~ पुष्पा गुप्ता
लोकसाहित्य में गप्प भी एक महत्त्वपूर्ण विधा है और गप्पों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए ! यह सच है कि लोग मिलते हैं तो जैसे किस्सा – कहानी कहते हैं ,वैसे ही गप्पें भी हाँकते हैं , गप्पें सुनते भी हैं और उनसे मनोविनोद भी करते हैं ! गप्पें लोगों को जोड़ती भी हैं , गप्पों में लोगों का मन लग जाता है.
गप्पों का अध्ययन भी किया जा सकता है ! गप्पें हाँकना हर एक आदमी के वश की बात नहीं है ! कुछ लोग तो गप्पों के एक्सपर्ट होते हैं ! गप्पें मनोरंजन तो करती ही हैं , लोगों को उत्तेजित भी कर देती हैं ! आकर्षित भी करती हैं.
कभी -कभी आत्म-विज्ञापन के लिए गप्पें हाँकी जाती हैं तो कभी प्रतिद्वन्दी को पछाड़ने के लिए गप्पों का उपयोग किया जाता है ! लेकिन कुछ गप्पी बहुत कमाल के होते हैं , वे ऐसी गप्पें हाँकते हैं कि बहुत दिनों तक उनकी सचाई सामने नहीं आती और लोग उनकी गप्पों को प्रामाणिक तथ्य मान लेते हैं तथा दूसरों से भी आग्रह करते हैं कि वे भी उन गप्पों को ऐतिहासिक सच के रूप में ग्रहण करें.
ऐतिहासिक, राजनैतिक , धार्मिक , सामाजिक , आर्थिक -व्यापारिक ,सांस्कृतिक , भौगोलिक आदि वर्गों में गप्पों का वर्गीकरण किया जा सकता है ! भाषण देने वाले नेता लोग प्राय: अपनी महानता की गप्पों के साथ विपक्षियों के प्रति नफ़रत की गप्पें हाँकते रहते हैं.
गप्पें बोई जाती हैं, उनका अंकुरण होता है, उनको सींचा जाता है, उनका पल्लवन होता है और देखते देखते गप्प का वटवृक्ष बन जाता है. गप्पोँ के जंगल बन जाते हैं।गप्पोँ पर कितनी ही फ़िल्में बन चुकी हैं, अब भी बनाई जा रही हैं ताकि पब्लिक का दिल बहला रहे।अभी अभी एक गप्प फ़िल्म का प्रोग्राम सुन रहा था।
हालांकि वे इसे इतिहास बतला रहे थे तो कोई बात नहीं ,,इतिहास को अब गप्प का ही एक दूसरा नाम समझा जाना चाहिए।
इधर देश में राजनैतिक क्षेत्र की गप्पों का चलन बढ़ गया है ! व्यापारिक गप्पें उत्पादों को लेकर हाँकी जाती हैं ! इस उत्पाद को खरीद लोगे तो घर में स्वर्ग ही आ जायेगा ! धार्मिक मत के प्रचारक लोग अपने संप्रदाय अथवा पंथ की महिमा के लिए इतनी गप्पें हाँकते हैं कि उन पर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है.
मध्यकाल के भक्त-कवियों के संबंध में भी ऐसी गप्पें प्रचलित हैं , वहाँ प्रोफ़ेसर लोग इन गप्पों का उपयोग करते हैं , और आग्रह करते हैं कि यह गप्प नहीं , ऐतिहासिक सच है!
गप्प का एक नाम इतिहास भी है।
अब इतिहासकार भी गप्प -सामग्री का प्रचुर उपयोग करने लगे हैं ! ऐसी गप्प, जो इतिहास बन गया, या बना दिया गया। इतिहास की गप्प कहो या गप्पोँ का इतिहास कहो।गूगल, वाट्स ऐप, फेसबुक आदि पर गप्पोँ के विश्वकोष मिल सकते हैं,लेकिन लोकजीवन की गप्पें बड़ी सरल होती हैं , क्यों कि वे गप्प की तरह ही पेश आती हैं , धोखा देने का उनका इरादा नहीं होता !देहाती भाषा में इसे टल्ल भी कहते हैं.
इतिहास के नाम पर अपने अपने हिसाब चुकता किये जा रहे हैं, कोई किसी से दुश्मनी निकाल रहा है, कोई किसी से। सबके अपने अपने इतिहास हैं।
जनता का इतिहास तो अभी तक किसी ने लिखा ही नहीं है, जो है वह सत्ता का इतिहास है। भारतीय साहित्य में आर्य शब्द कम से कम दो हजार साल पुराना तो है ही, आज तक कोई ऐसा इतिहासकार नहीं हुआ, जो जाति या प्रजाति के अर्थ में आर्य शब्द का एक भी प्रयोग प्रमाणित रूप से बतला सके।
लेकिन लिखे जा रहे हैं। आज भी फेसबुक पर ऐसा ही प्रकरण देखा था। सर्वे पंडित मानिन:।गप्प का एक नाम इतिहास भी है।गप्प भी कैसी, जिसमें अपने स्वार्थ और मतलब छिपे हैं,अपने अपने वैमनस्य और वैर भाव छिपे हैं।अपने अपने मन की ग्रंथियां हैं , कुंठा हैं।
जो मन इतिहास ग्रस्त हो चुके हैं, वे इतिहास को जीवन भर ढोते रहने को विवश और बाध्य हैं. संसार के इतिहास में क्रूरता की कहानियाँ भी हैं , संसार के इतिहास में घृणा की कहानियाँ भी हैं.
भारत के इतिहास में किसी ने बाहर से आये लोगों को खोजा, किसी ने वर्ण को खोजा, किसी ने वर्ग को खोजा, किसी ने युद्ध को खोजा, किसी ने राजा-रानी को खोजा, किसी ने धर्म को खोजा, सामान्य-मनुष्य अथवा लोकजीवन को किसने खोजा?
वे इतिहासकार , जो सत्ता से ही पुरस्कृत और प्रेरित होते हैं , सत्ता के गीत गाते हैं , उन्हें जनता के इतिहास का क्या करना है ? मुगल-दरबार के इतिहासकारों ने मुगलों का जयजयकार किया.
ब्रिटिश-इतिहासकारों ने कहा कि आर्य बाहर से आये थे , यदि हम भी बाहर से आ गये तो इसमें नया क्या है?
इतिहास ? वह तो घंटाघर की सुई की तरह है | राजा बारह बजे नगरयात्रा पर निकलेगा , क्योंकि राजा समय का पक्का है , जब वह निकलेगा तभी बारह बजेंगे ! जब निकलता है तभी बारह बजते हैं।
इतिहास का काम है राजा को देखना घडी की सुई को पकड कर खींचना और बारह बजाना !राजाओं की नजरों के अर्थ को समझना.
राजा सबेरे सात बजे निकले तो भी बारह ही बजने हैं , शाम के छह बजे निकले तो भी बारह ही बजने हैं , क्योंकि राजा समय का पक्का है.
सत्ता कुचक्री होती है। भेदभाव को स्थायी बनाने के लिये सत्ता इतिहास की ऐसी व्याख्या को प्रोत्साहित करती है,जिसे पढ कर कच्चा मन एक दूसरी जाति से नफरत करे।
लोकजीवन की एकता को खंड-खंड करना उसका अभीष्ट होता है , सत्ता को जनता की एकता से डर लगता है इसके लिये सत्ता जनता को विभक्त करती है , बांटती है । इस कार्य में मदद करने के लिये वह विद्वानों को उपकृत करती है, अलंकारों से सम्मानित करती है। सत्ता के हजार हाथ हैं।
कहानी है न > तूने न सही तेरे बाप ने पानी जूठा किया होगा? अब इसी का आधार बना कर उन्होंने इतिहास रच दिया.
हिटलर के जमाने में शारीरिक- मानव शास्त्रियों ने नस्ली – निर्णायकवाद का प्रतिपादन किया था कि मानवजीवन का निर्णायकतत्व नस्ल ही होता है.
महायुद्ध के बाद सांस्कृतिक- मानवशास्त्र आया । यही काम भारत में इतिहास ने किया , कल भी और आज भी , वर्तमान से ध्यान हटाने के लिये आज हम इतिहास में शत्रुताओं को खोज रहे हैं ताकि घृणा-विद्वेष का प्रसार किया जासके । जातियों को जातियों से और मजहब को मजहब से लडाया जा सके।
कल की ही तो बात है , जब कबीर और तुलसी को जाति के आधार पर बांटा गया,जातियुद्ध चलता रहे.
कोई इतिहास अन्तिम नहीं है, इतिहास की व्याख्या हर युग में होती रही है और होती रहेगी। इतिहासकारों ने इतिहास लिखे हैं , अपने-अपने दृष्टिकोण से लिखे हैं , लोक के साथ आज भी कितने हैं ? किस इतिहासकार ने लोकजीवन में पेंठ कर के इतिहास लिखा है.
वह इतिहास तो तुम्हारे वर्ग की चीज है ! तुम्हारे हितों से प्रेरित है ! तुम लोकमन को नहीं समझ सके । तुमने अपने को लोकमन से ऊपर मान लिया , तुम पढ़े-लिखे हो न? तुम्हारा इतिहास लोकमन से अपरिचित है। तुम आसमान में रहते हो और लोकजीवन धरती पर रहता है।
इसी लिये हिन्दूमन, मुस्लिममन, धार्मिकमन और धर्मनिरपेक्षमन, ब्राह्मणमन,शूद्र मन जैसे भेद-विभेद पैदा होते हैं।
देश के भिन्न-भिन्न जन-समूहों और जनपदों को न देखा और न जाना और आप भारत के इतिहास पर फतवे सुना रहे हैं ? इतिहास के दस फीसदी तथ्य भी हमारे सामने नहीं है, और आप ने फैसला भी सुना दिया?
इतिहास में दायरे खोजने से दायरे ही मिलने थे! सामान्यमनुष्य की सामान्यता दायरों से बाहर है! धर्म, वर्ग, वर्ण, ऊंचनीच, राजा-रंक ऊपर के छिलके हैं,उपाधियां हैं। उनके भीतर जो मनुष्य है,आप यों कहें>मनुष्य के भीतर का मनुष्य! राजनैतिक-मतवाद की पुष्टि करने के लिये इतिहास के खेत में जाति और मजहब- वैमनस्य के जहर की खेती की।सचमुच इतिहास बहुत निष्ठुर है, दोगला है, फिर भी यह सच है कि वह इतिहास हमारी सामूहिक-चेतना में विद्यमान है.
मनुष्य की प्रेरणा भी तो उसी इतिहास में निहित है ! यदि इतिहास हमें बदला लेने के लिए कहता है तो सचमुच वह इतिहास मनुष्य के लिए दुर्भाग्य का हेतु ही सिद्ध होगा ! हाँ , यदि वह समन्वय सिखाता है तो वह अवश्य ही मनुष्य-जीवन को गतिशील बना सकता है.
इतिहास को हम इसलिये पढें , इसलिए रचें , इसलिए उसकी व्याख्या करें कि वर्तमान को शक्ति मिले, भविष्य उज्ज्वल हो, इतिहास में जाकर शत्रुताओं को खोजना , शत्रुताएं सामने खडी करना सामाजिक विवेक कैसे कहा जायेगा?
वह इतिहास , जो बदला लेने को प्रवृत्त करता है , बदला लेने की भावना जगाता है ,पैरों की बेडी की तरह है , वह एक बन्धन है. बदले का कहीं भी अन्त नहीं हो सकता.