*रजनीश भारती*
जनता भूख और कुपोषण से मरणासन्न है और अयोध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा का जश्न मनाया जा रहा है। दुनिया के स्वतंत्र विकासशील देश क्वाण्टम विज्ञान पर आधारित नयी-नयी तकनीकों की खोज कर रहे हैं और हमारा देश क्वाण्टम विज्ञान के इस युग में ये क्या कर रहा है। फिर भी विश्वगुरू होने का घमण्ड पाले बैठे हैं।
दुनिया विश्वगुरू जी को पीछे ढकेलती जा रही है। इधर विश्वगुरू जी रामलला की मूर्ति में जान डाल रहे हैं। सारे पड़ोसी देश आँखें दिखा रहे हैं, और इस पर थेथरई देखिए कि विश्वगुरुजी अपना डंका खुद ही बजा रहे हैं। गुरूजी वैश्विक सूचकांक 2023 में कहाँ हैं सबसे पहले इसे देख लीजिए– चुनावी लोकतंत्र में 108वें स्थान पर हैं, अशान्ति के मामले में बहुत पीछे 126 वें नम्बर पर जबकि आतंकवाद के मामले में बहुत आगे बढ़कर 13वें नंम्बर पर, प्रेस की स्वतंत्रता में बहुत पीछे 161वें स्थान पर बैठे हैं, पासपोर्ट सूचकांक में 144वें स्थान पर, विश्वखुशहाली मामले में 126वें स्थान पर, समावेशिता सूचकांक में 117 वें पायदान पर। इनोवेशन में 40वें स्थान पर, मगर जनसंख्या में पहले स्थान पर। जीडीपी के मामले में पाँचवें नम्बर पर दिख रहे हैं, मगर विदेशी लोग अपना कर्ज वापस मांग लें तो दीवालिया हो जायेंगे। विदेशी तकनीकें हटा दीजिए तो पुष्पक विमान से ही उड़ना पड़ेगा। इतने पिछड़े हुए देश में मूर्ति में लगातार 22 दिन तक प्राण-प्रतिष्ठा का जश्न मनाने की बात हो रही है।
जरा प्राण-प्रतिष्ठा को भी समझ लीजिए, मान लीजिए रामलला की एक मूर्ति है, वह मूर्ति निर्जीव है। उसमें जान नहीं है। मोदी जी 22 जनवरी को मंत्र फूँककर उस निर्जीव मूर्ति जान डालेंगे। जान डालने के बाद उस मूर्ति की पूजा होगी। ये आदम और हव्वा के पैदा होने की कहानी से थोड़ा उलट है, उलट इसलिए दिखता है कि उस कहानी में भगवान ही आदम और हव्वा की मूर्ति बनाता है और वही उनमें जान डालता है, इधर अयोध्या में नरेन्द्र दामोदरदास मोदी नाम का एक इंसान ही भगवान की मूर्ति में जान डाल देगा और जिस मजदूर ने मूर्ति बनाई वह इसके करीब फटकने भी नहीं पाएगा। इस पर मुसलमानों, यहूदियों अथवा ईसाइयों या मजदूरों, किसानों को कोई ऐतराज नहीं है। एतराज तो चारों शंकराचार्यों और विपक्षी पार्टियों को है। हमें भी कोई एतराज़ नहीं।
यह अंधविश्वास की पराकाष्ठा है या विज्ञान का विकास? इस प्रश्न पर कुछ कहकर हम किसी की आस्था को ठेस नहीं पहुँचाना चाहते हैं। विज्ञान और अंधविश्वास अपनी-अपनी जगह है। हमको तो हैरानी यह है कि जो लोग पूँजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने के लिए मँहगाई बढ़ाते हैं और मँहगाई बढ़ाकर करोड़ों लोगों का प्राणहरण करते हैं; पूँजीपतियों को सस्ते मजदूर उपलब्ध कराने के लिए, बेरोजगारी बढ़ाते हैं और बेरोजगारी बढ़ाकर करोड़ों नौजवानों को निर्जीव स्थिति में पहुँचा चुके हैं, भ्रष्टाचार के जरिए लाखों लोगों का खून निचोड़ रहे हैं। सूदखोरी, जमाखोरी, मिलावटखोरी, नशाखोरी, जुआखोरी को कानूनन बढ़ावा देकर करोड़ों लोगों को मरने के लिए मजबूर कर रहे हैं, और अश्लीलता को बढ़ावा दे रहे हैं। जो लोग दंगा-फसाद करवा कर लाखों लोगों का कत्ल कर चुके हैं और लाखों लोगों का कत्ल करने पर आमादा हैं वही लोग एक मूर्ति में जान क्यूँ और कैसे डालेंगे?
कोरोना महामारी के दौरान आक्सीजन की कमी पैदा करके जिन लोगों ने करीबन पचास लाख लोगों की हत्या किया अब वही लोग मूर्ति में जान कैसे डालेंगे?
जिन लोगों ने 80 करोड़ लोगों को भुखमरी की आग में झोंक दिया और उन्हें मानसिक तौर पर भी मारने के लिए अर्थात उनके जमीर को मारकर उन्हें 5 किलो राशन की कतार में भिखारियों की तरह खड़ा कर दिया हो वही लोग मूर्ति में प्राण डालेंगे।
मजदूर, किसान, जवान, सरकारी कर्मचारी, बुनकर, दस्तकार सभी जीवित लोगों को तो निष्प्राण बना रहे हैं और एक मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा कर रहे हैं? जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की हत्या करने वाले लोग ही एक मूर्ति में जान डाल कर प्राणदाता बन रहे हैं।
धर्म निहायत व्यक्तिगत मामला है, इसका न तो इतना प्रचार होना चाहिए, ना ही दिखावा होना चाहिए। पूरी राज मशीनरी इसमें लगाना कत्तई ठीक नहीं है।
शोषकवर्ग की मीडिया जनता के दिमाग में दिन-रात एक ही बात क्यों ठूँस रही है। क्या वोट के लिए? सस्ती लोकप्रियता के लिए? जी हाँ, मगर सिर्फ इतनी सी बात के लिए नहीं। दरअसल इसकी आड़ में शोषकवर्ग अपने सारे अत्याचारों को छिपाना चाहता है। शोषकवर्ग जनता की निगाह में गिर गया है। सही मायने में शोषकवर्ग की मानवता मर चुकी है, वह अपने भीतर मानवता का दिखावा करने के लिए एक मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा का ढोंग कर रहा है। वास्तव में राम लला के बहाने शोषकवर्ग अपनी प्राण प्रतिष्ठा कर रहा है।