अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

यू-टर्न लेने के मास्टर एचडी कुमारस्वामी

Share

स्वाति कृष्णा

ऐसा जान पड़ता है कि हर कुछ साल के बाद कुमारस्वामी का दिमाग यू टर्न लेने लगता है, खासकर जब चुनाव का मौसम आसपास हो। जिसके चलते उनके नाम के साथ किंगमेकर का अपयश जुड़ा हुआ है।

पिछले माह की बात है जब जनता दल (सेक्युलर) (जेडी(एस)) अध्यक्ष एच.डी. कुमारस्वामी मैंगलोर स्थित एक स्कूल कार्यक्रम में हिस्सा लेने पधारे थे। यह कोई सामान्य स्कूली कार्यक्रम नहीं था। इस स्कूल को श्री राम विद्या केंद्र ट्रस्ट द्वारा संचालित किया जाता है, जिसके प्रबंधक आरएसएस पदाधिकारी कल्लडका प्रभाकर भट्ट हैं, एक अफवाहबाज जो अपने सांप्रदायिक रूप से उत्तेजित बयानों के लिए कुख्यात हैं।

यह वही स्कूल है जो दिसंबर 2019 में उस समय भी सुर्ख़ियों में छाया था, जब इसके छात्रों को बाबरी मस्जिद विध्वंस को एक बार फिर से मंचन के लिए तैयार किया गया था। स्कूल कार्यक्रम के दौरान कुमारस्वामी ने अपने भाषण में भट्ट की जमकर प्रशंसा करते हुए छात्रों को मूल्य आधारित शिक्षा प्रदान करने एवं उनमें जातीय संस्कृति, परंपरा और विरासत के मूल्यों को विकसित करने के प्रयासों की तारीफ़ की।

इतना ही नहीं पूर्व में भट्ट को लेकर अपने आलोचनात्मक रुख पर दुःख जताते हुए कुमारस्वामी ने अपने भाषण का अंत “जय श्री राम” से किया। उन्होंने कहा, “मैं अतीत में की गई आलोचना के लिए गहरा खेद व्यक्त करता हूं, जो कुछ लोगों के द्वारा मुझे गुमराह करने के इरादे से कही गई बातों पर आधारित थी। आज की इस यात्रा ने मेरी धारणा को बदल डाला है।”

यू-टर्न लेने के मास्टर

कुमारस्वामी के लिए हृदय परिवर्तन की यह घटना कोई नई बात नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि हर कुछ साल बाद, विशेषकर जब चुनावी मौसम आने को होता है, वे एक बार फिर यू-टर्न लेते हैं।  

फरवरी 2023 में मीडिया के साथ बातचीत के दौरान कुमारस्वामी ने आरएसएस पर यह कहकर हमला बोलकर हंगामा खड़ा कर दिया था, कि “आरएसएस प्रहलाद जोशी को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाना चाहता है, जिनका कर्नाटक की संस्कृति से कोई ताल्लुक नहीं है।” इसके साथ ही उन्होंने दावा कर दिया कि जोशी असल में पेशवा समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो “षड्यंत्र की राजनीति” में लिप्त थे और “देशभक्ति के नाम पर इन्होंने देश के लिए योगदान देने वालों का नरसंहार” किया था।

तब कुमारस्वामी ने सभी समुदायों से भाजपा और आरएसएस के षड्यंत्र के जाल में न फंसने की अपील करते हुए उन्हें देश का विभाजनकारी बतलाया था। पूर्व में दिए गये एक अन्य इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि कर्नाटक और देश इस समय आरएसएस की जकड़ में है और उन्होंने आरएसएस की कार्यप्रणाली का गहरा अध्ययन किया है। इसके साथ ही उनका कहना था कि वे दिनेश नारायणन की पुस्तक द आरएसएस: एंड द मेकिंग ऑफ़ द डीप नेशन  पढ़ रहे हैं। 

तब भी कई लोगों ने उन्हें भाजपा की ‘बी टीम’ करार देते हुए हमला किया था और कहा था कि उनके बयानों का असली मकसद आगामी उप-चुनावों में मुस्लिम मतों में विभाजन से अधिक नहीं है।

2023 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों के लिए, जेडी (एस) द्वारा 22 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे गये थे। इस चुनाव में मुस्लिमों के लिए 4% आरक्षण को बहाल करने की शपथ भी खाई गई थी, जिसे बसवराज बोम्मई सरकार द्वारा रद्द कर दिया गया था। लेकिन अब ऐसा लगता है कि मुस्लिम मतदाताओं ने कुमारस्वामी के “धर्मनिरपेक्ष” आवरण को भांप लिया था, और एकतरफा कांग्रेस के पक्ष में वोट किया था।

यही वजह थी कि पार्टी के सभी 22 उम्मीदवार चुनाव हार गये और कईयों की तो जमानत तक जब्त हो गई थी। इस प्रकार चुनावों में जेडी (एस) का सूपड़ा साफ़ हो गया। यह तब हुआ जबकि ओल्ड मैसूर क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय के बीच में उनके पास अच्छा-खासा जनाधार मौजूद था। 

इस क्षेत्र के सात जिलों की 61 सीटों में से 41 पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई। कांग्रेस की यह जीत जेडी(एस) की कीमत पर हासिल की गई थी, जिसमें डी के शिवकुमार वोक्कालिगा समुदाय के नए धाकड़ नेता के रूप में उभरकर सामने आये हैं। 

इस चुनाव में जेडी (एस)  की कृपा से वोक्कालिगा बेल्ट में भाजपा के लिए भी रास्ता साफ हो गया है। द टाइम्स ऑफ़ इंडिया की सूचना के मुताबिक, क्षेत्र की 61 सीटों पर पड़े एक करोड़ से अधिक वोटों में से भाजपा को 24,60,429 वोट हासिल हुए, जो जेडी (एस) के 30,35,584 वोटों की तुलना में मात्र छह लाख कम है।

पार्टी के इस खस्ताहाल प्रदर्शन ने न सिर्फ कुमारस्वामी के नेतृत्व पर सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं, वरन जेडी(एस) के अस्तित्व ही सवालों के घेरे में है। 

अस्तित्व को लेकर प्रश्न 

पार्टी की हार का ठीकरा कुमारस्वामी ने मुसलमानों पर फोड़ा है, और चार महीने के भीतर उन्होंने 2024 के चुनावों के लिए भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया है। उन्होंने कर्नाटक में एक और “ऑपरेशन लोटस” की संभावना के भी संकेत दिए हैं।  

भाजपा के साथ गठबंधन के फैसले पर दो मुस्लिम नेताओं ने पार्टी से किनारा कर लिया है। जेडी(एस) के राज्य उपाध्यक्ष शफीउल्ला ने कहा है कि पार्टी धर्मनिरपेक्षता के उसूलों पर कायम रही है जबकि भाजपा हमेशा, “सांप्रदायिक एजेंडे को बढ़ावा देने, प्रचारित और अमल पर कार्य करती आई है।”

अपनी विशिष्ट क्षुद्र शैली का परिचय देते हुए कुमारस्वामी ने पार्टी में मुस्लिम नेताओं के योगदान पर सवाल उठाया है। ऐसा कहा जा रहा है कि एच.डी. कुमारस्वामी के पिता एवं पार्टी के पूर्व प्रमुख देवेगौड़ा का मानना ​​है कि भाजपा के पीछे अगर अपने मूल समर्थन आधार को एकजुट किया जाये तो जेडी (एस) एक बार फिर से चुनावी आधार को हासिल करने में कामयाब हो सकती है।

लेकिन बड़ा खतरा यह बना हुआ है कि कहीं इससे उसके अपने ही गढ़ में भाजपा मजबूती तो नहीं हासिल करने जा रही है? यह भी कहा जा सकता है कि जेडी(एस) के समर्थन से अब भाजपा 2024 में मैसूर बेल्ट में अपने पैर जमाने के दिवा-स्वप्न को हासिल करने के करीब पहुंच गई है।

कुमारस्वामी के हर बार नया रुख लेने को राजनीतिक हलकों में पहले से स्वीकार्यता प्राप्त है और कर्नाटक में हर बार चुनाव के दौरान उन्हें व्यंजनापूर्ण अर्थों में “किंगमेकर” के तौर पर पुकारा जाता है। 2023 के विधानसभा चुनाव के दौरान जब उनसे यह सवाल किया गया कि खंडित जनादेश की स्थिति में क्या वे चुनाव के बाद किंगमेकर साबित होंगे, तब छूटते ही उनका जवाब था कि वे किंगमेकर नहीं किंग होंगे। 

धर्मनिरपेक्ष किंगमेकर से (भगवा) मोहरा बनने का सफर 

ऐसा नहीं है कि कुमारस्वामी अचानक से नव-धर्मांतरित होकर आज हिंदुत्व के मुद्दे पर तेजी से दौड़ लगा रहे हैं। इससे पूर्व में भी कुमारस्वामी के नेतृत्व में जेडी(एस) ने भाजपा के साथ गठबंधन बनाया था। 1999 में जनता दल से अलग गुट के रूप में अपनी स्थापना के बाद से अबतक जेडी(एस) दो बार भाजपा के साथ सरकार बना चुकी है। दक्षिणी कर्नाटक में वोक्कालिगा बेल्ट से अपनी ताकत जुटाकर जेडी(एस) 2004 से ही अपनी किंगमेकर की भूमिका अदा करती चली आ रही है।

2004 के चुनाव में जेडी(एस) ने चुनाव बाद बने गठबंधन में कांग्रेस को अपना समर्थन दिया, जिसके परिणामस्वरूप धरम सिंह कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। हालांकि इसके 21 महीनों के भीतर ही जेडी(एस) ने अपना समर्थन वापस ले लिया था और धरम सिंह सरकार गिर गई थी।

कुमारस्वामी ने अपना समर्थन भाजपा देकर बी.एस. येदुरप्पा के साथ सत्ता में साझेदारी के तहत कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद को हासिल करने में सफलता प्राप्त की थी। इस समझौते के अनुसार पहले 20 महीनों तक कुमारस्वामी के हिस्से में मुख्यमंत्री की गद्दी रहनी थी, और उसके बाद येदियुरप्पा शेष 20 महीनों के लिए मुख्यमंत्री होने थे। इस प्रकार कुमारस्वामी की सरकार में येदियुरप्पा उप-मुख्यमंत्री पद के साथ-साथ वित्त मंत्री का पद भी संभाल रहे थे।

हालांकि 20 महीने बाद जब कुमारस्वामी के सामने मुख्यमंत्री पद छोड़ने की बारी आई तो उन्होंने इस्तीफ़ा देने से इंकार कर दिया, जिसका देवगौड़ा एवं जेडी(एस) ने भी समर्थन किया। लेकिन कुछ दिनों के अंतराल के बाद उन्होंने त्यागपत्र दिया, और 12 नवंबर, 2007 को येदुरप्पा मुख्यमंत्री बने। 

लेकिन कुमारस्वामी ने एक बार फिर से अपना समर्थन वापस ले लिया, और इस प्रकार सरकार बनने के एक सप्ताह के भीतर ही येदुरप्पा सरकार का पतन हो गया। यह पहली बार था जब कर्नाटक में भाजपा सरकार बनाने के इतने करीब आई थी। 

निर्धारित समय से पहले ही 2008 में राज्य में चुनाव कराने पड़े और येदुरप्पा के हाथ से मुख्यमंत्री पद छीने जाने की सहानुभूति लहर पर सवार होकर भाजपा को पहली बार राज्य में बड़ी कामयाबी हासिल हुई, और येदुरप्पा एक ताकतवर लिंगायत नेता के तौर पर मुख्यमंत्री बनकर उभरे। येदुरप्पा के नेतृत्व के तहत भाजपा के लिए यह एक ऐतिहासिक जीत थी, और पार्टी के लिए दक्षिण भारत में अपने दम पर प्रवेश करने का रास्ता खुल गया था।  

कुछ इसी प्रकार के हालात राज्य में 2018 के विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिले जब किसी भी पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। चुनाव के बाद कांग्रेस और जेडी(एस) ने आपस में गठबंधन बनाकर बहुमत हासिल किया, और इस प्रकार कुमारस्वामी ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

लेकिन एक वर्ष बाद ही उनकी सरकार अपना बहुमत तब खो बैठी, जब कांग्रेस के 13 विधायकों एवं जेडी(एस) के तीन विधायकों ने “ऑपरेशन लोटस” के तहत त्यागपत्र दे दिया था। इसके बाद येदुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा सरकार का रास्ता साफ़ हुआ। 

जनता पार्टी का अवसान: वैकल्पिक राजनीति से आज अस्तित्व को लेकर सवाल 

2006 में जब कुमारस्वामी ने पहली बार भाजपा के साथ मिलकर सरकार का गठन किया था तो उस दौरान मशहूर कन्नड़ लेखक डॉ. यू.आर. अनंतमूर्ति ने जेडी(एस) की धर्मनिरपेक्ष साख पर सवाल खड़े किये थे। तब कुमारस्वामी की ओर से पलटकर सवाल किया गया था कि कौन डॉ. अनंतमूर्ति और धर्मनिरपेक्षता के मायने क्या हैं, जो काफी प्रसिद्ध हुआ था।

धर्मनिरपेक्षता को लेकर ऐसा ढीला-ढाला रवैया कुमारस्वामी के लिए कोई अनोखी बात नहीं है। असल में जनता पार्टी के साथ सम्बद्ध दलों की यही विशेषता रही है। जनता पार्टी के गठन के पीछे 1977 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का विरोध था, जिसमें इसके महत्वपूर्ण घटकों में से एक जनसंघ (जिसे बाद में भाजपा के रूप में गठित किया गया) भी था।

जनता पार्टी सात राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में अपनी सरकार बनाने में सफल रही। लेकिन समय के साथ कुछ वर्षों के भीतर ही अवसरवादिता, पंगु धर्मनिरपेक्ष बयानबाजी, परिवार-केंद्रित राजनीति के साथ-साथ कुछ खास जाति समूहों पर गैर-जरूरी निर्भरता के चलते पार्टी जिस “वैकल्पिक राजनीति” के प्रतीक के साथ उभरी थी, अपनी धीमी मौत की ओर बढ़ती ही चली गई।

इसके कई घटक दलों और उसके नेताओं द्वारा बाद के वर्षों में गठबंधन सरकार बनाने के लिए भाजपा के साथ गठबंधन किया गया, जो साफ़ बताता है कि उन्हें भाजपा की सांप्रदायिक बयानबाजी से कभी कोई समस्या नहीं थी। ऐसी राजनीति के राम विलास पासवान एक प्रमुख उदाहरण रहे हैं। सत्ता या मंत्री पद पर बने रहने के लिए एक गठबंधन से दूसरे गठबंधन में लगातार पाला बदलने के लिए विख्यात पासवान को भारतीय राजनीति के मौसम विज्ञानी के तौर पर संदर्भित किया जाता रहा है।

इसी प्रकार जद(यू) के नीतीश कुमार एक अन्य उदाहरण हैं, जिनका बिहार में मुसलमानों के बीच में मजबूत आधार रहा है, और पिछले दो दशकों से राज्य की सत्ता पर भाजपा की मदद से काबिज रहे हैं। लेकिन इस दौरान धीरे-धीरे राज्य भाजपा के चंगुल में आता चला गया है, और आज नीतीश कुमार, भाजपा संचालित ईडी और सीबीआई छापों के दबाव का अनुभव कर रहे हैं।

यह एक और सबक की तरह हमारे सामने है कि इस प्रकार की राजनीति कर कोई सत्ता पर काबिज तो हो सकता है, लेकिन उसके पास अपना कोई वजूद नहीं रहने वाला है। इस तरह के गठबंधन सिर्फ क्षेत्रीय पार्टियों की ताकत को ही कमजोर करते हैं, जो भाजपा की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाला साबित होता है।

भाजपा कई क्षेत्रीय पार्टियों को ईडी के छापों या नपुंसक गठबंधनों के माध्यम से मृत्यु-शैय्या पर लाने में कामयाब रही है। अप्रभावी क्षेत्रीय दल या तीसरे गुट की अवधारणा भाजपा के दो-दलीय प्रणाली वाले आईडिया को ही मदद करने जा रही है, जिसका अंततः उसे लाभ पहुंचेगा।

इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि आपातकाल के दौरान अधिनायकवाद की मुखालफत के लिए गठित जनता परिवार के वे सदस्य, आज सत्ता की खातिर फासीवादी ताकतों के साथ हमबिस्तर होने में खुश हैं। सहायक भूमिका निभाने से शुरू होकर आज अपने अस्तित्व के लिए जूझते किंगमेकर को अंततः इसी मुकाम पर पहुंचना था।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें