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‘रामभक्त रंगबाज’: यह उपन्यास मौजूदा ‘क्रोनोलॉजी’ समझने के लिए महत्वपूर्ण

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मनीष आजाद

‘पाजामे की लंबाई इकतालीस करूं या साढ़े इकतालीस ?’

‘कुछ भी कर दो. आधे इंच से क्या फर्क पड़ता है.

‘फर्क पड़ता है. आधे इंच से आदमी हिन्दू से मुसलमान हो सकता है.’

राकेश कायस्थ का चर्चित उपन्यास ‘रामभक्त रंगबाज’ इसी ‘फर्क’ की कहानी कहता है, जो 1990 के बाद दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहा है.

भारत के अलसाये समाज को कमंडल-भूमंडल ने 90 के दशक में जो 440 बोल्ट का करंट दिया है, उसने पहले के हर छोटे फर्क को बढ़ाकर खाई में बदल दिया है और फिर हर कोई यह कहने को मजबूर है कि ‘फर्क साफ है.’

इस उपन्यास में 1990 के एक अलसाये मोहल्ले ‘आरामगंज’ की कहानी है जो आपको जरूर सईद मिर्जा-कुंदन शाह की 1986-87 में दूरदर्शन पर आए धारावाहिक ‘नुक्कड़’ की याद दिला देगा.

‘नुक्कड़’ बनाते हुए सईद मिर्जा-कुंदन शाह ने यह कभी नहीं सोचा होगा कि अगले ही दशक में नुक्कड़ के पात्र ‘गुरु’ और ‘कादर’ एक दूसरे से दूर हो जाने वाले हैं. राम और रहीम के बीच ऐसी चौड़ी खाई होने वाली है, जिसे पाटना बेहद मुश्किल होगा.

इसी तरह इस अलसाये ‘आरामगंज’ को भी यह पता नहीं चला कि कब कमंडल-भूमंडल नामक दो जहरीले सापों ने उनके यहां डेरा डाल लिया है. उन्हें यह भी पता नहीं था कि इनका डंसा पानी भी नहीं मांगेगा.

‘आरामगंज’ का मुख्य नायक टेलर शेख निजामुद्दीन वली उर्फ ‘आशिक’ हिन्दू मोहल्ले में सबका आशिक है. बचपन में एक पंडित जी के यहां पढ़ाई करने के कारण उसे रामचरित मानस से कई दोहे याद हैं. हिन्दू रीत-रिवाज भी अच्छी तरह समझता है और मोहल्ले की दीवाली-दशहरा उसके बिना संभव नहीं. इतनी कलाओं में माहिर कि लोग उसे ‘रंगबाज’ बुलाते हैं.

यहां हिन्दू-मुस्लिम का फर्क तो है लेकिन इस फर्क को चौड़ा करने वाली राजनीति अभी कमजोर है. लेकिन तभी आडवाणी की रथयात्रा का एलान होता है और चीजे इतनी तेजी से बदलती हैं कि ‘आशिक’ के अपने ‘रैयत टोला’ का नया नामकरण ‘मिनी पाकिस्तान’ हो जाता है.

‘आशिक’ हिंदुओं के लिए इसी ‘मिनी पाकिस्तान’ का रहने वाला मुल्ला बन जाता है और रैयत टोली में रहने वाले मुस्लिमों के लिए ‘आशिक’ हिंदुओं के बीच रहने वाला गद्दार हो जाता है. ‘आशिक’ सोचता है कि आखिर उसकी सही पहचान क्या है !

बदल रहे इस जहरीले माहौल का शिकार एक मंदबुद्धि युवक बैजू इस बढ़ते फर्क को अंजाम तक पहुंचा देता है. ‘आशिक’ जल कर दम तोड़ देता है.

‘आशिक’ की दरियादिली को देखकर बुजुर्ग हिन्दू कहते कि उसमें ईश्वर का वास है. लेखक का मासूम सवाल है कि ‘आशिक’ के इस तरह जलने से क्या ईश्वर भी जल गया होगा ?

किताब में इस सच को भी बहुत रोचक और तीखे तरीके से उठाया गया है कि मंडल कमीशन लागू होने पर सवर्ण जातियों में किस तरह की बेचैनी थी. कमंडल का आंदोलन मंडल को कमंडल में घुसाने का भी आंदोलन था.

बहरहाल जब ‘आशिक’ का बेटा शमी बड़ा हुआ तो माहौल और खराब हो चुका था. ‘सीएए-एनआरसी’ आ चुका था. शमी का सवाल है कि घर से बेघर होकर तो हम एक नया घर बना सकते हैं, लेकिन अगर मुल्क से ही बेघर हो गए तो क्या करेंगे ?

बचपन मे एक बार शमी ने अपने अब्बू से सवाल किया था कि ‘अली’ ज्यादा ताकतवर हैं या ‘बजरंगबली’ ? अब्बू ने थोड़ा सोचकर जवाब दिया कि ‘दोनों से ही ज्यादा ताकतवर ‘स्पाइडरमैन’ है.’

अब्बू यह देखने के लिए जिंदा नहीं रहे कि आज ‘बजरंगबली’ की दोस्ती ‘स्पाइडरमैन’ से हो गयी है. और ‘अली’ बेहद अकेले पड़ गये हैं.

पुस्तक के अंत में शमी अपने ब्लॉग में लिखता है- ‘राम मंदिर दो ढांचों को गिराकर बनाया जा रहा है. पहला ढांचा अयोध्या में था और दूसरा दिल्ली में. पहला ढांचा मैंने कभी देखा नहीं, उससे मेरा कोई भावनात्मक लगाव भी नहीं लेकिन दूसरे ढांचे पर मेरा वजूद टिका था. वह मेरे हिफाज़त की गारंटी था. जब वही धराशायी हो गया तो फिर मुझ जैसों के लिए बचा क्या ?’

‘वाल्टर बेंजामिन’ ने कहीं लिखा है कि राजनीति का सौंदर्यीकरण फासीवाद है. यह पुस्तक राजनीति के इस सौंदर्यीकरण को तार तार करते हुए, इसके असल बदसूरत चेहरे को सामने लाने का प्रयास करती है.

‘हिन्द युग्म’ से छपा यह उपन्यास मौजूदा दौर की ‘क्रोनोलॉजी’ समझने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है.

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