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कमल दीक्षित….. मेरे सिर से साया उठ गया….

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– अवधेश बजाज 

     हे गुरुदेव मैंने चौदह महीने पहले ही आपसे ये कहा था कि आपको कुछ नहीं होगा पर आप तो हार मान बैठे। मुझे आज ऐसा लग रहा है कि जैसे छह साल पहले मेरे पिता का साया मेरे सिर से उठा था वैसा ही साया आज उठ गया है। पत्रकारिता के संक्रमण काल में आप एक आशा की किरण थे। आपने हजारों हजार मेरे जैसे अवधेश बजाज पैदा किये होंगे। गुरुदेव मैं नि:शब्द हूं, स्तब्ध हूं। विश्वास नहीं हो रहा है कि अभी 7 फरवरी को आपसे बात हुई थी। आप 8 तारीख को मेरे कार्यक्रम में आने वाले थे। मैं सिर्फ इंतजार ही करता रहा गुरुदेव….. मेरी स्मृति में आप मेरे पिता श्री बनवारी बजाज के संघर्ष के साथी, मेरे अभिभावक, मेरे गुरू की तरह हमेशा मेरी स्मृतियों में रहेंगे। 
7 जनवरी 2020 को कमल दीक्षित जी के लिए फेसबुक पर किया गया पोस्ट…….
मैं आपका मानस पुत्र हूं आपको कुछ नहीं होगाआदरणीय कमल दीक्षित जी कुछ समय से बीमार हैं लेकिन पिछले एक सप्ताह से उनकी स्थिति गंभीर हो गयी है। कल मैं उनसे मिला मिलकर मन बहुत दुखी एवं द्रवित है क्योंकि मैं स्वयं को उनका मानस पुत्र मानता हूं। भगवान उन्हें स्वस्थ करे इसकी कामना करता हूं और उन्हें भी आश्वस्त कराना चाहता हूं कि गुरुदेव आपको कुछ नहीं होगा। दीक्षितजी के बारे में उद्गार व्यक्त करना मैं आसान नहीं समझता। क्योंकि इसके लिए मुझे खुद को कई प्रवृत्ति के मनुष्यों में परिवर्तित करना होगा। मुझे वह शिल्पी बनना होगा, जो शब्दों के गढऩे वाले हुनर के धनी दीक्षितजी के लिए एक-एक उत्कृष्ट अक्षर की रचना कर सके। उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करने हेतु मात्र यही विकल्प बचता है कि मैं कलम में सियाही की जगह उनके प्रति अपनी अगाध श्रद्धा उड़ेलूं। कागज के स्थान  पर अपने हृदय को बिछा दूं। शब्दों की पवित्रता के लिए के लिए वेदों की ऋचाओं से कुछ उधार की प्रार्थना करूं। वाक्य विन्यास की दीर्घायु के लिए मां के हृदय से निकले आशीर्वाद जैसे किसी तत्व की खोज करूं। क्या मुझ सरीखे किसी सामान्य इंसान के लिए यह संभव है! क्योंकि बहुत अच्छे असाधारण तत्व का मेरे जीवन में केवल एक पक्ष है। वह यह कि मुझे पत्रकारिता के जीवन की आरंभिक पायदान पर श्री दीक्षितजी का आशीर्वाद मिला। उनके सान्निध्य का ममतामयी आंचल हासिल हुआ। उनकी कृपाओं का पितृतुल्य साया मेरे ऊपर पड़ा। सन् 1985-86 का वह समय हमेशा याद आता है। सुबह की ओस जैसी पवित्रताओं में लिपटी हुई यादों के साथ। पिताजी ने मुझे पत्रकारिता जगत की ओर जाने का मार्ग दिखाया और दीक्षितजी ने वह रास्ता खोला, जिस पर चलकर वास्तविक पत्रकार बना जाता है

। मेरा  पत्रकार बनना दिवंगत पिताजी की अभिलाषा थी। मेरी उत्सुकता थी। ये दो भाव शिला की तरह तब तब निर्जीव ही पड़े रहे, जब तक दीक्षितजी के चरणों का उनसे स्पर्श नहीं हुआ। दीक्षितजी उस समय नवभारत के इंदौर संस्करण के संपादक हुआ करते थे। उन्होंने प्रयास किये, किंतु दुर्भाग्यवश इस अखबार में मेरा प्रवेश नहीं हो सका। मेरे युवा मन के लिए यह किसी बड़ी लडख़ड़ाहट साबित होता, यदि दीक्षितजी ने अपने व्यक्तित्व का सहारा देकर मुझे थाम न लिया होता। उन्होंने मेरे लिए नवभारत समाचार सेवा में स्थान बनाया। भोपाल में आवास की समस्या मेरे मुंह-बायें खड़ी थी। इसका पता चलते ही दीक्षितजी ने मेरे लिए दिवंगत रामगोपाल माहेश्वरी के आवास में प्रबंध कराया। उनसे हुए प्रत्येक वार्तालाप में मैं यह देखकर दंग रह जाता था कि आशा का संचार करने के कितने अनगिनत एवं विश्वसनीय स्रोत उनके सहचर बने हुए थे। वह सम्पूर्ण मनुष्य बनकर मेरे पथ प्रदर्शक बने रहे। मुझ सरीखे नये चेहरे को आगे बढ़ाने के लिए वह किसी अभिभावक की भूमिका में सक्रिय रहे। मेरे अंदर के बिखरे-बिखरे लेखक का रेजा-रेजा उन्होंने किसी कुशल कारीगर की तरह सहेजा और उसे एक मुकम्मल शक्ल प्रदान करने तक लगातार इसके लिए प्रयास करते रहे। सिखाने की प्रक्रिया में वह किसी सीनियर की तरह कभी-भी पेश नहीं आये। इसकी जगह उनके भीतर का वह गुरू सामने आया, जो स्वयं को मोमबत्ती की तरह जलाते हुए दूसरों के अंधेरे को हरने का कर्म करता है। आज यह सब लिखते समय मैं भावातिरेक से खुद को बचाने का पूरा प्रयास कर रहा हूं। भावावेश में व्यक्ति बहक जाता है।

मैं इस लेखन के समय यह गुस्ताखी कतई नहीं कर सकता। हरेक शब्द की मैं पूरी क्रूरता से समीक्षा कर रहा हूं। उन्हें सुनार की भट्टी की आग में पिघलाने में मुझे किंचित मात्र भी पीड़ा महसूस नहीं हो रही। शब्दों की तलाश मुझे किसी हीरे की खदान में जमीन का बेदर्दी से सीना खोदते शख्स की तरह ही वसुंधरा की पीड़ा से विरत रख रही है। समुंदर के भीतर किसी सीप का पूरी निर्दयता से सीना चीरने वाले की ही तरह मैं भी निर्मिमेष भाव से शब्द रूपी मोती चुन रहा हूं। वजह केवल यह कि मामला गुरू दक्षिणा का है। मेरे गुरू ने शब्दों की जिस लहलहाती फसल का बीज मेरे भीतर बोया था, उन्हीं शब्दों को उनके लिए लिखना किसी गुरू दक्षिणा की पावन प्रक्रिया से भला अलग हो सकता है! इसलिए मैं अपने विचारों को कागज पर लाने से पहले सोने की तरह तपा रहा हूं। हीरे की तरह तराश रहा हूं। मोती की तरह तलाश रहा हूं। दीक्षितजी की दृष्टि में मैं यदि इनमें से किसी एक भी प्रयास में सफल रहा तो इसे अपने जीवन को धन्य करने वाले आशीर्वाद की तरह मानूंगा।

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