्ष्मी अचानक वहां आ धमकी.

निधि उसे देख तुरन्त वापस ऐसे खड़ी हो गई जैसे वो यूं हीं छत पर टहलने आई हो, लेकिन लक्ष्मी ने सब देख लिया और वह सब समझ गई.

तभी लक्ष्मी बोली, “अरे दीदी, आप अपना काम करो. मैं तो पानी की टंकी देखने आई थी, पता नहीं कहां से लीक हो रही है? आप मुझे देखकर क्यों रुक गई? आप जाओ कूदो.”

ये कहती हुई वह सीढ़ी से नीचे उतरने को हुई. निधि फिर से सुसाइड करने के लिए बढ़ी.

लक्ष्मी फिर से पीछे की तरफ़ लौटती हुई बोली, “दीदी… दीदी… एक मिनट हां, बस एक मिनट जाते-जाते मेरा एक काम कर दो आप.”

निधि, “क्या काम?”

लक्ष्मी, “दीदी, भगवान के घर जा रही हो, तो एक संदेश दे देना उनको मेरा.”

“बहुत दिनों से मैं बीमार चल रही हूं, डॉक्टर साहब ने कहा है कि मैं कभी भी मर सकती हूं, मेरे बच्चे दिन-रात मेरी ज़िंदगी के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं. मेरा पति मेरे इलाज के लिए पैसे जुटाता है. और दीदी, सच कहूं, तो मैं भी मरना नहीं चाहती. मैं भी भगवान से रोज़ यही प्रार्थना करती हूं.”

“आप तो जा ही रही हैं, भगवान के पास, तो उन्हें आप सीधे ही मेरा संदेश दे देना. शायद तब हमारी प्रार्थना स्वीकार हो जाए. और हां दीदी, उनसे ये भी कह देना कि आपके जीवन के जो भी दिन शेष बचे हों, वो मेरी ज़िंदगी में जोड़ दें. आप तो अपना जीवन ख़त्म कर ही रही हैं, तो आपके जीवन के बाकी दिन तो वैसे भी बर्बाद हो ही जाएंगे. बर्बाद होने से अच्छा है मुझे वो दिन मिल जाएं हैं न दीदी…”

निधि उसकी आर्थिक तंगी और उसकी बीमारी से वाक़िफ़ थी. ऐसी परिस्थियों में भी उसका जीवन जीने का जज़्बा देखकर वह चकित रह गई. निधि को लक्ष्मी की बातों ने न चाहते हुए भी सोचने पर मजबूर कर दिया.

लक्ष्मी, “क्या सोच रही हैं दीदी? अरे, आप तो बहुत साहसवाला कदम उठा रही हैं. मुझमें आप जैसा साहस नहीं है. मैं ऐसा करने के पहले यही सोचकर रुक जाती हूं कि मेरे बाद मेरे पति के दुख-सुख का कौन भागीदार होगा? मेरे बच्चों को कौन खाना पका कर खिलाएगा?”

तभी निधि को याद आया की उसके दोनों बच्चे खेलकर घर आ गए होंगे. वे भी भूखें होंगे.

लक्ष्मी, “अच्छा दीदी चलती हूं, बहुत काम है. दिन कम हैं न मेरे पास, तो ज़्यादा से ज़्यादा जीना चाहती हूं इन दिनों में.”

लक्ष्मी फिर से सीढ़ी उतरती हुई मेल गाने को फीमेल गाने में बदलकर गाने लगी- मैं ज़िंदगी का साथ निभाती चली गई, हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाती चली गई…

निधि जो आज एक छोटे से झगड़े के कारण अपनी जीवनलीला समाप्त करने जा रही थी. वह अब ‘ज़िंदगी की क़ीमत’ को समझ रही थी. लक्ष्मी ने आज उसे ‘असल साहस’ क्या होता है? सीखा दिया और वह भी लक्ष्मी के पीछे-पीछे सीढ़ी उतरने लगी.

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