अग्नि आलोक
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विदाई बेला…..!

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कुछ सूखे पत्ते बचे हैं
इस सूखे हुए दरख़्त पर
इसके पहले कि वे
उड़ जाएं आंधियों में
चलो चुन लाते हैं उन्हें
और ढंक लेते हैं
बची खुची लाज

साल
एक स्ट्रिप टीज़ की नर्तकी रही
अंतिम अधोवस्त्र उतरने का मुहूर्त
आधी रात का निविड़ अंधकार होगा
(सच बेलिबास उजाले में नहीं आता)
और मैं सबसे क़रीब से
तभी देख पाता हूं मुझे
जब दृष्टि बाधित रहता हूं

अपने ही शरीर को
स्पर्श कातर उंगलियों से टटोलते हुए
जब उतरता हूं
रक्त, अस्थि, मज्जा के
अभेद्य जंगल में
छू जाती है मुझे
एक शव वाहिनी गंगा

जी उठते हैं सारे दफ़्न हुए शव
बालू चर से निकल कर
समाते हुए गांव, शहरों में
शव
जो सवाल नहीं करते
शव
जो आंखें नहीं झपकते
जो दांए बाएं नहीं देखते
सीधी रेखा में चलते हुए
प्रकाश की तरह
लेकिन, परजीवी अंधेरों के

विदाई बेला का सुर
राग पहाड़ी है
ध्वनि और प्रतिध्वनि का अंतर्द्वंद्व
वही महीन रेशमी डोर है
जो मेरी लज्जा
और उन सूखे पत्तों को बांधे रखती है
अनंत काल तक

जिस समय
वो विशाल मैदानी नदी
लंबे, सफ़ेद नाखूनों वाली पंजों से
जकड़ लेती है ज़मीन
और सांझ गोते लगाती है
एक रक्त शून्य देह में
ठीक सागर में विलय के पहले

  • सुब्रतो चटर्जी
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