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यह साबित करना कि ईवीएम व्यवस्था शंका से परे हैं निर्वाचन आयोग की जिम्मेवारी

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योगेंद्र यादव

EVM को लेकर बहस ने फिर से सिर उठाया है. हालांकि, पक्ष और विपक्ष में दिए जा रहे तर्क पुराने ही हैं, उनमें नया कुछ भी नहीं है लेकिन हाल में हुए विधानसभा चुनावों के अनपेक्षित नतीजों और आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर EVM की बहस नये सिरे से मौजूं हो उठी है. दुर्भाग्य कहिए कि इस विवाद को विराम कैसे दिया जाये या मसले पर कोई सार्थक बहस कैसे हो — यह अब भी स्पष्ट नहीं है. EVM पर शंका करने वाले चाहते हैं कि व्यवस्था ऐसी चाक-चौबंद हो कि EVM के साथ छेड़छाड़ नामुमकिन हो जाये. वहीं EVM को भरोसे की चीज समझने वाले कहते हैं कि EVM के जरिए चुनाव में सचमुच ही कोई फर्जीवाड़ा हुआ हो तो उसका कोई ठोस प्रमाण दीजिए.

इंडिया गठबंधन की हालिया बैठक से EVM की बहस फिर से राष्ट्रीय अजेंडे पर आ गई है. हालांकि बैठक के सर्वसम्मत प्रस्ताव में कांग्रेस की हार के लिए सीधे-सीधे EVM को दोष नहीं दिया गया लेकिन प्रस्ताव में गंभीर चिंता के स्वर में कहा गया है कि ‘EVM की कार्यप्रणाली की ईमानदारी को लेकर अनेक संदेह हैं. कई विशेषज्ञों और पेशेवरों ने भी EVM की कार्यप्रणाली पर उंगली उठायी है.’ अच्छी बात ये है कि विपक्ष ने मतपत्रों पर मुहर लगाकर मतदान करने की पुरानी प्रणाली को फिर से बहाल करने की मांग नहीं की है. इंडिया गठबंधन ने इससे अलग प्रस्ताव किया है कि ‘वोटर वेरीफाइड पेपर-ऑडिट ट्रायल स्लिप यानी मतदाता द्वारा सत्यापित मतपर्ची (VVPAT) को निर्धारित बक्से में गिराने की जगह उसे मतदाता के ही हाथों में सौंप दिया जाये और फिर मतदाता खुद ही पर्ची में ये देखकर कि उसका वोट उसके मनपसंद उम्मीदवार को ही गया है, मत-पर्ची अलग से रखी हुई मतपेटी में गिरा दे. VVPAT के रूप में एकत्र की गई शत-प्रतिशत पर्ची की गिनती इसके बाद की जाये.’बहुत संभव है कि यह मसला जाड़े की छुट्टियों के बाद सुप्रीम कोर्ट में भी उठे क्योंकि एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म ने मसले पर एक अर्जी डाली है.

एक तो EVM की कार्य-प्रणाली की ईमानदारी को लेकर शंका का माहौल अक्सर ही सरगर्म रहता आया है, दूसरे इस जन्म के अपने पुराने अवतार में मैंने चुनाव-शास्त्री की टोपी और चश्मा लगा रखा था सो इस दोहरे फंदे में फंसे होने के कारण EVM को लेकर चलने वाली बहस में मैंने लगातार ही टिप्पणी की है और उसमें सिर्फ मुद्दे की सीधी-सरल बात बस एक ही कहनी चाही है कि: बेशक, EVM में मन-मुताबिक छेड़छाड़ की बात पर यकीन करने की कई वजहें हैं लेकिन हमारे पास ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है जिसके आधार पर कहा जा सके कि चुनाव-परिणाम में फर्जीवाड़े के लिए EVM के कान ऐसे या वैसे उमेठे गये हैं. साल 2006 में ममता बनर्जी ने अपनी हार का ठीकरा जब EVM के मत्थे फोड़ा था तब भी मेरा यही कहना था और जीवीएल नरसिम्हा राव (जो अब बीजेपी के नेता हैं) ने जब एल. के आडवाणी के आशीर्वाद से EVM के खिलाफ ‘डेमोक्रेसी ऐट रिस्क’ नाम की किताब लिखी थी तब भी EVM के बारे में मेरे विचार यही थे. साल 2014 में बीजेपी को मिली बड़ी और आश्चर्यचकित करती जीत के बाद जब शंकाएं उठीं तब भी EVM को लेकर मैं अपनी मान्यता पर अडिग रहा. आप कल्पना कर सकते हैं कि EVM को लेकर अपने इस अड़ियल और सार्वजनिक तरफदारी के रवैये से मैंने अपने सियासी मित्र-मंडली के बीच कोई शोहरत नहीं बटोरी.

EVM पर अविश्वास के कारण

EVM को लेकर शंका करने के पीछे तीन पूर्व-मान्यताएं काम करती हैं और इनमें कोई भी मान्यता बेतुकी नहीं है. इसमें पहला है मशीन को लेकर प्रचलित अविश्वास : कोई भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण व्याकरण-बद्ध (प्रोग्राम्ड) किया जा सकता है और इसी कारण उसकी कार्यप्रणाली के साथ छेड़छाड़ भी की जा सकती है. इंडिया फोरम पर प्रकाशित एक शानदार लेख में कन्नन गोपीनाथन ने दिखलाया है कि VVPAT के चलन से इस संभावना में कमी नहीं आयी बल्कि बढ़ोत्तरी ही हुई है. दूसरी बात, मौजूदा सत्ता-तंत्र को लेकर कायम अविश्वास के कारण इस शंका को और ज्यादा बल मिला है. आज की तारीख में शीर्ष के सिर्फ दो ही नेता मायने रखते हैं और कोई निहायत भोला-भाला राजनीतिक प्राणी भी आज ये नहीं कह सकता कि शीर्ष के इन दो नेताओं को कोई नैतिक द्वंद्व सताया करता है. प्रयोग के तौर पर आप अपने मन ही में ये सवाल पूछकर देखिए कि ‘अगर कोई इन दो नेताओं को बताये कि मशीन को अपने खीसे में उतारने यानी हैक करने का एक सुरक्षित और विश्वसनीय तरीका है तो क्या नैतिक आधार पर ये दो नेता उस तरीके को अपनाने से इनकार करेंगे?’

और तीसरी बात है, एक संस्थागत अविश्वास जो इस शंका को एक ऐसे सिद्धांत में बदल देता है जिसमें हर चीज की व्याख्या साजिश बताकर की जाती है. अफसोस की बात ये है कि भारत निर्वाचन आयोग (इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया—ईसीआई) की स्वायत्तता और प्राधिकार में  तेजी से क्षरण आया है और आज शायद ही किसी को भ्रम हो कि देश में चुनावों पर निगरानी रखने की यह संस्था सत्ताधारी पार्टी की ओर से होने वाली किसी नाजायज मांग को ठुकरायेगी. ईसीआई ने मसले को सुलझाने में मदद नहीं की है, EVM को लेकर जो भी गंभीर सवाल उठे हैं उनका जवाब देने की जगह इस संस्था ने मुंह फेरकर हैकाथॉन जैसे तमाशे का आयोजन किया है.

सही प्रतीत होती इन तीन मान्यताओं से यही साबित होता है कि EVM में छेड़छाड़ की आशंका वास्तविक है, काल्पनिक नहीं. लेकिन इन मान्यताओं से ये साबित नहीं होता है ऐसी घटना किसी चुनाव में हुई भी है. और, यह तो एकदम ही साबित नहीं होता कि EVM में छेड़छाड़ इस हद तक की गई कि समूचा चुनावी जनादेश ही पलट गया.

मध्यप्रदेश में हुए हाल के विधानसभा चुनाव का ही उदाहरण लीजिए. इस चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले रहे, जैसा कि कई दफे चुनावी नतीजे के साथ होता है. सियासी आसमान का मिजाज भांपने वाले किसी भी पर्यवेक्षक, पत्रकार या जनमत-सर्वेक्षण (सिर्फ एक एक्जिट-पोल को छोड़कर) को ये अनुमान नहीं था कि बीजेपी 8 प्रतिशत वोटों के बड़े अंतर से जीतने जा रही है. प्रदेश का व्यापक दौरा करने वाले कई लोगों की तरह मुझे भी मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजों पर सहसा विश्वास नहीं हुआ. मुझे अब भी लगता है कि मध्यप्रदेश के चुनाव में कहीं ना कहीं दाल में कुछ काला है. लेकिन इसे सबूत तो नहीं कह सकते.

कांग्रेस ने अंगुली उठायी है कि पोस्टल-बैलेट और EVM की वोट-गणना के आंकड़ों के बीच मेल नहीं है. बेशक, इसे विचित्र कहा जा सकता है लेकिन अभूतपूर्व कत्तई नहीं. छोटी पार्टियों और स्वतंत्र उम्मीदवारों के वोट शेयर में आई कमी और बीजेपी के वोट शेयर में लगभग उसी अनुपात में हुई बढ़ोत्तरी का तथ्य भी विचित्र कहा जायेगा. बेशक, यह अजीब है लेकिन असंभव नहीं. आखिर को मध्यप्रदेश के चुनाव-परिणाम आने के बाद के वक्त में EVM को शंका की नजर से देखने वाले लोगों के मन में ये धारणा दृढ़ हुई है कि सब कुछ साजिश का नतीजा है और साजिश EVM की कार्यप्रणाली में गड़बड़ी के जरिए की गई तो दूसरी तरफ EVM पर यकीन करने वाले पहले से कहीं ज्यादा दृढ़ स्वर में कह रहे हैं कि यह सब कुछ और नहीं बल्कि लड़ाई हार चुके लोगों का स्यापा है.

फिर भी, बहस में बात को इस हद तक बिगड़ने नहीं दिया जा सकता कि वह बढ़कर बतंगड़ में बदल जाये. और, यह जिम्मेवारी भारतीय निर्वाचन आयोग की बनती है. खुलकर कहें तो आयोग मसले पर विश्वास बहाल करने के मामले में फिसड्डी रहा, ना तो जायज प्रतीत होने वाले सवालों का आयोग ने जवाब देने की कोशिश की है ना ही सही सुझावों पर अमल करने के यत्न. आयोग की बस एक ही रटन्त रही है कि EVM अपने आप में एक मुकम्मल मशीन है जिसे सीधे-सीधे या फिर घुमा-फिराकर चाहे जैसी भी कोशिश कर लो मगर अन्य किसी बाहरी उपकरण से जोड़ा नहीं जा सकता. VVPAT के चलते EVM में किया गए तकनीकी बदलाव से सावधानी और सुरक्षा की अपनायी गई पहले की तमाम युक्तियां अब बेकार हो चुकी हैं. गोपीनाथन ने अपने लेख में बताया है कि EVM में किया गया कोई एक भी तकनीकी बदलाव सावधानी और सुरक्षा की अपनायी गई पहले की तमाम युक्तियों को बेकार कर देता है. निर्वाचन आयोग या फिर सुप्रीम कोर्ट को जन-विश्वास को बहाल रखने के लिए EVM के संचालन से जुड़ी कुछ अतिरिक्त क्रिया विधियों को अपनाने की दिशा में पहल करना चाहिए.



निर्वाचन आयोग कर सकता है ये 3 काम

बीते कुछ सालों से मैं छोटे-मोटे ऐसे सुधारों की बात कहता आ रहा हूं जिनको अपनाने से EVM पर शंका रखने वालों को संतुष्ट किया जा सकता है. मुझे लगता है कि हमने इस मसले पर कुछ ठोस ना किया तो हमारे देश में भी चुनावों की दशा वही होने जा रही है जो बांग्लादेश में, जहां पराजित पक्ष हमेशा ही चुनाव-परिणाम को खारिज कर दिया करता है. यहां मैं अपना संशोधित प्रस्ताव पेश कर रहा हूं (VVPAT के रूपाकार को नजर में रखते हुए. आभार गोपीनाथन जी का जिनसे हुई बातचीत के कारण ऐसा करना संभव हुआ). इन सुझावों को मानने का एक फायदा तो यह है कि मतपत्र पर हाथ से मुहर लगाकर मतदान करने की पुरानी परिपाटी को अपनाना नहीं पड़ेगा. मतदान की यह रीत जितनी समस्याओं को सुलझाती नहीं उससे कहीं ज्यादा पैदा कर सकती है. और, मेरे सुझावों के तहत VVPAT पर्ची को मतदाता के हाथों में भी सौंपना जरुरी नहीं है, जैसा कि विपक्ष की मांग है. विपक्ष के इस प्रस्ताव पर सावधानी से विचार करने की जरूरत है लेकिन मेरी समझ में साल 2024 के चुनावों में ऐसा करना अभी के अभी तो व्यावहारिक नहीं जान पड़ता.

चुनाव के नतीजों पर जनता-जनार्दन का विश्वास बनाये रखने के लिए निर्वाचन आयोग ये तीन उपाय कर सकता है.

इस सिलसिले की पहली बात तो यह कि निर्वाचन आयोग को कंट्रोल यूनिट, VVPAT तथा सिंबल (चुनाव-चिन्ह) अपलोडिंग यूनिट के लिए इस्तेमाल होने वाले सॉफ्टवेयर के सोर्स-कोड को सार्वजनिक करना चाहिए. साथ ही, अनुमति देनी चाहिए कि चुनाव के समय राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि इसकी प्रमाणिकता का सत्यापन कर लें. इससे यह शंका निर्मूल की जा सकेगी कि मशीन में सिम्बल-ओपलोडिंग के समय कोई ऑलवेयर घुसा दिया गया है.

दूसरी बात, आयोग को मौजूदा प्रक्रिया में बदलाव करना चाहिए ताकि किसी मतदान-केंद्र विशेष के लिए रैंडमाइज्ड तरीके से EVM का आबंटन कुछ ऐसे हो मानो लॉटरी निकाली जा रही हो और ऐसा निर्वाचन-क्षेत्र के उम्मीदवारों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में हो(ना कि केंद्रीकृत सर्वर के सहारे). साथ ही, ऐसा चुनाव-चिन्हों की अपलोडिंग के तथा EVM के जारी कर दिये जाने के बाद होना चाहिए ( ना कि अपलोडिंग के पहले, जैसा कि अभी चलन है). अगर आशंका है कि EVM में गड़बड़ी करने के इरादे से किसी मतदान-केंद्र को लक्ष्य किया जाना है, तो इस दूसरे सुझाव पर अमल करने से निगरानी संभव हो जायेगी.

तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि VVPAT की पर्ची को ( ना कि कंट्रोल युनिट में दर्ज रिकार्ड को) कानूनी तौर पर मतदान की प्रामाणिक अभिव्यक्ति माना जाय. जाहिर है, फिर इसकी तर्कसंगत परिणति यही है कि चुनाव के नतीजे का ऐलान सभी वोटों यानी जितना कि मतदाता ने सत्यापित किया है और जितना VVPAT की पर्ची में दर्ज है, की गिनती और कंट्रोल यूनिट में दर्ज इलेक्ट्रॉनिक गणना से मिलान करने के बाद की जाये. अगर ये गिनती बेमेल हो तो कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स 56 डी (4) (डी) के मुताबिक, VVPAT में दर्ज गणना को तरजीह दी जाये. इससे वोटों की गिनती में कुछ घंटे की देरी बेशक होगी लेकिन इससे किसी भी स्तर पर संभावी गड़बड़ की आशंका को निर्मूल किया जा सकेगा.

एक बात ये भी है कि निर्वाचन आयोग यहां बताये गये सुझावों से कहीं बेहतर उपाय लेकर सामने आ सकता है और कुछ अतिरिक्त उपाय भी कर सकता है. सिर्फ अड़चन खड़ी करने या तकनीकी पूर्णता की दावेदारी की ओट लेने भर से काम नहीं चल सकता. अब यह कहना भर काफी नहीं है कि EVM के आलोचकों ने अभी तो फर्जीवाड़े का कोई प्रमाण नहीं दिया है. देश के निर्वाचन आयोग को साबित करना होगा कि उसकी बनायी प्रणाली शंका से परे है. हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं में तेजी से क्षरण हो रहा है. चुनाव के मामले में सत्ताधारी पार्टी को हासिल लाभकर स्थितियों को देखते हुए अब ये नहीं कहा जा सकता कि चुनावी जंग का मैदान सबके लिए बराबरी के हिसाब से तैयार किया गया है. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अब सिर्फ एक ही चीज ईमानदार रह गई है और वह है कि वोट सचमुच डाले जाते हैं तथा वोटों की सचमुच गिनती भी होती है. अभी तक, चुनाव में हारा हुआ पक्ष निर्वाचन-आयोग के घोषित नतीजों को स्वीकार करता आया है. यह आखिरी चीज भी इस विवाद में दांव पर चढ़ गई है. क्या हमें उम्मीद करनी चाहिए कि तिनके की ओट करके लाज ढंकने के बचे इस एकमात्र सहारे को सुरक्षित करने के लिए जल्दी ही कोई आगे आयेगा?

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. 

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