डॉ. विकास मानव
वैदिक दर्शन में बहुदेववाद (बहुत सारे भगवानों का पूजन) बिलकुल भी नहीं है. यहाँ न तो तैंतीस करोड़ देवता हैं, न ही तैंतीस देवों (भगवान् के सन्दर्भ में) मात्र का ही कोई अस्तित्व है.
वेदों क़ो ईश्वर की वाणी, वास्तविक धर्म का ग्रंथ कहने वाले हिन्दू यह क्यों स्वीकार नहीं करते? क्यों बुतपूजक बनकर बुत सावित होते हैं वे? यह एक जलता हुआ प्रश्न है, जो अनुत्तरित है.
देवी-देवता का वैदिक अर्थ :
‘देवो दानाद् वा दीपनाद वा द्योतनाद् वा द्युस्थानो भवतीति वा।
‘यो देवः सा देवता.
~यास्क निरुक्त (७.१५)
अर्थात ज्ञान, प्रकाश, शान्ति, आनन्द तथा सुख देनेवाली सब वस्तु को देव या देवता के नाम से कहा जा सकता है।
अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुदा देवतादित्या देवता मरुतो देवता विश्वे देवा देवता बृहस्पतिर्देवन्द्रोदेवता वरुणो देवता।
~ यजुर्वेद (१४.२०)
अर्थानुसार, जो परोपकारी, दानदाता स्वयं प्रकाशमान एवं अन्यों को ज्ञान एवं प्रकाश देने वाला और द्यौलोक में स्थति हो, देव या देवता है.
इसीलिए दिव्यगुणों से युक्त होने के कारण परमात्मा देव है. आधार देने से पृथ्वी, ऊर्जा, प्रकाश व जीवन देने से सूर्य, शान्ति देने से चन्द्रमा और प्राणवायु देने के कारण वायु, देवता है.
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि वैदिक संहिताओं के सीधे-सीधे अध्ययन के पूर्व वैदिक शब्दों के सही अर्थ के लिए सम्बंधित वेद की निरुक्ति का अध्ययन-मनन आवश्यक है. जैसे कि ऋग्वेद के लिए यास्क निरुक्त.
इस नियम पालन के लिए सायण ने बहुत कम काम किया और मैक्स मूलर ने तो बिलकुल नहीं किया. इसने तो Christian missionaries के हितों को ध्यान में रख कर वेदों का कुभाष्य किया. मूर्ख लोग इन्हीं का सहारा लेकर वेदों में गौमांस खाने का विधान बताते रहते हैं.
निरुक्त के अध्ययन के पहले भी कुछ ग्रन्थ विशेष के अध्ययन का क्रम है, जैसे निघंटु, अष्टाध्यायी, महाभाष्य आदि.
तो यास्क निरुक्त की देवों के परिभाष के आधार पर देव या देवता कितने भी हो सकते हैं, पर परमेश्वर (पूजनीय) तो मात्र एक निराकार सत्ता ही है.
देवो देवामसि. देवों के देव तुम ही हो।
~ऋग्वेद. (१.९४.१३)
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्नि माहुपरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्राबहुधा वदन्ति अग्निं यमं मारिश्वान माहुः।।
~ऋग्वेद (१ः १६४ : ४६)
वह परमात्मा एक है, ज्ञानी लोग उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं। उसी को इन्द्र मित्र, वरुण, अग्नि, सुपर्णा और गरुत्मान् कहते हैं।’
न द्वितीयों तृतीयश्चतुर्थों नाप्युच्यते। न पञ्चमो न षष्ठः सप्तको नाप्युच्यते। नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते।
~अथर्ववेद (१३ः ४ः१६-१८)
‘वह (परमेश्वर) एक ही है. उसे दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवां, छठा, सातवां, आठवां, नौवां दशवां नहीं कहा जा सकता।