अनाज भण्डारण की विकेंद्रीकृत प्रणाली वजूद में लाएं
रामस्वरूप मंत्री
28 करोड़ टन अनाज उगाने वाले देश में अगर करीब 19 करोड़ लोगों को पर्याप्त भोजन न मिल पाता हो तो यह जानना ही पड़ेगा कि, यह समस्या है किस तरह की है। भारत में जितने लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलता, उनकी तादाद फ्रांस, इटली, जर्मनी जैसे देशों की कुल आबादी से दोगुनी बैठती है। जाहिर है, यह समस्या कम उत्पादन से नहीं बल्कि पर्याप्त भंडारण व्यवस्था की कमी से जुड़ी है, जिसे दूर करना होगा।
खाद्य उत्पादन में भारत विश्व के शीर्ष पांच देशों में है। इस मामले में हम हर साल अपना पिछला रिकॉर्ड तोड़ देते हैं और इसी को बताते हुए कृषि विकास का प्रचार भी कर रहे हैं। पर ऐसे दावों के बावजूद अगर किसान आत्महत्या कर रहे हों, देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा घटता ही जा रहा हो, देश का भूख सूचकांक और कुपोषण के आंकड़े भयानक तस्वीर पेश कर रहे हों तो कृषि के हालात की जांच पड़ताल जरूर होनी चाहिए। हरित क्रांति के बाद भारत खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर घोषित हो गया था। उन्नत बीजों के इस्तेमाल से उत्पादन अचानक काफी बढ़ गया था। लेकिन यह भी हैरत की बात है कि, कई दशक पहले खाद्य आत्मनिर्भरता पा लेने के बावजूद भूख के वैश्विक सूचकांक में हम अपनी स्थिति नहीं सुधार पाए। वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) में एक साल पहले की स्थिति के मुकाबले हमारी हालत तीन पायदान और नीचे चली गई। 2017 में भारत 100वें पायदान पर था और 2018 में 103वें नंबर पर आ गया। इस मामले में एक सौ 19 देशों में हमारी हालत सबसे पीछे के 17 देशों में दिखाई जा रही है। क्या रिकॉर्ड तोड़ उत्पादन करने वाले किसी देश के लिए यह विचार की बात नहीं है?
28 करोड़ टन अनाज उगाने वाले देश में अगर करीब 19 करोड़ लोगों को पर्याप्त भोजन न मिल पाता हो तो यह जानना ही पड़ेगा कि यह समस्या है किस तरह की। यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की ‘द स्टेट ऑफ फूड सिक्युरिटी एंड न्यूट्रीशन इन द वर्ल्ड 2018’ रिपोर्ट में दिया गया है। समस्या के आकार का अंदाजा लगाएं तो भारत में जितने लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलता, उनकी तादाद फ्रांस, इटली, जर्मनी जैसे देशों की कुल आबादी से दोगुनी बैठती है। खासतौर पर यह समस्या और ज्यादा जटिल तब बन जाती है, जब हम अपनी मांग या जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा करने का दावा भी कर रहे हों। इस समस्या के कई कारण बताए जा सकते हैं।
कुछ विशेषज्ञ इसका सबसे बड़ा कारण यह बताते हैं कि, देश में खाद्य उत्पाद की बर्बादी हद से ज्यादा है। कितनी बर्बादी है, इसका सही हिसाब लगा पाना 135 करोड़ की आबादी वाले देश में मुश्किल काम है। फिर भी भूख सूचकांक और छोटे-छोटे नमूने लेकर किए सर्वेक्षणों से अंदाजा लगता है कि, ब्रिटेन की आबादी का पेट भरने के लिए जितने अनाज की जरूरत पड़ती है, उतना अनाज हमारे देश में बर्बाद चला जाता है। बर्बादी का मुख्य कारण यह जाना गया है कि, अनाज की बर्बादी कई स्तरों पर होती है। लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण यह बताया जाता है कि, हमारी खाद्य भंडारण व्यवस्था निर्धारित मानकों से बहुत निचले स्तर की है।
भारत में मुख्य फसलों की बात करें तो भारतीय कृषि हमेशा से ही गेहूं और चावल पर आधारित रही है। इसके अलावा दालें, गन्ना और तिलहन आदि भी भारतीय कृषि का बड़ा हिस्सा हैं। लेकिन हमारे कुल कृषि उत्पाद में आज भी गेहूं और चावल ही प्रमुखता से उगाया जा रहा है। इस बार गेहूं की पैदावार दस करोड़ टन से ज्यादा होगी। सरकार की तरफ से कहा भी गया है कि देश में अनाज की कमी नहीं है, लेकिन अब चिंता सरकारी खरीद बढ़ाने के बाद उसके भंडारण की है। इस मामले में कुछ आंकड़ों पर नजर डालना जरूरी है। इस साल सरकार तीन करोड़ 57 लाख टन गेहूं की खरीद की योजना बना रही है। इसी तरह चावल के लिए तीन करोड़ 75 लाख करोड़ टन खरीद का लक्ष्य बनाया गया था, जिसमें से तीन करोड़ 50 लाख टन चावल सरकार की तरफ से इस साल खरीदा जा चुका है। इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दो मुख्य फसलों के कुल उत्पादन का कितना हिस्सा सरकार खरीद पा रही है।
जब हमें यह पता है कि, एक तिहाई अनाज बर्बाद चला जाता है तो इसी से अंदाजा लगता है कि, कितना अनाज जरूरतमंद तबके तक पहुंच पाएगा और कितना गोदामों में और ढुलाई के समय बर्बाद हो जाएगा? जाहिर है, यह समस्या कम उत्पादन नहीं बल्कि पर्याप्त भंडारण व्यवस्था की कमी से जुड़ी है। भारत में खाद्य भंडारण का काम सरकारी संस्था फूड कारपोरेशन ऑफ इंडिया (एपसीआई) दूसरी सरकारी एजंसियों के साथ मिल कर करती है। यह काम राशन की दुकानों यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पीडीएस के जरिए गरीबों तक अन्न पहुंचाने के लिए किया जाता है। लेकिन आज तक हम अपनी भंडारण क्षमता को इतना दुरुस्त नहीं कर पाए कि देश में अनाज की बर्बादी रुक जाए। मसला सिर्फ अनाज के भंडारण का ही नहीं है। अनाज के अलावा जल्दी खराब होने वाले दूसरे खाद्य उत्पादों जैसे फल और सब्जियां को सुरक्षित भंडारण की उससे भी ज्यादा जरूरत पड़ती है।
इंस्टीट्यूशन ऑफ मैकेनिकल इंजीनियर्स के एक शोध सर्वेक्षण के मुताबिक, इस समय भारत में करीब 6300 कोल्ड स्टोरेज सुविधाएं हैं। इनकी भंडारण क्षमता करीब तीन करोड़ टन है। लेकिन इन कोल्ड स्टोरेज में से 75 से 80 फीसद गोदाम सिर्फ आलू की फसल रखने के लिए ही अनुकूल हैं। लंबे समय तक टिकने वाली मुख्य फसलें यानी गेहूं और चावल के भंडारण की स्थिति खास अच्छी नहीं है। इस समय भारत में सिर्फ आठ करोड़ 43 लाख टन अनाज के भंडारण की व्यवस्था है। इसमें से सरकारी भंडार तीन करोड़ 62 लाख टन की क्षमता के ही हैं। दूसरी एजंसियों एवं गैर सरकारी भंडारों की कुल क्षमता चार करोड़ 80 लाख टन है। हालांकि गैर सरकारी भंडारों को सरकार एक सीमित समय के लिए किराए पर ले लेती है। इतना ही नहीं, साढ़े आठ करोड़ टन की भंडारण क्षमता में एक और नुक्ता है। इन गोदामों में भी बंद या छत वाले गोदामों की क्षमता सिर्फ सात करोड़ टन है। बाकी डेढ़ करोड़ टन अनाज खुले आसमान के नीचे चबूतरों पर बोरों के कट्टे लगाकर और उन्हें तिरपाल या पॉलीथिन से ढक कर रखने की मजबूरी है।
भंडारण के काम का जिम्मा कृषि के उत्पादकों यानी किसान का है, लेकिन अब तो यह बात गैर-किसान लोग भी जान गए हैं कि मुश्किल हालात में आते जा रहे किसान कर्ज ले-लेकर किसानी कर पा रहे हैं। उनकी माली हालत इतनी खराब है कि फसल तैयार होते ही वे उसे बेचना चाहते हैं ताकि पैसा आए व अगली फसल की तैयारी करें। हर किसान चाहता है कि उसका सारा उत्पाद फौरन ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिक जाए। लेकिन किसान की उपज का थोड़ा हिस्सा ही सरकारी खरीद के जरिए बिक पाता है। बाकी बड़ा हिस्सा खुले बाजार में ही सस्ते में बेचने की उसकी मजबूरी होती है। भंडारण पर खर्च बढ़ाने का काम कृषि सुधार की योजनाओं में प्राथमिकता पर होना चाहिए। बीते साल यानी 2017-18 में भंडारण पर एफसीआई के जरिए सरकारी खर्च सिर्फ 2731 करोड़ रुपए बैठा था, लेकिन भंडारण के मामले में अपनी पतली हालत देखते हुए इस काम पर खर्च बढ़ाने की सख्त जरूरत दिख रही है। मुख्य फसलों की ज्यादा से ज्यादा खरीद का इंतजाम न सिर्फ किसानों को राहत देगा, बल्कि भूख के सूचकांक को ठीक करने और गरीब तबके तक राहत पहुंचाने के लिए जरूरी है।
इससे बड़ी विडंबना और कोर्इ नहीं हो सकती कि कृषि प्रधान देश में अनुमानित लक्ष्य से ज्यादा अन्न उत्पादन न केवल समस्या बन जाए, बलिक उसके खुले में पड़े रहने के कारण सड़ने की नौबत आ जाए। ऐसे ही हालात से रुबरु होकर ‘वी द पीपुल नामक गैर सरकारी संगठन ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल की। इस याचिका में लखीमपुर खीरी में एक हजार से भी ज्यादा बोरी जो गेहूं बारिश की वजह से सड़ गया था, उसे सचित्र साक्ष्यों के साथ न्यायालय में पेश किया गया और सरकार को अनाज के उचित भण्डारण के लिए न्यायालय से निर्देश देने की अपेक्षा की गयी थी। न्यायालय ने इस मामले की संवेदनशील मानवीय जरुरत को समझा और एक कदम आगे बढ़कर भारतीय दण्ड संहिता का दायरा बढ़ा दिया। इसके अनुसार अब अनाज की बर्बादी पर सार्वजनिक संपत्ति को हानि पंहुचाने संबंधी धाराओं के तहत जिम्मेबार सरकारी अधिकारियों पर मुकदमा पंजीबद्ध किया जा सकेगा। यह कार्रवार्इ आर्थिक अपराध शाखा करेगी। सार्वजनिक संपत्ति की बर्बादी को नए सिरे से परिभाषित कर उसमें अनाज को जोड़ते हुए नौकरशाहों की जिम्मेदारी तय करके उच्च न्यायालय ने देश के लिए एक नजीर पेश की है।
उत्तरप्रदेश में करीब 35 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने को विवश है। पूरे देश में ऐसी करीब 30-32 करोड़ आबादी है, जिसे ठीक से दो वक्त की रोटी नसीब नहीं हो पाती और 47 फीसदी बच्चे कुपोषण की गिरफत में हैं। ऐसी एक दयनीय हालत का हवाला याचिकाकर्ता वी द पीपुल के वकील प्रिंस लेनिन ने अदालत में दिया। इस बावत कहा गया कि राज्य में हाल ही में तीन बच्चे भुखमरी का शिकार हुए हैं। जबकि सरकार किसानों से जो गेंहू खरीदती है, उसका बड़ा हिस्सा खुले में भगवान भरोसे पड़ा रहता है, जो बारिश के कारण बर्बाद हो जाता है। और यह अनाज इंसान की रोटी बनने की बजाय सड़ा – गलाकर नालियों में बहा दिया है। दिल दहला देने वाली इस पीड़ा के बरक्स न्यायमूर्ति देवीप्रसाद सिंह और सतीशचंद्र की संयुक्त पीठ ने आर्इपीसी का न केवल दायरा बढ़ाया बलिक उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार को भी हिदायत दी की वह अनाज के भंडारण का उचित प्रबंध करे।
इस साल 842 लाख टन अतिरिक्त खाधान्न का उत्पादन हुआ है। यदि खाध और सार्वजनिक मंत्री केवी थामस की बात सही मानें तो इस समय उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में 66 लाख टन गेंहू खुले में पड़ा है। जबकि गैर-सरकारी सूत्रों पर भरोसा करें तो इस गेंहू की मात्रा 270 लाख टन है। यह आंकड़ा इसलिए भरोसे का लगता है क्योंकि भारतीय खाध निगम के गोदामों की भण्डारण क्षमता महज 664 लाख टन की है। जाहिर है हकीकत पर पर्दा डाला जा रहा है। इस 66 लाख टन अनाज को चबूतरों पर बोरियों के ढेर लगाकर पोलीथीन से ढक दिया गया है, जो कि सुरक्षित भण्डारण का मान्य उपाय नहीं है। लिहाजा खाध मंत्रालय चाहता है कि ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश मनरेगा के तहत ग्राम पंचायत स्तर पर भण्डार-गृहों का निर्माण कराएं। जिससे स्थानीय स्तर पर ही अनाज का भण्डारण हो सके। दूसरी तरफ केवी थामस ने प्रधानमंत्री को सलाह दी है कि सरकारी समर्थन मूल्य पर गेंहू-चावल खरीदी के लक्ष्य को घटा दें। मसलन थामस चाहते हैं कि समर्थन मूल्य पर महज 250 लाख टन के करीब गेंहू-चावल खरीदे जाएं। बांकी अनाज को बाजार के हवाले छोड़ दिया जाए। सरकार न्यूनतम मूल्य का निर्धारण तो 25 फसलों का करती है, लेकिन खरीदती केवल गेहूं और चावल ही है। यही वजह है कि किसान इन फसलों के उत्पादन में दिलचस्पी लेता है। इसी वजह से गेहूं-चावल का देश में रिकार्ड उत्पादन संभव हो सका है। थामस की इस दलील को इसलिए नकारा जाना चाहिए क्योंकि यदि सरकार गेंहू-चावल जैसी फसलों की खरीद बंद कर देगी तो इनका उत्पादन भी प्रभावित होगा।
दूसरी तरफ इस गेंहू को ठिकाने लगाने का फौरी उपाय निर्यात करना भी है। निर्यात में जबरदस्त घाटा उठाया जा रहा है। र्इरान को 20 लाख टन गेहूं का निर्यात 778 रुपये किंवटल के घाटे पर किया जा रहा है। दरअसल भारत सरकार को यह हानि इसलिए उठानी पड़ रही है, कयोंकि वह यह लाभ केवल विदेशी आयातकों को ही देना चाहती है। भारतीय निर्यातकों को यदि गेहूं निर्यात के लिए बुलार्इ आमंत्रण निविदा में शामिल किया जाता तो यह स्थिति निर्मित नहीं होती। ये निविदाएं राज्य व्यापार निगम के जरिए केंद्रीकृत व्यवस्था के अंतर्गत मांगी गर्इं। विदेशी आयातकों को सरकार कितने खुले हाथों से लूट की छूट दे रही है, यह इस बात से भी साफ होता है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूं बंदरगाह पर ही उपलब्ध कराएगी। ज्यादातर गेंहू कांडला बंदरगाह से र्इरान व अन्य देशों के लिए जहाजों पर लादा जाएगा। मसलन सरकार ने जो गेहूं 18,220 रुपये प्रति टन की लागत से खरीदा है। इसे बंदरगाह तक पहुचाने में 1,460 रुपये प्रति टन अतिरिक्त खर्च आएगा। यानि गेहूं का प्रति टन लागत मूल्य हो जाएगा 19,680 रुपये प्रतिटन। विदेशी आयातकों द्वारा बुलार्इ दरों में जो दर निगम ने मंजूर की है, वह है, 8,400 रुपये प्रति टन। जाहिर है सरकार को प्रति टन 11,280 रुपये की हानि उठानी होगी। यह राशि सरकार बतौर सबिसडी देगी। जबकि सरकार इस खाधान्न को यदि भूखे, कम भूखे और कुपोषितों को उपलब्ध कराती तो इस खाधान्न से हरेक भारतीय नागरिक को 2200 कैलोरी उर्जा प्रतिदिन हासिल करार्इ जा सकती है। ऐसा यदि भारत सरकार करती है तो वह उस कलंक से भी छुटकारा पा लेगी, जिसके जरिए भूखे व कुपोषित 81 देशों की सूची में भारत 67 वें स्थान पर है।
अनाज के ज्यादा उत्पादन पर भारत सरकार को गर्व के साथ किसानों की पीठ थपथपाने की जरुरत थी, किंतु वह अपनी गलतियों और केंद्रीकृत अनाज भण्डारण की प्रणाली के चलते अनाज सड़ाने के काम में लगी है। सरकार को जरुरत है कि वह राज्य स्तर से लेकर ग्राम पंचायत स्तर तक विकेंद्रीकृत भण्डारण की जवाबदेही सौंपे। गेंहू उत्पादन में भारत अब चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। लिहाजा उसे गेंहू उत्पादन व भण्डारण को प्रोत्साहित करने की जरुरत है। सरकार प्रति वर्ष 484 रुपये प्रति किंवटल खाधान्न, फल और सबिजयों के रखरखाव पर खर्च करती है। लेकिन भण्डारण में किसान की कोर्इ भूमिका तय नहीं है। यदि सरकार किसान के पास ही सुरक्षित रखने के लिए आर्थिक मदद करे तो इस उपाय से न केवल उचित भण्डारण होगा, बलिक अन्नदाता किसान फसल की हिफाजत अपनी संतान की तरह करेगा। क्योंकि उसके द्वारा उपजाये अनाज में खून-पसीने की मेहनत लगी होती है।
खाध मंत्रालय भी चाहता है कि मनरेगा के माध्यम से पंचायत स्तर पर भण्डार घरों का निर्माण बड़ी तादाद में कराया जाए। साथ ही ग्राम पंचायत के तहत ही किसान समूह बनाकर उन्हें भण्डारण की जिम्मेबारी सौंप दी जाए। पंचायत स्तर पर भूमि अधिग्रहण की समस्या भी नहीं रहेगी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के इसी गेंहूं-चावल को सीधा उठाकर वितरण किया जा सकेगा। इससे अनाज लदार्इ, ढुलार्इ के खर्च और यातायात में होने वाले छीजन से भी मुकित मिलेगी। सरकार को इस रखरखाव में अतिरिक्त धनराशि व्यवस्था करने की भी जरुरत नहीं है। क्योंकि जो राशि सरकार 484 रुपए प्रति किंवटल खाधान्न के रखरखाव पर खर्च करती है, वही किसान को दे दी जाए। इस व्यवस्था से किसान की माली हालत में सुधार आएगा और उसे आर्थिक संकट के चलते आत्महत्या करने की जरुरत नहीं पड़ेगी। बहरहाल अदालत ने अनाज बर्बादी के लिए नौकरशाहों को दण्ड का जो प्रावधान किया वह उन्हें अब मजबूर कर सकता है कि वे अनाज भण्डारण की विकेंद्रीकृत प्रणाली वजूद में लाएं।