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परिवर्तन का विज्ञान

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   डॉ. विकास मानव

परिवर्तन का आभास ‘काल’ है।
किसी स्थान पर एक वस्तु थी, वह अन्य स्थान पर चली गयी : यह गति या क्रिया है।
एक वस्तु जिस रूप में थी, वह अन्य रूप में दीखती है। कई वस्तुओं का संग्रह एक स्थिति में था, अन्य स्थिति में दिखता है।
इनको परिणाम, पृथक् भाव या व्यवस्था क्रम कहा गया है.
परिणामः पृथग्भावो व्यवस्था क्रमतः सदा।
भूतैष्यद्वर्त्तमानात्मा कालरूपो विभाव्यते॥
~सांख्य कारिका (मृगेन्द्रवृत्ति दीपिका : १०/१४)
इस प्रकार देश-काल-पात्र या ज्योतिष में दिक्-देश-काल परस्पर सम्बन्धित हैं।
दिक्कालावकाशादिभ्यः।”l
~कपिल सांख्य सूत्र (२/१२)

कालभेद-परिवर्तन का आभास ३ प्रकार का है :
(१) कोई भी पिण्ड या संहति स्वाभाविक रूप से अव्यवस्थित या क्रम हीन हो जाती है।
व्यवस्था लाने के लिये चेतन पुरुष का नियन्त्रण जरूरी है। अतः सभी पिण्ड क्षय होते होते अन्ततः नष्ट हो जाते हैं।
किसी वस्तु के क्षय से पता चलता है कि वह पुराना हो गया है, पर कितना पुराना, इस समय की माप नहीं हो पाती।
इसको भौतिक विज्ञान में तापगतिज काल (Thermodynamic time) कहते हैं। इस काल का अर्थ मृत्यु भी है।

(२) जन्य काल-यज्ञ चक्र की अवधि से तुलना कर काल की माप होती है। दिन, मास, वर्ष के चक्रों में हमारे यज्ञ होते हैं तथा इन चक्रों से समय की भी माप होती है।
अन्य कृत्रिम चक्रों से भी माप हो सकती है जिनका स्थिर चक्र हो-श्वास चक्र, दोलक का दोलन, क्वार्ट्ज रवा का कम्पन, परमाणु के भीतर इलेक्ट्रान का कक्षा-परिवर्तन, या प्रकाश गति से।

(३) अक्षय काल-किसी संहति का विचार किया जाय तो कुल मात्रा, आवेग, ऊर्जा आदि ५ प्रकार के माप स्थिर रहते हैं-ये भौतिक विज्ञान के ५ संरक्षण सिद्धान्त हैं।
अतः उस का आभास अक्षय काल है। यह पूरे समाज या व्यक्ति की एक अवधि का काल है। इस अर्थ में कहते हैं-राजा कालस्य कारणम्-राजा के अनुसार समाज की स्थिति होती है।
इसका वर्णन होता है कि समय (जमाना) अच्छा या खराब चल रहा है। इसी का छोटा अंश मुहूर्त्त है जो किसी काम के लिये उचित परिस्थिति या समय है। पूरे विश्व की जो परिस्थिति है, उसी से विश्व का निर्माण या धारण होता है, अतः इसे विश्वतोमुख तथा धाता कहा गया है।

बहुत सूक्ष्म परिवर्तन हमारे अनुभव से परे हैं-वह परात्पर काल है। विद्यमान ४ प्रकार के पुरुषों के ४ प्रकार के काल हैं।
पुरुष-काल- Physics
क्षरनित्य Thermodynamic arrow of time
अक्षर-जन्य–Time in formula of mechanics/electromagnetic theory
अव्यय-अक्षय– Conservation laws for closed system
परात्पर परात्पर– Abstract source of world.

नित्य काल-कालोऽस्मि लोक क्षयकृत्प्रवृद्धो।
~गीता (११/३२)
मैं वह काल हूं जो लोकों के क्षय की दिशा में बढ़ता है।
जन्य काल-कालः कलयतामहम्।
~गीता (१०/३०)
मैं गणना योग्य काल हूं। सभी गणनाओं में काल की गणना सबसे कठिन है, क्योंकि यान्त्रिकी में यह दर्शक के अनुसार बदलता है, विद्युत्-चुम्बकीय सिद्धान्त में प्रकाश की गति दर्शक पर निर्भर नहीं है। पर हम दोनों को एक मानकर गणना करते हैं।
अक्षय काल (अकाल पुरुष) :
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुख:।
~गीता (१०/३३)
मैं ही अक्षय काल, धाता तथा विश्व का मूल हूं। परात्पर काल-अति सूक्ष्म या अति विशाल.
कैवल्यं परममहान् विशेषो निरन्तरःIi२॥
एवं कालोऽप्यनुमितः सौक्ष्म्ये स्थौल्ये च सत्तम॥
संस्थानभुक्ता भगवानव्यक्तो व्यक्तभुग्विभुः॥३॥
~भागवत पुराण (३/११)

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