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*गैर देहिक प्रेम की अवस्थाएं*

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         ~ पुष्पा गुप्ता

प्रेम अशरीरी होता है. महज शरीर आधारित ज़ो होता है, वो प्रेम नहीं होता, सिर्फ वासना का करोबार होता है. गोपिया जो कुछ भी करती थी, केवल श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के निमित करती थी. इसलिए शुद्ध प्रेम इंद्रियों और उनके धर्मो से परे की वस्तु है. 

      इसी को ‘अनुराग’ कहते है. अनुराग के तीन भेद होते हैं : पूर्वाराग, मिलन और विरह. इस संबंध में अष्ट-सात्विक विचार हैं : स्तम्भ, कंपन, स्वेद, वैवण्र्य, अश्रु, स्वरभंग, पुलक, और प्रलय.

   ये भय, शोक, विस्मय, क्रोध, और हर्ष की अवस्था में उत्पन्न होते है. प्रेम के कारण, प्रेम के लिए ही इन भावो को सात्विक विकार कहा गया है.

१. स्तम्भ :

   शरीर का स्तब्ध हो जाना. मन और इन्द्रियाँ जब चेष्ठा रहित होकर निश्चल हो जाती है,उस अवस्था को ‘स्तम्भ’ कहते है.

२. कम्प :

 शरीर में कँपकँपी पैदा होना ‘कंप’ कहलाता है अर्जुन की युद्ध में भय के कारण ऐसी दशा हुई थी.

३. स्वेद :

 शरीर पसीने से लथपथ हो जाना ‘स्वेद’ कहलाता है.

४. अश्रु :

बिना प्रयत्न किये शोक, विस्मय, क्रोध, अथवा हर्ष के कारण आँखो में से जो जल निकलता है उसे ‘अश्रु,’ कहते है हर्ष में जो अश्रु निकलते है वे ठण्डे होते है और वे प्रायः आँखो की कोरो से नीचे को बहते है. शोक के अश्रु गरम होते है और वे बीच से ही बहते है.

५. स्वर भंग :

 मुख से अक्षर स्पष्ट उच्चारण ना हो सके उसे ‘स्वरभंग’ कहते है.

६. वैवण्र्य :

 उपर्युक्त कारण से मुख पर जो एक प्रकार की उदासी, पीलापन या फीकापन आ जाता है उसे वैवण्र्य कहते हैं.

७. पुलक :

 शरीर के रोम खडे़ हो जाना ‘पुलक’ कहलाता है.

८. प्रलय :

 जहां शरीर का तथा भले-बुरे का ज्ञान ही न रह जाये उसे ‘प्रलय’ कहते है. बेहोशी के कारण पृथ्वी पर गिर जाना.

    ये सारे भाव प्रेम के पक्ष में ही प्रशंसनीय है. प्रेम के संबध में तीन अवस्थाएं होती हैं :  पुर्वाराग, मिलन और वियोग.

पूर्वाराग :

 प्यारे से साक्षात्कार नहीं हुआ किन्तु चित्त उसके लिये तड़प रहा है इसे ही पूर्वाराग कह सकते है दिन-रात उसी का ध्यान, उसी का चिंतन,मिलने की उत्तरोतर इच्छा बढती ही जाये इसी का नाम पूर्वाराग है.

   मिलन :

यहाँ विषय वर्णानातीत है ये बात तो अनुभवगम्य है इसे तो प्रेमी और प्रेमपात्र के सिवा दूसरा कोई जान ही नहीं सकता. 

  वियोग :

  अनुभव होने पर वर्णन करने की शक्ति नहीं रहती और बिना अनुभव के वर्णन व्यर्थ है. इसलिए इस विषय में कवि उदासीन से ही दीख पड़ते है. दूध का विरह ही मक्खन है. 

९. मोह :

   अत्यंत ही वियोग में अंगों के शिथिल हो जाने से जो एक प्रकार की मूर्छा-सी हो जाती है इसे मोह कहते है, यह मृत्यु के समीप की दशा है यदि प्राणनाथ के पधारने की आशा ना होती,तो ये कुम्हिलाये हुए नैन और अथाये हुए बैन कबके पथरा गये होते.

१०. मृत्यु :

   मृत्यु हो गयी तो झगडा मिटा, दिन-रात के दुख से बचे, परन्तु मधुररस के उपासक रागानुयायी भक्त म्रत्यु का अर्थ करते है, ‘म्रत्यु के सामान अवस्था का हो जाना. नियमानुसार विरह का अंत हो जाना चाहिये किन्तु वैष्णव कवि मृत्यु के बाद भी फिर उसे होश में लाते है और फिर मृत्यु से आगे भी बढ़ते हैं.

      अनुराग हृदय में बढते-बढते जब सीमा के समीप पहुँच जाता है तो उसे ‘भाव’ कहते है इसी अवस्था को ही प्रेम का श्री गणेश कहते है जब भाव परम सीमा तक पहुँचता है तो उसक नाम महाभाव होता है.

     महाभाव के भी ‘रुढ़ महाभाव’ और ‘अधिरुढ महाभाव’ दो भेद बताये गये है ‘अधिरुढ महाभाव’ के भी ‘ मोदन’ और ‘ मादन’ दो रूप है तब फिर ‘ दिव्योन्माद’ होता है.

     दिव्योन्माद ही प्रेम या रति की परकाष्ठा या सबसे अंतिम स्थिति है. इन सब बातो का असली तात्पर्य यही है कि हृदय में किसी की लगन लग जाये. दिल में कोई धस जाये,किसी की रूप माधुरी आँखो में समा जाये.

   एक बार पूर्णत्व की लगन लगनी चाहिये फिर भाव, महाभाव अधिरुढभाव तथा सात्विक विकार और विरह की दशाएँ तो अपने आप उदित होगी.

    उस तड़फड़ाहट के लिये प्रयत्न नहीं करना होगा. किन्तु हृदय परमानंद को स्थान दे तब न. उसमें तो हमने काम क्रोधादि चोरों को स्थान दे रखा है.

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