-डॉ. हिदायत अहमद खान
यह तो सभी जान ही चुके हैं कि चीन जो भी करता है वह अपने फायदे के लिए ही करता है और नुक्सान को देखते हुए अपने फैसले से पलट भी जाता है। उसे किसी पड़ोसी की दोस्ती और भाईचारे से कोई लेना-देना नहीं है। यहां चीन को शुद्ध व्यापारी कहना भी सही नहीं होगा, क्योंकि व्यापारी भी अपने लाभ-हानि वाले फार्मूले के साथ सहभागी का भी ध्यान रखता ही रखता है। चीन ऐसा कतई नहीं करता है।
ऐसे में विकसित व विकासशील देश उससे ताल्लुकात तो रखते हैं, लेकिन जब किसी मामले में फैसला लेने की बारी आती है तो वही देश बहुत ही सोच-समझ कर और दूरगामी परिणामों का विश्लेषण करते हुए ही फैसला लेते हैं। यह बात तो विकसित और विकासशील देशों की है, लेकिन पिछड़े और गरीब देशों को चीन आसानी से अपने जाल में फंसा लेता है और देखते ही देखते उन पर अपने फैसले लादने के अलावा पांव पसारने का उपक्रम भी करने लगता है। इसलिए छोटे और निर्भर देशों को हमेशा से ही सलाह दी जाती रही है कि वे अपना फायदा जरुर देखें लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता को दांव पर लगाकर किसी अन्य देश पर निर्भर होने की दिशा में आगे न बढ़ें।
इस पूरे मामले में चीन को लेकर यहां जो बात कही गई है वह नई तो कतई नहीं है, लेकिन सच जरूर है। इसका उदाहरण यदि पेश करने को कहा जाए तो हम सीधे अपने ही देश भारत के साथ हिंदी-चीनी भाई-भाई वाला उदाहरण पेश कर सकते हैं। वह भी इसलिए क्योंकि दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक पीता है। यही नहीं चीन ने व्यवसायिक कॉरिडोर के नाम पर श्रीलंका और पाकिस्तान को आर्थिक तौर पर बर्बाद करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है। दोनों ही देश चीन के मकड़जाल रुपी कर्जे में फंस चुके हैं। ऐसे में चीन ने मालदीव को अपने शिकंजे में ले लिया है, जिसका असर साफ दिखाई देने लगा है।
दरअसल, मालदीव हमारा भरोसेमंद पड़ोसी है, लेकिन जिस तरह से हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लक्षद्वीप की यात्रा पर मालदीव के मंत्रियों ने आपत्तिजनक टिप्पणी की, उससे साफ जाहिर हो गया कि उनका व उनके नेतृत्व का रुझान भारत से कहीं ज्यादा चीन के प्रति हो गया है। यह अलग बात है कि मालदीव में इसे लेकर राजनीतिक भूचाल भी आ गया है। दोषी मंत्रियों को निलंबित किया गया और सरकार ने उनके इस कृत्य से खुद को अलग भी कर लिया, लेकिन इससे क्या क्योंकि जो किया गया वह अशोभनीय और दंडनीय तो था ही। ऐसे में भारत सरकार से बात कर मालदीव को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए थी, लेकिन इसकी जगह वो चीन की गोद में बैठने को आतुर दिखा है, जो अपने आप में अदम्य साहस दिखाने जैसा है।
यह भी स्पष्ट है कि इससे भारत को कोई खास नुकसान होने वाला नहीं है। हॉं यह जरुर होगा कि मालदीव कहीं का नहीं रह जाएगा। उसकी स्थिति आर्थिक व रक्षा रुपी समंदर में पतवार रुपी भारत को खो देने जैसी होगी। ऐसे में दुनियाभर के थपेड़ों को सहना मालदीव रुपी नाव के वश की बात नहीं होगी। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि मालदीव की अर्थव्यवस्था में भारत का बड़ा योगदान है। अनेक क्षेत्रों में तो वह पूरी तरह से भारत पर निर्भर है। इस समय चूंकि मालदीव में चीन समर्थित सरकार है अत: भारत के साथ उसके रिश्तों में तनाव आना लाजमी है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अपने ही हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली जाए। मालदीव सरकार को समझना होगा कि मालदीव की इकोनॉमी पर्यटन पर ही टिकी है। मालदीव की जीडीपी का करीब 28फीसदी हिस्सा पर्यटन का है और फॉरेन एक्सचेंज में भी करीब 60 फीसदी योगदान टूरिज्म सेक्टर का होता है।
इस हालत में यदि भारत ने मालदीव से मुंह फेर लिया तो उसकी आर्थिक स्थिति डगमगा जाएगी और भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा। यही नहीं सुरक्षा की दृष्टि से भी उसे अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। अभी एक किले की तरह खड़ा मालदीव भारत रुपी मजबूत दीवार को भी खो देगा और उस पर नई मुसीबतें आयद हो जाएंगी। यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तीन दशक पहले दोनों देशों के बीच हुए ट्रेड एग्रीमेंट के नतीजे में मालदीव और भारत के बीच पिछले वर्ष 500 मिलियन डॉलर से अधिक का कारोबार हुआ जो लगातार आगे बढ़ रहा है। इसके अलावा मालदीव के इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में भी भारत ने धन लगाया हुआ है। ऐसे तमाम पक्षों को सामने रखते हुए मालदीव को खुद चाहिए कि वह चीन के झांसे में आने की बजाय अपने सच्चे साथी भारत से संबंध सही रखे न कि नए-नए विवादों को जन्म देकर दूरियां बढ़ा ले।