तलोजा जेल से आनंद तेलतुंबड़े
सार्वजनिक सेक्टर के उद्यमों का निजीकरण करने की मोदी सरकार की योजना पर जारी बहस से कुछ हद तक पुरानी बहसों की याद आती है. सरकार के समर्थन में निजीकरण की पैरवी करने वाले लोग दलील दे रहे हैं कि निजीकरण हमेशा ही सार्वजनिक सेक्टर के लिए कारगर रहा है. वे नहीं जानते लेकिन इस दलील का तार्किक विस्तार करें तो यह बेतुका लेकिन जायज सवाल भी किया जा सकता है कि तब खुद सरकार का ही निजीकरण क्यों नहीं होना चाहिए.
पैरवी करने वाले अपनी बात की मिसाल के लिए रूप में कहते हैं कि निजी सेक्टर के रास्ते को अपनाने वाला अमेरिका वैश्विक आर्थिक शक्ति बन गया, जबकि सार्वजनिक सेक्टर को तरजीह देने वाला ब्रिटेन 1980 के दशक के आखिर तक दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया था. वे बड़े आराम से भूल जाते हैं कि 1929 में महामंदी के चलते मौत के कगार पर पहुंच चुके पूंजीवाद (यानी निजी पूंजीवाद) को कीन्स के सार्वजनिक निवेश के नुस्खे ने ही बचाया था. मुख्यत: इसी नुस्खे के चलते दुनिया भर में सार्वजनिक सेक्टर ने जन्म लिया और फैला, जिसे 1980 के दशक के नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों ने बदनाम कर दिया.
इसी तरह यह एक तथ्य है कि पब्लिक सेक्टर की प्रधान भूमिका वाले नेहरुवादी समाजवाद (भारतीय किस्म के) की मिश्रित अर्थव्यवस्था के बाद, और इसके चलते फले-फूले लाइसेंस राज के बाद, 1980 के दशक में भारत का उदारीकरण शुरू हुआ और निजी सेक्टर आसानी से बढ़ कर पब्लिक सेक्टर से आगे निकल गया. लेकिन इतिहास को इस सपाट तरह से देखते हुए भी, यह याद रखने की जरूरत है कि बुनियादी उद्योगों में भारी सार्वजनिक निवेश का प्रस्ताव उतना नेहरू का नहीं था, जितना बॉम्बे योजना का था, जिसे देश के आठ अग्रणी पूंजीपतियों ने तैयार किया था. राजनीतिक रूप से इस योजना पर अमल करते हुए तब की सरकार को अपनी समाजवादी बयानबाजी में मदद ही मिली थी. जब हम इसके बारे में पढ़ते हैं कि किस तरह अपने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का निजीकरण करने के बाद रूस और चीन की अर्थव्यवस्थाएं उड़ान भर रही हैं, तो यह भी याद रखने की जरूरत है कि उनके निजीकरण की सफलता की वजह वह बुनियादी ढांचा है जिसे उनके सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों ने खड़ा किया है. इसलिए बिना विश्लेषण के ऐतिहासिक आंकड़ों को इस सतही तौर पर पेश करके दलील तो जीती जा सकती है लेकिन इन ऐतिहासिक आंकड़ों के सही मायनों को समझने में इससे कोई मदद नहीं मिलेगी.
एक सूत्र के रूप में यह कहा जा सकता है कि अगर उद्यमों को हर किस्म के नियमन और नियंत्रण से आजाद छोड़ दिया जाए तो पक्के तौर पर वे उन उद्यमों से अधिक कारगर होंगे जिनके सामने ऐसी सीमाएं होती हैं. सार्वजनिक सेक्टर की तुलना में निजी सेक्टर में जो सक्षमता दिखाई देती है उसे इस सूत्र से समझा जा सकता है. लेकिन जैसा दिखाई देता है, वैसा असलियत में होना जरूरी नहीं है. जब निजी सेक्टर की श्रेष्ठता को दिखाने के लिए उनके प्रदर्शन संबंधी चुने हुए आंकड़े पेश किए जाते हैं, तो फिर विभिन्न करों और गैर करों में उन रियायतों को भी हिसाब में लेना जरूरी है जो निजी सेक्टर को मुहैया कराए जाते हैं. इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के डूबे हुए भारी कर्जों (एनपीए) को भी देखना चाहिए, जिसकी मुख्य वजह ऐसी रियायतें हैं.
1995 में तेल उद्योग के विनियमन के लिए एक अध्ययन समूह के एक सदस्य के रूप में मैंने तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) के दीर्घकालिक तुलनात्मक प्रदर्शन का अध्ययन किया था, जो वैश्विक तेल कंपनियों के बरअक्स सार्वजनिक सेक्टर का एक महत्वपूर्ण उद्यम है और अपने अध्ययन में मैंने प्रदर्शन में कोई खास फर्क नहीं पाया था, जिससे सरकार असहज हुई थी. फिर, उदारवाद लागू होने के बाद के उन्माद के तौर में जब सरकार ने संपन्न सार्वजनिक उद्यमों के बोर्ड को अधिक सत्ता दे दी, तेल कंपनियों ने सार्वजनिक क्षेत्र में निजी साझीदारों के साथ आनन-फानन में दर्जनों संयुक्त उद्यमों की स्थापना की (जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम की हिस्सेदारी 50 फीसदी तक सीमित थी). कुछ वर्षों के भीतर, कुछेक को छोड़ कर ये सभी संयुक्त उद्यम भारी कर्जों में डूब कर खत्म हो गए. इसलिए इस बात को साबित करने के लिए कोई अकाट्य सबूत नहीं है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की तुलना में निजी उद्यम बुनियादी रूप से अधिक सक्षम होते हैं.
लेकिन सबसे अहम बात सक्षमता नहीं, बल्कि कारगरता है, जो इस पूरी बहस से ही साफ तौर पर गायब है. पारंपरिक बिजनेस मैनेजमेंट में भी सक्षमता की जब तारीफ की जाती है तो ऐसा इसके संयुक्त मापदंड कारगरता के बिना नहीं किया जाता. यह कारगरता इस बात का पैमाना है कि वह उद्यम अपने लक्ष्य/उद्देश्य को कितना पूरा कर पाता है. जो उद्यम छोटी अवधि में तो धन बनाता है लेकिन अपनी रणनीतिक दिशा से भटक जाता है वह अच्छा उद्यम नहीं है. इसी तरह, वह अर्थव्यवस्था अच्छी नहीं हो सकती जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लंबी छलांग लगाए लेकिन अपने नागरिकों को सेहत, शिक्षा और आजीविका की सुरक्षा जैसी बुनियादी स्वतंत्रता और साधन मुहैया कराने में नाकाम रह जाए.
मान लें कि अगर हम जीडीपी को बढ़ाने के लिए अर्थव्यवस्था को किसी प्रतिष्ठित कारपोरेट के हवाले कर दें तो मुझे यकीन है कि इससे जीडीपी ऐसे स्तर पर पहुंच जाएगी जो कल्पना से परे है. लेकिन क्या एक राष्ट्र के रूप में यह हमारे मकसद को पूरा कर सकेगा? अर्थव्यवस्था का मकसद संविधान में निहित नजरिए या विजन से अलग नहीं हो सकता, जिसे इसकी प्रस्तावना में, विभिन्न अनुच्छेदों और सबसे अहम रूप से राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में कहा गया है. इसका मकसद एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनानी है जिसमें इंसाफ (सामाजिक इंसाफ, आर्थिक इंसाफ और राजनीतिक इंसाफ) सभी संस्थानों की नीतियों, फैसलों और दिशाओं को तय करेगा; यह व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है जो स्वतंत्रता, बराबरी और मैत्री और न्याय पर आधारित है जैसा कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने बताया था.
जहां इस बात का कोई निर्णायक सबूत नहीं है कि निजी सेक्टर सार्वजनिक सेक्टर की तुलना में अधिक सक्षम है, वहीं इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में आर्थिक विकास के कारगरता के मापदंड पर यह कभी पूरा नहीं उतर सकता.
मूल अंग्रेजी से अनुवाद रेयाज़ुल हक़