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कांग्रेसी या हिन्दूधर्म विरोधी नहीं शंकराचार्य

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       पुष्पा गुप्ता 

647 ई• में अंतिम हिंदू सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात भारत सैकड़ों टुकड़ों में विभाजित हो चुका था और सारे छोटे छोटे हिन्दू राजा अपने प्रभुत्व के लिए आपस में मारकाट कर रहे थे।

     अगले 50-100 साल तक यह मारकाट मची रही , देश में केंद्रीय सरकार या एक केंद्रीय धर्म नाम की कोई चीज़ नहीं थी , और मौजूदा भारत सैकड़ों राज्य और हर राज्य के अपने अपने अलग अलग कुल देवी देवताओं में बंटा हुआ था।

एक हिंदू राजा जब दूसरे हिंदू राजा के राज्य पर आक्रमण करके पराजित करता तो विजय के प्रतीक के रूप में उस पराजित राज्य के कुल देवता के मंदिर को तोड़ता और उनकी मुर्तियों को तोड़कर नष्ट कर देता और वहां नये मंदिर का निर्माण करके अपने कुलदेवता की मुर्तियों को स्थापित करता।

यही उस राजा के विजय का प्रतीक था।

यह वह दौर था जब भारत में मुसलमान नहीं आए थे और तब इस भारत में हर तरीके से विभाजन हो रहा था , ना एककीकृत राष्ट्र था ना पूरे भारत में एकीकृत धर्म।

    भारत में यह ऐसा समय था जब बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार तेजी से बढ़ रहा था। लाखों सनातनी अपना मत बदलकर बुद्ध के मार्ग पर चलने लगे थे और ऐसे में एककीकृत सनातन संस्कृति पर संकट की ख़बरें नजर आने लगी थीं।

इसी दौर में केरल के कलड़ी गांव में सन 788 ई• में एक गरीब शिवगुरु के घर उनकी पत्नी आर्यांम्बा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिनका नाम इस दंपति ने “शंकर” रखा।

   सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार बाल शंकर मात्र 8 साल में ही चारों वेदों के ज्ञाता और प्रचंड विद्वान बन गये। जैसे जैसे शंकर बड़े हुए वह लोगों के बीच हिंदू धर्म को लेकर फैली भ्रांतियां मिटाई। 

    आज से करीब दो हजार वर्ष पूर्व वेदों के पंडितों ने लोगों के बीच हिंदू धर्म को लेकर गलत बातें फैलाई थी। उन्होंने वेद के मंत्रों का गलत अर्थ बताया, जिस वजह से हिंदू धर्म के लोग गलत प्रथा को अपनाने लगे। 

शंकर ने हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार किया। लोगों को हिंदू धर्म का ज्ञान दिया। शंकराचार्य ने मूर्तिपूजा को सिद्ध करने की कोशिश की। उन्होंने हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना करने के लिए विरोधी पंथ की बातों को भी सुना।

     इन्हें ही शिव के अवतार के रूप में माना गया और यह कहा जाता है कि सनातन धर्म के भगवान शिव ने शंकर के रूप में अवतार लिया और उन्हें आचार्य कहा जाने लगा कलांतर में वह “शंकर +आचार्य= शंकराचार्य कहलाए ,और इस तरह उन्हें “आदि शंकराचार्य” की उपाधि दी गई।

    आदि गुरु शंकराचार्य को एकजुट हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना करने का श्रेय दिया जाता है। शंकराचार्य ने अपने प्रवचनों से घूम घूम कर लोगों को हिंदू धर्म के मायने समझाए और समस्त भारत में हिंदू धर्म को एकरूप दिया।

भारत में हिंदू अथवा सनातन धर्म का मौजूदा स्वरूप आदि शंकराचार्य और उनके बनाए चारों पीठों के कारण ही हैं नहीं तो हर एक हिंदू दूसरे के कुल देवता को तोड़ फोड़ रहा होता।

    शंकराचार्य “धर्मसम्राट पद” है , शिव अवतार भगवान आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित सत्य सनातन धर्म के आधिकारिक मुखिया के लिये प्रयोग की जाने वाली उपाधि है। 

    मान्यता है कि शंकराचार्य हिन्दू धर्म में “सर्वोच्च धर्म गुरु” का पद है जो कि बौद्ध पंथ में दलाईलामा एवं ईसाई धर्म में पोप कि तरह है मगर सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार यह मानव निर्मित नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर अवतार द्वारा स्थापित है।

    इसके बाद आदि शंकराचार्य ने समस्त भारत में स्नातन‌ धर्म को एकजुट एकरूप में स्थापित करने के लिए 4 मठ यानी पीठों की स्थापना की।

इसका आधार यह था कि जिस तरह ब्रह्मा के चार मुख होते हैं और उनके हर मुख से एक वेद की उत्पत्ति हुई है उसी प्रकार चार पीठ की स्थापना करके उन्होंने चारों वेदों का प्रसार किया।

   अर्थात ब्रम्हा के पूर्व मुख से ऋग्वेद , दक्षिण से यजुर्वेद, पश्चिम से सामवेद और उत्तर वाले से अथर्ववेद की उत्पत्ति हुई उसी आधार पर आदि शंकराचार्य ने 4 वेदों और उनसे निकले अन्य शास्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए 4 मठ यानी पीठों की स्थापना की।

    ब्रम्हा के मुख की चारों दिशाओं के अनुरूप यह चारों पीठ एक-एक वेद से जुड़े हैं। ऋग्वेद से गोवर्धन पुरी मठ यानी जगन्नाथ पुरी, यजुर्वेद से श्रंगेरी जो कि रामेश्वरम् में है , सामवेद से शारदा मठ, जो कि द्वारिका में है और अथर्ववेद से ज्योतिर्मठ जुड़ा है। ये बद्रीनाथ में है। माना जाता है कि ये आखिरी मठ है और इसकी स्थापना के बाद ही आदि गुरु शंकराचार्य ने केदारनाथ में समाधि ले ली।

उसके बाद इन मठों पर उनके उत्तराधिकारी उनके प्रतिनिधि के तौर पर चुने जाने लगे जिसकी प्रक्रिया आदि शंकराचार्य ने द्वारा रचित ‘मठ मनाय’ ग्रंथ’ में है।  

   इस ग्रन्थ में 4 मठों की व्यवस्था में शंकराचार्य की उपाधि लेने के नियम, सिद्धांत और नियम के बारे में विस्तार से उल्लेख किया है। आदि शंकराचार्य द्वारा लिखित इस ग्रंथ को ‘महानु शासन’ भी कहा जाता है। 

   इसी के नियम अनुसार नए शंकराचार्य का चयन किया जाता है। शंकराचार्य की चयन प्रक्रिया से पहले आइए हम आपको बता दें मठ क्या है और इनका सनातन संस्कृति में क्या महत्व है। 

     समस्त हिंदू या सनातन धर्म वेद आधारित इन चारों मठों के दायरे में आता है विधान यह है कि हिंदुओं को इन्हीं मठों की परंपरा से आए किसी संत को अपना गुरु बनाना चाहिए , यही हिंदू धर्म के शास्त्रों के अनुसार किसी विधि विधान को परिभाषित करते हुए धार्मिक दिशानिर्देश जारी करते हैं।

अर्थात इन चारों शंकराचार्य में शास्त्रों के आधार पर जो परिभाषित कर दें वही सनातन या हिंदू धर्म है।

   मगर आज कहां कोई उन्हें मानता है , आज तो वह सरकार के गलत कामों को शास्त्रों के अनुसार गलत बताएं तो वह कांग्रेसी और हिन्दू धर्म विरोधी हो जाते हैं।

    वह मुग़ल काल का दौर और था जब उनके मत मठ और मंदिरों को सुरक्षित रखा गया , अब तो यह ज्यादा बोलेंगे तो “एक धक्का और दो” का नारा लग जाएगा।

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