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शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार होते हुए भी शिक्षा न तो मुफ्त है, न अनिवार्य

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संदीप पांडेय

26 जनवरी को देश का संविधान लागू हुआ। संविधान के माध्यम से पहली बार कई अधिकार, जैसे मताधिकार, आम लोगों को मिले। कुछ अधिकार जैसे जीने का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार मौलिक अधिकार के रूप में मिले तो शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार के रूप में नहीं मिला। बाद में एक संविधान संशोधन से शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार के रूप में मिला और 2009 में बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम के रूप में लागू हुआ।

नव-युवकों और नव-युवतियों के लिए सबसे जरूरी तो शिक्षा का अधिकार है। किंतु यह देश का दुर्भाग्य है कि उपर्युक्त अधिनियम लागू होते हुए भी शिक्षा न तो मुफ्त है, न अनिवार्य। देश की राजधानियों के मुख्य चौराहों पर आपको बच्चे भीख मांगते, छोटे-मोटे सामान बेचते अथवा लाल बत्ती पर खड़ी गाड़ियों के शीशे साफ करते मिल जाएंगे। ठीक से बुनियादी शिक्षा से ही बच्चा वंचित रहेगा तो जवान होकर अपने अधिकारों को कैसे प्राप्त करेगा?

जिन देशों ने भी अपनी 99-100 प्रतिशत आबादी को शिक्षित किया है वह समान शिक्षा प्रणाली, यानी सभी बच्चों के लिए एक जैसी सरकार द्वारा संचालित शिक्षा व्यवस्था, से किया है। किंतु 1964-66 की कोठरी आयोग की सिफारिश होने के बादजूद आज तक किसी भी केन्द्रीय सरकार ने इसे लागू नहीं किया। उल्टे 1991 में निजीकरण, उदारीकरण व वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से निजी शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा मिला और धीरे धीरे समाज के पैसे वाले वर्ग ने अपने बच्चों को महंगे निजी विद्यालयों के पढ़ाना शुरू दिया। सरकारी विद्यालयों में सिर्फ गरीब का बच्चा रह गया।

इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर असर पड़ा जिसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि व्यापक पैमाने पर परीक्षा उत्तीर्ण कराने के लिए शिक्षकों- प्रबंधकों- शिक्षा विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से, जिसमें अभिभावकों का भी मौन समर्थन रहा, नकल होने लगी। लोकतंत्र में साफ-साफ दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाएं कायम हो गईं- एक सरकारी और दूसरी निजी, एक जहां पढ़ाई होती है तो दूसरी जहां नकल होती है।

इस खाई को पाटने के लिए 2015 में उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल ने आदेश किया कि सभी सरकारी तनख्वाह पाने वालों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में अनिवार्य रूप से पढ़ें। किंतु इस फैसले को न तो अखिलेश यादव ने माना और न ही योगी आदित्यनाथ ने। नतीजा यह है कि भारत में आधे बच्चे तो कक्षा 8 की दहलीज ही पार नहीं कर पाते। 15 प्रतिशत से कम बच्चे उच्च शिक्षा स्तर तक पहुंचते हैं। अब जब भारत में बड़ी संख्या में बच्चे माध्यमिक शिक्षा से ही वंचित रहेंगे तो उच्च शिक्षा तो सपना ही बन कर रह जाएगा। बिना उच्च शिक्षा के नागरिक अपने पूर्ण अधिकारों को कैसे हासिल करेगा?

जब शिक्षा की बुनियाद ही कमजोर रही तो उच्च शिक्षा में भी, कुछ चुनिंदा संस्थानों को छोड़कर, शिक्षा की गुणवत्ता के साथ समझौता किया जाने लगा। बिना पढ़े भी डिग्रियां मिलने लगीं। अब बिना उपयुक्त प्रशिक्षण के युवाओं की प्राथमिक जरूरत – रोजगार कैसे पूरी होगी? नतीजा रहा बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और अर्द्ध-बेरोजगारी, जैसे ठेके व संविदा पर नौकरियां। बिना अच्छी शिक्षा के बढ़िया रोजगार सम्भव ही नहीं था। इस मायने में हमने अपने देश के युवाओं के साथ धोखा किया है। उसको अच्छी शिक्षा ही नहीं दिलाई जिससे वह सम्मानजनक रोजगार पा सकता था। अपने अधकचरे ज्ञान के आधार पर वह अपना काम भी बखूबी नहीं कर पाता।

जिस देश में शिक्षा की नींव को कमजोर रखा गया हो वह कैसे विकसित और खुशहाल हो सकता है? और अब तो भाजपा सरकार का जोर शिक्षा से ज्यादा कौशल विकास पर है। यानी हम अपने विवेक से सोचने समझने वाले नागरिक तैयार करने के बजाए मजदूरों की फौज खड़ी करना चाहते हैं जो पूजीपतियों के लिए कम पैसे में काम कर सकें। अनुशासन के नाम पर छात्र-छात्राओं के सवाल पूछने के अधिकार, जो शिक्षा की प्रकिया की जान है, को ही खत्म कर दिया है। किसी विरोधी विचार रखने वाले शिक्षक-छात्र वर्ग को दण्डित किया जा रहा है। यह तो शिक्षा की मूल भावना के ही खिलाफ है। बिना विचारों की स्वतंत्रता के मनुष्य के ज्ञान का विकास हो ही नहीं सकता।

दूसरी एक दिक्कत जो खड़ी हुई है वह है निजता के अधिकार रप ग्रहण लगना। डॉ. राम मनोहर लोहिया की सप्त क्रांति में प्रत्येक मनुष्य के लिए निजता का अधिकार शामिल है। हम क्या खा सकते हैं, कौन से कपड़े पहन सकते हैं, कौन सा पेशा चुनना चाहते हैं, किसके साथ सम्बंध बना सकते हैं, यह सब बातें निजता के अधिकार में शामिल हैं जो हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से प्राप्त हैं। किंतु पिछले कुछ समय से यह अधिकार हमसे छीना जा रहा है।

कर्नाटक में मुस्लिम लड़कियों द्वारा हिजाब पहनने पर रोक लगा दी गई। मुम्बई के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की एक मेस के एक हिस्से में मांसाहारी भोजन वर्जित कर दिया गया, अंतर्जातीय एवं अंतरधार्मिक सम्बंधों को बनाने वालों के लिए परेशानी खड़ी हो गई। ऐसे विवाहों के लिए प्रशासन की अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया। कानून तो कहता है कि प्रत्येक बालिग व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह तय करे कि किसके साथ सम्बंध बनाना है। किंतु भाजपा सरकार एक दूसरा कानून लाकर इस मौलिक अधिकार को युवाओं से छीनना चाहती है। जहां महिला पहलवानों को सरे आम अपमानित किया गया तो भविष्य में खेल का पेशा चुनने वाली लड़कियों के लिए तो एक चुनौती खड़ी ही हो गई है।

इस तरह हम देखते हैं कि युवाओं को रोजगार के अधिकार, जो अभी मौलिक अधिकार नहीं बना है लेकिन बनाना चाहिए, से तो हमने वंचित कर ही रखा है, हम उसके जो मौलिक अधिकार हैं- शिक्षा एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, वह भी उसे देना नहीं चाहते। जब तक इस तरह के अंकुश लगे रहेंगे तब तक युवाओं को पूरी आजादी से जीने की छूट नहीं मिलेगी। जरूरत है कि युवा लड़कर, जिन अधिकारों से उनको वंचित किया गया है, उन्हें प्राप्त करें।

(लेखक सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के महासचिव हैं।)

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