विजय शंकर सिंह
दुनिया में जब भी उदार परंपराओं, विरासत, संस्कृति और समाज की चर्चा होती है तो, भारत का नाम सबसे पहले लिया जाता है। पाश्चात्य संसार ने भले ही 1789 की फ्रेंच क्रांति के बाद स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के नारे को पहली बार धरती पर उतरते हुए देखा हो, पर भारतीय वांग्मय में ऋग्वेद से लेकर विवेकानंद तक इन तीनों महान मूल्यों की बात न केवल की गयी है बल्कि उन्हें भारतीय दर्शन और संस्कृति के अभिन्न अंग के रूप में बताया गया है। स्वाधीनता संग्राम में भी तमाम धार्मिक मतवाद और जातिवाद के पंथ के बावजूद आज़ादी की लड़ाई की मुख्य धारा लोकतंत्र पर ही टिकी रही।
आज भी भारत का सम्मान दुनिया में उसकी लोकतांत्रिक उदारवाद की विरासत के कारण है। पर पिछले कुछ सालों में देश की अंतरराष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचा है। दुनिया भर में लोकतंत्र पर समय समय पर सत्ता की हठधर्मिता, अहंकार और जिद के कारण खतरे आते रहे हैं, और यह खतरे अब भी विभिन्न देशों में उभरते रहते हैं। लेकिन अंततः आतंक और तानाशाही के इन खंडहरों पर लोकतंत्र की कोपल ही खिलती है और अतीत में पड़ा हुआ यह सब दंश हमें अब भी सचेत करता है कि हम उस भयानक रास्ते पर देश और समाज को न जाने दें।
आज भारत में लोकतंत्र की स्थिति के बारे में, दुनिया की राय थोड़ी बदली हुयी है। लोकतांत्रिक परंपराओं में अपना अहम स्थान रखने के बाद एक शोध संस्थान ने हमें इलेक्टेड डेमोक्रेसी के बजाय इलेक्टेड ऑटोक्रेसी के खाने में रख दिया है। यानी हम एक चुनी हुयी तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं। दुनिया भर में आज़ादी और लोकतंत्र के स्वास्थ्य पर सर्वे करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था, फ्रीडम इन द वर्ल्ड, ने हाल ही में एक सर्वे किया है, जिसमें भारत को लोकतंत्र के पैमाने पर गिरता हुआ बताया है। इस संस्था की सालाना रिपोर्ट में दुनिया भर के देशों में राजनीतिक और नागरिक स्वतंत्रता की स्थिति और कुछ चुनिंदा जगहों की मानवीय और राजनीतिक स्वतंत्रता को, कई मानकों के आधार पर परखा जाता है। सभी मानकों के आधार पर इस रिपोर्ट में देशों को स्कोर दिया जाता है। वर्ष 2021 के अंक में 195 देशों और 15 इलाकों में 1 जनवरी 2020 से लेकर 31 दिसंबर 2020 तक हुए घटनाक्रमों का विश्लेषण किया गया है।
फ्रीडम हाउस ने अपनी वर्ष 2021 की रिपोर्ट में भारत का दर्जा पिछले साल के “फ्री” यानी ‘स्वतंत्र’ से “पार्टली फ्री” यानी ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ कर दिया है। इंटरनेट फ्रीडम स्कोर के आधार पर भी भारत को ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ का दर्जा दिया गया है। लोकतंत्र के स्तर में गिरावट केवल भारत मे ही नहीं है। बल्कि रिपोर्ट के अनुसार, ‘दुनिया की लगभग 75 प्रतिशत आबादी ऐसे देशों में निवास करती है, जहाँ पिछले कुछ वर्षों में लोकतंत्र और स्वतंत्रता की स्थिति में गिरावट आई है।’ यह आकलन पिछले 15 वर्षों का है और इसके अनुसार, दुनिया के सबसे मुक्त और स्वतंत्र देशों में फिनलैंड, नॉर्वे और स्वीडन शामिल हैं, और सबसे नीचे तिब्बत और सीरिया हैं। वर्ष 1941 से कार्यरत इस संस्था का वित्तपोषण अमेरिकी सरकार के अनुदान से किया जाता है।
यह रिपोर्ट मुख्य तौर पर राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं पर आधारित है। राजनीतिक अधिकारों के तहत चुनावी प्रक्रिया, राजनीतिक बहुलवाद और भागीदारी तथा सरकारी कामकाज जैसे संकेतक शामिल हैं।
जबकि नागरिक स्वतंत्रता के तहत अभिव्यक्ति एवं विश्वास की स्वतंत्रता, संगठनात्मक अधिकार, कानून के शासन और व्यक्तिगत स्वायत्तता व व्यक्तिगत अधिकारों आदि संकेतकों को शामिल किया गया है। इन्हीं संकेतकों के आधार पर देशों को ‘स्वतंत्र’, ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ या ‘स्वतंत्र नहीं’ घोषित किया जाता है।
भारत को रिपोर्ट में 67/100 स्कोर प्राप्त हुआ है, जो कि बीते वर्ष के 71/100 के मुकाबले कम है, पिछले वर्ष भारत ‘स्वतंत्र’ श्रेणी में शामिल था, जबकि इस वर्ष भारत की स्थिति में गिरावट देखते हुए इसे ‘आंशिक रूप स्वतंत्र’ श्रेणी में शामिल किया गया है। अंग्रेजी दैनिक द हिंदू के अनुसार, इस गिरावट के कारणों को स्पष्ट करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि,
● प्रेस की स्वतंत्रता पर हमलों में नाटकीय रूप से वृद्धि दर्ज की गई है।मोदी सरकार के तहत हालिया वर्षों में प्रेस की आज़ादी पर हमले नाटकीय रूप से बढ़े हैं। मीडिया में विरोधी स्वरों को दबाने के लिए अधिकारियों ने सुरक्षा, मानहानि, देशद्रोह, हेट स्पीच और अदालत की अवमानना के क़ानूनों का इस्तेमाल किया है। राजनेताओं, कारोबारियों और लॉबीइस्ट्स और प्रमुख मीडिया शख्सियतों और मीडिया आउटलेट्स के मालिकों के बीच के गठजोड़ के ख़ुलासे ने लोगों का प्रेस पर भरोसे को कम किया है।
● देशद्रोह के क़ानूनों के दुरुपयोग का ज़िक्र करते हुए, कहा गया है कि सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों, छात्रों और आम नागरिकों को इन क़ानूनों का निशाना बनाया गया है।
● भारत एक वैश्विक लोकतांत्रिक नेता के रूप में अपनी पहचान खोता जा रहा है और समावेशी एवं सभी के लिये समान अधिकारों जैसे बुनियादी मूल्यों की कीमत पर संकीर्ण हिंदू राष्ट्रवादी हितों में उभार देखा जा रहा है।
● इंटरनेट स्वतंत्रता पर रिपोर्ट का कहना है कि, कश्मीर और दिल्ली की सीमा पर इंटरनेट शटडाउन के कारण, इंटरनेट स्वतंत्रता में भारत का सूचकांक, गिरकर 51 पर पहुँच गया है और इसमे भी भारत को ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ का दर्जा दिया गया है।
● कोरोना महामारी के विरुद्ध प्रतिक्रिया के दौरान भारत समेत वैश्विक स्तर पर कई स्थानों पर लॉकडाउन जैसे उपाय अपनाए गए, जिसके कारण भारत में व्यापक स्तर पर लाखों प्रवासी श्रमिकों को अनियोजित और खतरनाक तरीके से आंतरिक विस्थापन करना पड़ा।
● भारत में महामारी के दौरान एक विशेष समुदाय के लोगों को वायरस के प्रसार के लिये अनुचित तरीके से दोषी ठहराया गया और कई बार उन्हें अनियंत्रित भीड़ के हमलों का सामना भी करना पड़ा था।
● कश्मीर पर जारी एक अलग रिपोर्ट में कश्मीर का दर्जा पिछले साल के समान “स्वतंत्र नहीं” रखा गया है। पिछले साल यह स्कोर 28 था जो कि अब घटकर 27 रह गया है। इस साल की रिपोर्ट में कश्मीर में राजनीतिक अधिकारों को 40 में से 7 नंबर दिए गए हैं, जबकि नागरिक अधिकारों में 60 में से 20 अंक मिले हैं।
● सरकार द्वारा भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर अनुचित कार्यवाही की गई और इस प्रदर्शन के विरुद्ध बोलने वाले दर्जनों पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया गया। रिपोर्ट में, नागरिकता क़ानून (सीएए) में हुए बदलावों को भेदभाव वाला बताया गया है और कहा गया है कि पिछले साल फ़रवरी में इस क़ानून के चलते हुए विरोध-प्रदर्शनों में हिंसा हुई. इसमें 50 से ज्यादा लोग मारे गए जिनमें से ज्यादातर मुसलमान थे।
● उत्तर प्रदेश में अंतर धार्मिक विवाह के माध्यम से ज़बरन धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने से संबंधित कानून को भी स्वतंत्रता पर एक गंभीर खतरे के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
● फ्रीडम हाउस ने लोगों को अपनी धार्मिक आस्था को व्यक्त करने में मिलने वाली आज़ादी के आधार पर भारत को 4 में से 2 नंबर दिए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, ” हालांकि, भारत आधिकारिक तौर पर सेक्युलर राज्य है, लेकिन हिंदू राष्ट्रवादी संगठन और कुछ मीडिया आटलेट्स मुस्लिम-विरोधी विचारों को प्रमोट करते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस गतिविधि को बढ़ावा देने का आरोप सरकार पर भी लगता है।”
● रिपोर्ट में राजनीतिक अधिकारों के लिए 40 अंकों में से भारत को 34 नंबर दिए गए हैं। जबकि नागरिक अधिकारों में 60 अंकों में से भारत को 33 नंबर ही मिले हैं। पिछले साल भारत का स्कोर 70 था और इसका दर्जा फ्री यानी स्वतंत्र का था।
हालांकि, मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट ऐसी पहली रिपोर्ट नहीं है जिसमें भारत की रैंकिंग नीचे आई है। वे कहते हैं कि पिछले कुछ साल से लगातार अलग-अलग रिपोर्ट्स में भारत की रैंकिंग में गिरावट आ रही है। मानवाधिकार कार्यकर्ता आकार पटेल कहते हैं,
“पिछले 5-6 साल से लगातार कई इंडेक्स में भारत की रेटिंग गिर रही है। चाहे वर्ल्ड बैंक की दो इंडेक्स, वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की 2-3 इंडेक्स, इकनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल समेत 40 ऐसे इंडेक्स हैं जहां पर 2014 से भारत की रेटिंग नीचे आई है। यह एक गवर्नेंस का मसला है। 2014 के पहले भारत में जैसी गवर्नेंस थी वैसी अब नहीं है। देशद्रोह के मसले पर सुप्रीम कोर्ट कई दफ़ा कह चुका है कि जब तक किसी स्पीच में हिंसा भड़काने की बात न की जाए उसे देशद्रोह नहीं माना जा सकता। लेकिन, सरकारें और पुलिस इस पर अमल नहीं करती हैं। पिछले पाँच साल में देशद्रोह के केस बढ़े हैं। वर्षों तक केस चलते हैं और उसके बाद लोगों को छोड़ दिया जाता है। यह सरकारी पैसे और वक्त की बर्बादी है।”
प्रेस की आज़ादी के मसले पर पटेल कहते हैं, “नए आईटी एक्ट में सरकारी अफ़सरों को मीडिया को क़ाबू करने की ताक़त दे दी गई है। दूसरा, भारत में सरकार और सरकारी कंपनियों का मीडिया को विज्ञापन देने का ख़र्च इतना बड़ा है कि मीडिया सरकारी दबाव में रहता है। भारत में मीडिया को स्वतंत्र कहना बहुत मुश्किल है।”
भारत सरकार ने भी फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। विदेशमंत्री, एस जयशंकर ने फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया और भारत मे गिरते लोकतंत्र की टिप्पणी पर प्रतिवाद करते हुए कहा है कि,
“वो हमें हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी कहते हैं। हाँ, हम हैं राष्ट्रवादी पार्टी, हमने 70 देशों को कोविड वैक्सीन दी है, और जो ख़ुद को अंतरराष्ट्रीयवाद के पैरोकार बताते हैं, उन्होंने कितने देशों को वैक्सीन पहुँचाई हैं? वो बताएं ज़रा कितने हैं जिन्होंने कहा कि कोविड वैक्सीन की जितनी ज़रूरत हमारे लोगों को है, उतनी ही ज़रूरत बाकी देशों को भी है। तब ये कहाँ चले जाते हैं। हमारी भी आस्थाएं हैं,मान्यताएं हैं,हमारे मूल्य हैं, लेकिन हम अपने हाथ में धार्मिक पुस्तक लेकर पद की शपथ नहीं लेते। सोचिए ऐसा किस देश में होता है? इसलिए मेरा मानना है कि इन मामलों में हमें ख़ुद को आश्वस्त करने की ज़रूरत है। हमें देश में लोकतंत्र की स्थिति पर किसी के सर्टिफ़िकेट की ज़रूरत नहीं है, ख़ासतौर पर उन लोगों से तो बिल्कुल भी नहीं,जिनका स्पष्ट रूप से एक एजेंडा है।”
फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट का हमारी सरकार ने प्रतिवाद किया है और अपना पक्ष रखते हुए अपने मूल्यों के साथ जुड़े रहने की बात की है, साथ ही इसे निजी मामलो में हस्तक्षेप भी बताया है। विदेश मंत्री के बयान पर कोई ऐतराज नहीं है, पर एक साल के भीतर फ्रीडम इंडेक्स जिन सूचकांकों के आधार पर गिरा है, उन कारकों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। ऐसा भी नहीं कि हमने दुनिया की परवाह करना छोड़ दिया हैं या आज के विश्व मे दुनिया की राय को दरकिनार कर के चलने का हमने मन बना लिया है। फ्रीडम हाउस की राय, आकलन और सूचकांक महत्वपूर्ण हो या न हो, पर वे कारक अवश्य महत्वपूर्ण हैं, जिनके आधार पर, फ्रीडम हाउस उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुंचा।
पिछले एक साल में हमारी छवि में गिरावट के कुछ कारण हैं, दिल्ली दंगे में पुलिस की भूमिका, एक मंत्री और एक भाजपा नेता के हिंसा भड़काने वाले बयान पर दिल्ली पुलिस की शर्मनाक चुप्पी, लॉक डाउन के समय हज़ारों मज़दूरों का यातनामय विस्थापन, अहिंसक और शांतिपूर्ण किसान आंदोलन को तोड़ने के लिये की गयी कार्यवाहियां, जिसमें इंटरनेट बंद करने से लेकर सड़कों पर कील गाड़ने की घटनायें भी शामिल हैं। इन सब गतिविधियों को दुनिया ने देखा है और दुनिया भर में सभी बड़े अखबार, चाहे वे ब्रिटेन के हों या अमेरिका के, ने न केवल इनसे जुड़ी खबरों को छापा है, बल्कि अपने अपने अखबारों में सम्पादकीय भी लिखे हैं।
आज के संचार और इमेज बिल्डिंग युग मे जब बड़ी-बड़ी पीआर एजेंसियां छवि सुधारने के लिये भाड़े पर लगाई जाती हैं तो यह कह देना कि हम इन खबरों, और अखबारों की राय की परवाह ही नहीं करते, खुद से ही मुंह छिपाना होगा। फ्रीडम हाउस के आकलन पर आपत्ति दर्ज कराने के साथ फ्रीडम हाउस ने जिन आंकड़ों के आधार पर, अपने निष्कर्ष निकाले हैं, उन आंकड़ों के तथ्यों को भी सरकार को चाहिए कि उसे सबके सामने रखे ताकि फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को एक्सपोज़ किया जा सके।
फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट आने के पहले, किसान आंदोलन के सन्दर्भ में सबसे पहले कनाडा ने आपत्ति जताई थी। इसका एक कारण कनाडा में पंजाबी समुदाय का प्रभाव हो सकता है। इस आपत्ति पर, भारत ने कनाडा के उच्चायुक्त को तलब कर उनसे कहा कि ” किसानों के आंदोलन के संबंध में कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और वहां के कुछ अन्य नेताओं की टिप्पणी देश के आंतरिक मामलों में एक ‘अस्वीकार्य हस्तक्षेप’ के समान है। ऐसी गतिविधि अगर जारी रही तो इससे द्विपक्षीय संबंधों को ‘गंभीर क्षति’ पहुंचेगी।”
हालांकि, कनाडाई राजदूत को तलब करने के बाद कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने एक बार फिर कहा कि उनका देश विश्व में कहीं भी शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध है। उन्होंने कहा कि वह तनाव को घटाने और संवाद के लिए कदम उठाए जाने से खुश हैं।
कनाडा के बाद, संयुक्त राष्ट्र महासचिव के प्रवक्ता स्टीफन दुजारिक ने कहा,
“लोगों को शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने का अधिकार है और अधिकारियों को उन्हें यह करने देना चाहिए।”
इसके बाद, ब्रिटेन के 36 सांसदों के एक समूह ने विदेश मंत्री डॉमिनिक राब को पत्र लिखकर उनसे कहा है कि, “भारत में नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के ब्रिटिश पंजाबी लोगों पर प्रभाव के बारे में वह अपने भारतीय समकक्ष एस. जयशंकर को अवगत कराएं।”
यह पत्र लेबर पार्टी के सिख सांसद तनमनजीत सिंह धेसी ने तैयार किया है। इस पर भारतीय मूल के कई सांसदों के हस्ताक्षर हैं। इन नेताओं में वीरेंद्र शर्मा, सीमा मल्होत्रा और वेलेरी वाज के साथ ही जेरेमी कॉर्बिन भी शामिल हैं। ब्रिटेन की संसद में इस विषय पर बहस भी हुयी। किसान आंदोलन में ब्रिटेन, यूएन या अमेरिकी सत्ता से जुड़े लोगों के लिये कृषि कानून कोई मुद्दा नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक तऱीके से आंदोलन के अधिकार पर सत्ता का दमन मुख्य मुद्दा है।
ऑस्ट्रेलिया में दक्षिण ऑस्ट्रेलियाई सांसद, तुंग गो ने भारत सरकार से आग्रह किया था कि, ” किसी भी लोकतंत्र में उसके नागरिकों को मौलिक अधिकारों का इस्तेमाल करने की अनुमति होनी चाहिए और यहां यह शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करना है।”
लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन पर दुनिया भर के देश अपनी-अपनी प्रतिक्रिया देते रहते हैं। जन आंदोलनों के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित करते रहे हैं। खुद भारत ने भी, ऐसे आंदोलनों के साथ अपनी हमदर्दी समय-समय पर जताई है। अतः ऐसी प्रतिक्रियायें सामान्य नहीं है। भारत ने विदेशी नेताओं की टिप्पणियों को ‘भ्रामक’ और ‘गैर जरूरी’ बताया है, और कहा कि यह एक लोकतांत्रिक देश के आंतरिक मामलों से जुड़ा विषय है। विदेश मंत्रालय ने कहा था, ‘हमने भारत में किसानों से संबंधित कुछ ऐसी टिप्पणियों को देखा है जो भ्रामक सूचनाओं पर आधारित हैं। इस तरह की टिप्पणियां अनुचित हैं, खासकर तब, जब वे एक लोकतांत्रिक देश के आंतरिक मामलों से संबंधित हों।’
हम एक वैश्वीकरण के दौर में हैं। हमने विदेशी निवेशकों के लिये 100 % एफडीआई की राह खोली है। हमारी भूमि में घुसपैठ करने वाले चीन के प्रति हमारा व्यापारिक रवैया उदार है। ऐसी स्थिति में यदि हम यह उम्मीद करें कि हमारे देश मे हो रहे आंदोलनों पर हमारी सरकार की प्रतिक्रिया पर दुनिया अनदेखी कर दे, यह सम्भव नहीं है। देश मे आंतरिक लोकतांत्रिक मूल्य न केवल भाषणों में ही रहे बल्कि वे धरातल पर भी दिखें यह सबसे ज़रूरी है। क्या कारण है, आंदोलनों के दमन के लिये, ब्रिटिश काल मे गढ़ा गया सेडिशन कानून का इस्तेमाल, साल 2014 के बाद, अचानक बढ़ा है?
क्या कारण है कि जांच एजेंसियों की प्राथमिकतायें सरकार की मंशा और इरादे के अनुरूप तय होती है, न कि घटना के सुबूतों के अनुसार? क्या कारण है कि सरकार की आलोचना से आहत हो सरकार पहले पत्रकारों की ही गर्दन पकड़ती है? क्या कारण है कि अचानक बुद्धिजीवी, सेक्युलर, लिबरल, प्रगतिशील, आदि शब्द सरकार के सनर्थकों की शब्दावली में अपशब्दों के रूप में शामिल हो गए हैं? सवाल इतने ही नहीं हैं, और भी सवाल हैं। करोगे याद तो हरेक बात याद आएगी !
फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय राजनीति से प्रेरित और किसी दबाव ग्रुप की कारस्तानी भी हो सकती है। हमारा प्रतिवाद भी अपनी जगह उचित है, पर वे कारक जिनसे दुनिया, लोकतंत्र और स्वतंत्रता के संदर्भ में हमारा आकलन कर रही है, वे तो अब भी सड़क पर गड़ी कीलों और स्टेन स्वामी द्वारा अपनी प्यास बुझाने के लिये मांगी गयी स्ट्रा के रूप में हमारी नीयत पर सवाल उठा रहे हैं। दुनिया भर में गिरती हुयी इस छवि का असर न केवल भारत की प्रतिष्ठा पर पड़ेगा, बल्कि इसका असर देश के अंदर के सामाजिक ताने-बाने और आर्थिक विकास पर भी पड़ेगा। क्या हमारी सरकार जन आंदोलनों से निपटने के संदर्भ में अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करेगी?
(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं