दिसंबर का महीना वैसे तो बाबा साहब आंबेडकर को श्रद्धांजलि देने का महीना होता है, लेकिन पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय ने वकीली-मुद्रा में उनकी सात फुट की प्रतिमा स्थापित कर उन्हें पूर्वज अधिवक्ता के रूप में विशेष रूप से याद किया।
स्मरणीय तो आंबेडकर का शोध ‘प्रॉब्लम ऑफ रुपी’ भी है, जिसे उन्होंने सौ-साल पूर्व लंदन के ‘स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स’ में पेश किया था और जिस पर उन्हें ‘डॉक्टरेट ऑफ साइंस’ की उपाधि प्राप्त हुई थी। रिजर्व बैंक की स्थापना का आधार यही थीसिस है, जिसे अमर्त्य सेन ने नोबेल पुरस्कार के योग्य शोध माना।
सौ साल पहले 1923 में डॉ. आंबेडकर ने लंदन से पढ़ाई पूरी कर वकालत करने के उद्देश्य से बॉम्बे हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की थी। वहां उन्होंने कई ऐतिहासिक मुकदमे लड़े और जीते। वह जानते थे कि निचली अदालतों में सामान्य भारतीय के लिए न्याय मिल पाना कठिन है, इसलिए ब्रिटिश सरकार के 2,500 रुपये मासिक पर वकालत का प्रस्ताव ठुकरा कर उन्होंने ठाणे, नागपुर और औरंगाबाद की जिला अदालतों में वकालत की। तब सर्वाधिक वंचित भारतीयों के बीच से पहला न्यायप्रिय अधिवक्ता खड़ा हुआ था।
कदाचित इसी कृतज्ञता बोध के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने उन्हें ‘फादर ऑफ इंडियन कॉन्स्टीट्यशन’ कहकर संबोधित किया। आंबेडकर के बहुआयामी ज्ञान प्रसार से ही ‘न्यायप्रिय समाज‘ का निर्माण होना संभव है। बीते सौ साल में विधि विषयक कई सुधार हुए हैं। नए कानूनों का निर्माण व संशोधन भी खूब हुए हैं।
लेकिन अधिवक्ता आंबेडकर का सम्मान तो तभी पूर्ण होगा, जब न्यायालयों में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को लेकर समावेशी और विविधतापूर्ण हो। संविधान लागू होने के करीब साढ़े सात दशकों की यात्रा के बाद भी लोकतांत्रिक न्याय पर राजशाही प्रथाओं, परंपराओं और पूर्वाग्रहों का दबाव है। दलितों, आदिवासियों और अन्य निर्धन तबकों के लिए वकीलों की फीस दे पाना मुश्किल है, इस कारण वे मामूली अपराधों या झूठे मुकदमों में लंबी सजाएं काटते हैं और उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं हो पाती। सरकारी वकीलों तथा जजों के अभाव में न्यायालयों में फाइलों के अंबार लगे रहते हैं।
पराधीन भारत में जिस अस्पृश्य-बहिष्कृत समाज से एक बेजोड़ वकील आया, स्वतंत्र भारत के न्यायालयों में उस समाज के जज कम हैं, जो समाज की संवेदनशीलता के भुक्तभोगी अनुभवों की रोशनी में न्याय प्रक्रिया को सार्थकता प्रदान करने के लिए आवश्यक है। ऐसा नहीं है कि देश की संसद ने इस स्थिति को कभी गंभीरता से लिया ही न हो। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. केआर नारायण ने तो जजों की नियुक्तियों की फाइल पर ही टिप्पणी की थी कि इस सूची में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के जजों के नाम शामिल नहीं हैं, जबकि वे देश की बहुत बड़ी आबादी हैं।
पिछले साल भी यह मुद्दा मीडिया में उठा था और कहा गया था कि न्यायधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया समावेशी और विविधतापूर्ण नहीं बन पाई है। आज अंग्रेजों के जमाने की आपराधिक संहिता खत्म कर नए कानूनों को मंजूरी मिल चुकी है। लेकिन पांच साल के आंकड़े ही चिंतित कर देते हैं।
शिक्षा राज्यमंत्री डॉ. सुभाष सरकार द्वारा राज्यसभा को बताए गए पांच वर्षों के आंकड़ों में 25,000 से अधिक एससी/एसटी/ओबीसी छात्रों ने आईआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालय छोड़ दिए। आंकड़ों के मुताबिक, इन श्रेणियों के 33 फीसदी बच्चे दसवीं के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। अनुसूचित जातियों में लड़कियां सर्वाधिक पढ़ाई छोड़ती हैं। पलायन प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च-हर स्तर पर है और ये बच्चे राजकीय शिक्षा संस्थाओं की अपेक्षा निजी संस्थाओं से अधिक बाहर हो रहे हैं।
कानूनविद डॉ. आंबेडकर मानते थे, ‘जिस अनुपात में समाज में शिक्षा में वृद्धि होती है, उसी अनुपात में समाज की उदारता में भी वृद्धि होती है।‘ पर मौजूदा स्थिति हताश करती है।अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें