अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

सनातनियों के मानबिन्दुओं के लिए मठाधीशों की भूमिका बनी जनचर्चा का विषय

Share

” आनंद मठ” की भूमिका से दूर हुए मठ-मठाधीश, स्वयम के वैभव में ही निमग्न, आमजन से दूरी_ 

 _*कैसे मठ? कौन मठाधीश? हमको क्या लेना देना। अभी तो हम ही “जगदीश” है। कुछ इसी भाव से देश का जनमानस रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के पुण्य प्रसङ्ग से जुड़ गया है। गांव, गली, शहर, कस्बे राममय हो गए हैं। बस्ती-मोहल्ले जगमग कर उठे हैं। मठ औऱ मठाधीशों के “किंतु परन्तु” पर देश का ध्यान ही नही। न “जगदीश” बने भक्तों ने इनके ‘बोलवचन” पर अब तक रत्तीभर भी कान धरे। मठ औऱ मठाधीशों की ये स्थिति क्यो औऱ कैसे हो गई? ये गहन अध्ययन का विषय हो सकता है लेकिन एक लाइन में इसका कारण ” आनंद मठ” परम्परा से मुक्ति हो सकता है। देशवासियों को सबसे ज्यादा हैरानी तो इस सबसे बड़े आध्यात्मिक समागम में मठ औऱ मठाधीशों के “अनमनेपन” से उपजी हैं। ये अनमनापन फिर चाहे मुहूर्त को लेकर हो या पूजन अर्चन विधि का। इसकी कल्पना बहुसंख्यक समाज ने कतई नही की थी। शायद इसी कारण देश ने इन मठ और मठाधीशों को एक तरफ कर उत्सव में डूबना ही मुनासिब समझा।*_ 

 *नितिनमोहन शर्मा

ये सोलह आने सच है कि सनातन धर्म के सभी अखाड़ों ने ही मिलकर रामजन्मभूमि की लड़ाई अनवरत लड़ी। अयोध्या में अलग अलग अखाड़ों की बनी “छावनी” इस बात का सबूत है कि अवधपुरी में संघर्ष की एक लंबी दास्तां हैं। सनातन धर्म आज भी अपने अखाड़ों, अपने साधु संतों और अपनी अखाड़ा परम्परा पर गर्व करता है और इन्ही अखाड़ों के जरिये स्वयम को भी औऱ सनातन को सुरक्षित मानता हैं। इसमे नागा सम्प्रदाय तो सनातन का गौरव, गर्व और गुरूर हैं। दंड कमंडल के साथ पटा-बनेटी, त्रिशूल, तलवार-चिमटो ने रामजी के लिए एक नही अनेक लड़ाई लड़ी औऱ अयोध्या के नाम को हर युग मे सार्थक रखा। अयोध्या, यानी वह भूमि जिसे युद्ध से जीता नही जा सकता। सदैव अविजित रखा अपनी अयोध्या को। कोई भी आतताई यहां विजेता बन राज नही कर पाया। साधु औऱ संत समाज के साथ साथ मठ-मंदिरों और आश्रमो की भी बड़ी भूमिका रामजन्मभूमि आंदोलन में रहती आई। आजादी के बाद ये भूमिका गुम सी क्यो हो गई? अन्यथा क्या कारण रहा कि इस आंदोलन में राजनीति का प्रवेश हुआ? 

 *ये तो संत समाज की लड़ाई थी लेकिन ये क्यो लड़ी गई राजनीतिक तौर तरीकों से? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इसका अगुवाकार बनने की नोबत क्यो आई? संघ की राजनीतिक शाखा भाजपा क्यो मुखर हुई? आखिर इस लड़ाई के पैरोकार वे मठ और मठाधीश क्यो नही बने जिनके हिस्से की ये लड़ाई थी। आजाद भारत मे देशवासियों ने तो इन दो संगठनों को ही रामजी के लिए लड़ते-भिड़ते, पीटते, पीटाते-प्रताड़ित होते हुए देखा। अशोल सिंघल का पुलिस की लाठी से फूटा हुआ सिर और बहता खून देखा। लालकृष्ण आडवाणी को रथ से उतारकर गिरफ्तार होते देखा। सरकारें गिरती देखी। कल्याणसिंह को कैद होते देखा तो विनय कटियार को लट्ठ खाते देखा। खाकी नेकर को कारसेवा करते हुए देखा तो सरयू में पुलिस की गोलियों से लाश बनकर तैरते हुए भी देखा। काली टोपियों द्वारा रामभक्तों के जत्थे के जत्थे अयोध्या भेजते देखा तो ढांचे की ईंट लेकर आते कारसेवक भी देखे। दृश्य-श्रव्य माध्यमो में” देश के लिए काला दिन” की बड़ी बड़ी इबारतें देखी, सुनी। विहिप वालो को राम शीला पूजन करते देखा तो इसी पूजन में पथराव आंसू गैस के गोले देखे। अयोध्या से लौटते कारसेवकों से भरी ट्रेनों पर रास्ते के हर स्टेशनों पर पथराव होते देखा तो दर्शन कर लौटते रामभक्तों को ट्रेन में ही घेरकर जिंदा जलते हुए देखा। देश के कई कई हिस्सों को कर्फ़्यू की गिरफ्त में देखा और आरएसएस पर प्रतिबंध देखा।* 

 *याद नही आता, इतना सब देखने वाले देश ने किसी मठ या मठाधीश का इस मामले में सड़क पर संघर्ष देखा? किसी मठ को प्रतिबंधित होते न देखा न किसी मठाधीश को रामजन्मभूमि के लिए गिरफ्तार होते देखा। किसी भी मठ से राम मंदिर के लिए समवेत स्वर बाहर आते नही देखे। न मठो से अपने अनुयायियों को इस विषय मे समर्थन के खुलेआम सन्देश जारी करते देखा, न सुना। किसी भी मठाधीश को राजसत्ता से दो दो हाथ करते नही देखा। उलटे राजसत्ता के साथ नजदीकी के लिए लालायित मठ और मठाधीश जरूर नजर आने लगे। इन सबको देश ने अपने “पेट” के साथ अपना अपना वैभव बढ़ते बढ़ाते देखा। सुर्ख लाल चट शुद्ध घी से भरे गाल औऱ उन्नत ललाट पर सोने चांदी के मुकुट देखे। सेकड़ो एकड़ जमीनों वाले भव्य व “साधन, सुविधासम्पन्न” मठ आश्रम देश के अलग अलग हिस्सों में देखे। हर चौथे साल देश के अलग अलग हिस्सों में अपने वेंभव के प्रदर्शन की पेशवाईया देखी लेकिन टेंट तंबू में बैठे अपने आराध्य को लेकर कोई छटपटाहट नजर नही आई। कानूनी तौर पर कुछ के अदालत में पक्षकार बनने के अलावा आंदोलन की जमीनी जमावट पर कोई मुस्तेद नजर नही आया।* 

यहां तक कि दीपावली पर परम् पूज्य शंकराचार्य की अपमानित गिरफ्तारी पर भी सब तरफ खामोशियाँ पसरी रही। तभी तो उसी संघ परिवार ने देव दिवाली यानी गिरफ्तारी के ठीक 11 दिन बाद देव उठनी एकादशी को देशव्यापी बन्द बुलाया और दमदार विरोध दर्ज कराया। उत्सव मनाने वाले सनातनियों को भी जगाया कि दिए नही, दिल जलाओ। यानी वो ही भगवा वाहिनी फिर अगुवाकार बनी जो रामजन्मभूमि के लिए राजसत्ता से लड़ रही थी, जिसका घोषित एजेंडा राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर निर्माण का था। ये भाजपा के लिखित घोषणा पत्र का हिस्सा भी बना। साल-दर-साल। ऐसे ही संघ परिवार की अहम प्रतिनिधि सभा की बैठक में भी हर बार मन्दिर के लिए संघर्ष का प्रस्ताव पास होता रहा। ये जानते हुए भी कि ये बेहद दुष्कर और असम्भव सा कार्य है। समाज की सुप्तावस्था भी सामने थी। फिर भी ये संगठन न डरे, न डिगे, न पीछे हटे। राजसत्ता के समक्ष ललकार लगाते रहे- रामलला हम आएंगे, मन्दिर वही बनाएंगे।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें