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आम प्रचलन के रूप में अपना प्रभाव जमाता नज़र आ रहा‘कर्ज़’

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दीपिका अरोड़ा

‘कर्ज़’, जिसे पुरातन समय में विवशता से जोड़ा जाता था, आधुनिक युग में एक आम प्रचलन के रूप में अपना प्रभाव जमाता नज़र आ रहा है। आवास-ऋण, शिक्षा-ऋण, व्यवसाय के लिए ऋण; सर्च का बटन दबाते ही लोन लेने के ढेरों विकल्प हमारे सम्मुख उपस्थित हो जाएंगे।

आजीविका चलाने अथवा मूलभूत सुविधाएं जुटाने हेतु कर्ज़ लेना जहां एक निर्धन व्यक्ति की मजबूरी है, वहीं ऐश्वर्यशाली जीवन जीने की आकांक्षा पालने वाले सामान्य लोगों के लिए तयशुदा किस्त भुगतान के ज़रिए साधन सम्पन्न बनने का पर्याय भी बन चुका है। समय की मांग कहें अथवा उधारी का घी पीने का लोभ, ऋण-सुविधा ने हमारी ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ वाली जीवनशैली को काफी हद तक बदलकर रख दिया है। एसबीआई की सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक़, वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान परिवारों पर कर्ज़ का बोझ दोगुना से भी अधिक होकर 15.6 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया। रिपोर्ट के अनुसार, घरेलू बचत से निकासी का एक बड़ा हिस्सा भौतिक संपत्तियों में चला गया तथा 2022-23 में इन पर कर्ज़ भी 8.2 लाख करोड़ रुपये बढ़ गया। इनमें से 7.1 लाख करोड़ रुपये आवास ऋण एवं खुदरा कर्ज के रूप में बैंकों से लिया गया। परिवारों की घरेलू बचत क़रीब 55 प्रतिशत गिरकर सकल घरेलू उत्पाद के 5.1 प्रतिशत पर सिमट गई, जो कि पिछले पांच दशक में सबसे कम है। पिछले दो वर्षों में परिवारों को दिए गए खुदरा ऋण का 55 प्रतिशत होम लोन, शिक्षा व वाहन पर ख़र्च किया गया। परिवारों का बचत स्तर गिरना चिंताजनक है चूंकि सामान्य सरकारी वित्त तथा ग़ैर-वित्तीय कंपनियों के लिए कोष जुटाने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ज़रिया घरेलू बचत ही है।

भारत के 33 फ़ीसदी से अधिक राज्यों तथा विधायिका वाले केंद्रशासित प्रदेशों ने वर्ष 2023-24 के अंत तक, अपने कर्ज़ों को उनके जीएसडीपी के 35 फ़ीसदी को पार करने का अनुमान लगाया है। देश के 12 राज्य कर्ज़ लेने में अव्वल माने गए। अधिक ऋण बोझ संसाधनों के लिए प्रतिकूलता लेकर आता है। राजस्व का एक बड़ा अंश कर्ज़ चुकता करने में चले जाने के कारण राज्य में अपेक्षित विकास कार्य अधूरे छूट जाते हैं, देश के सम्पूर्ण विकास में योगदान देना तो दूर की बात है। राज्यों के मध्य आर्थिक असमानता बढ़ने से राष्ट्र का समग्र विकास प्रभावित होता है।

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भारत को बढ़ते संप्रभु कर्ज़ (केंद्र व राज्य सरकारों का कुल कर्ज़ भार) के प्रति सचेत करते हुए, इससे दीर्घकालिक कर्ज़ ज़ोख़िम बढ़ने की आशंका व्यक्त की। ग़ौरतलब है, मार्च, 2023 में 200 लाख करोड़ रुपये की कर्ज़राशि वर्तमान में बढ़कर 205 लाख करोड़ रुपये तक जा पहुंची। आईएमएफ के अनुसार, भारत सरकार इसी रफ्तार से उधार लेती रही तो देश पर सकल घरेलू उत्पाद का 100 प्रतिशत कर्ज़ हो सकता है। हालांकि, भारत सरकार ने आईएमएफ के विश्लेषणात्मक अनुमानों पर तथ्यात्मक रूप से असहमति प्रकट हुए अधिकतर कर्ज़ भारतीय रुपये में होने के कारण 2002 के कर्ज़ स्तर की अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन करने की बात कही।

मुद्राकोष की रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया जताते हुए भले ही भारत सरकार यह कहना है कि अमेरिका तथा ब्रिटेन जैसे देशों में जीडीपी के अनुपात में तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक कर्ज़ भार है किंतु यहां सामाजिक सुरक्षा से संबद्ध उनके उत्तरदायित्व जांचना भी आवश्यक है। अधिकतर विकसित देशों की औसत आयु भारत से अधिक है। इन देशों में सभी बुज़ुर्ग नागरिकों को पेंशन मिलने के साथ मुफ़्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं, जबकि भारत सामाजिक सुरक्षा भुगतान की स्थिति में कहीं पीछे है।

नि:संदेह, कर्ज़ का बड़ा हिस्सा घरेलू मुद्रा में होना तथा भारत का कार्यबल युवा होना राष्ट्र के पक्ष में दो सकारात्मक बिंदु हैं किंतु अपनी देनदारियों को लेकर हमें चिंतित तो होना ही चाहिए क्योंकि वार्षिक ख़र्च के हिस्से में ब्याज भुगतान बहुत अधिक है।

‘मर्ज़ बढ़ता ही गया, दवा ज्यों-ज्यों की’, कर्ज़ का बोझ हद से बढ़ जाए तो गले की फांस बन जाता है। कर्ज़ के बोझ तले दबी बड़ी-बड़ी कंपनियों को भी ताश के पत्तों की भांति धराशायी होते देखा गया। कितने ही रईस देनदारों को ऋण अदायगी ने सड़क पर ला पटका, कितनों को मुंह छिपाकर भागना पड़ा, ऋणभार वहन न कर सकने के कारण कुछ राष्ट्र तक दिवालियापन के कग़ार पर जा पहुंचे।

कर्ज़ के इस दुश्चक्र से बचने-बचाने का एकमात्र उपाय है, मानवीय पूंजी एवं प्राकृतिक संसाधनों के प्रत्येक अंश का सदुपयोग किया जाए। रोज़गार के पर्याप्त अवसर न केवल नागरिकों को उद्यमी एवं आत्मनिर्भर बनाते हैं अपितु राष्ट्रीय विकास में सम्पूर्ण योगदान देते हुए कर्ज़भार से विमुक्त करने में भी सहायी बनते हैं। जीडीपी वृद्धि अच्छी होने के नाते यही उपयुक्त समय है, जब देश के कर्ज़ की स्थिति बेहतर करने संबंधी उपायों पर ध्यान दिया जाए। वोटबैंक पुख्ता करने के लिए नागरिकों को मुफ्तख़ोरी की ओर धकेलने की अपेक्षा गुणवत्तापूर्वक सेवाओं पर विचार किया जाना चाहिए। कर्ज़ लेने की विवशताएं ही न रहें तो मर्ज़ का इलाज ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाएगा।

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