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*ये भाजपा का आत्मविश्वास है या बदहवासी?*

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: राजेन्द्र शर्मा

हैरानी की बात नहीं है कि बिहार में नीतीश कुमार को एक और पल्टी खाकर, भाजपा को पिछले दरवाजे से एक बार फिर सत्ता में साझीदारी दिलाने के लिए राजी करने में कामयाब होने के बाद से, संघ-भाजपा के प्रचारकों और मोदी मीडिया ने ‘अब की बार चार सौ पार’ की दर्पोक्ति को और जोर-शोर से दुहराना शुरू कर दिया है। कहे-बिना कहे इशारा यही है कि मोदी-शाही के चुनाव में ‘चार सौ पार’ का आंकड़ा हासिल करने में अगर कोई कसर रही भी होगी, तो अब नीतीश कुमार के दोबारा भाजपा के पाले में आने से पूरी हो गयी है। लेकिन, नीतीश कुमार की पल्टी पर उत्साह के दिखावे की यह लहर, अभी थमी भी नहीं थी कि तब तक चंडीगढ़ में मेयर चुनाव में विपक्षी गठबंधन इंडिया से मुकाबले में ‘भाजपा की जीत’ का ढोल पीटना शुरू हो गया। कहे-बिना कहे इशारा यह है कि पार्षदों की संख्या में स्पष्ट बढ़त होने के बाद भी इंडिया को भाजपा ने हरा दिया यानी सिद्घ हो गया कि मोदी-शाही को तो चुनाव में जीतना ही जीतना है।

हैरानी की बात नहीं है कि भाजपा अध्यक्ष, जेपी नड्डा ने न सिर्फ ‘मेयर का चुनाव जीतने के लिए चंडीगढ़ भाजपा को बधाइयां’ दी हैं, उन्होंने इस जीत का श्रेय मोदी को देते हुए, इसका भी दावा किया है कि ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में केंद्र शासित क्षेत्र ने रिकार्ड विकास किया है’; आशय यह कि भाजपा की यह जीत इसी विकास का जन-अनुमोदन है। यह दूसरी बात है कि इन दावों का सच्चाई से दूर-दूर तक कोई लेना-देना ही नहीं होने को चूंकि पूरी तरह से अनदेखा ही कर देना नड्डा के लिए भी संभव नहीं था, वह फौरन यह कहकर इसे भाजपा की ‘जीत’ साबित करने में लग गए कि, ‘इंडिया गठबंधन का अपनी पहली ही चुनावी लड़ाई लड़ना और फिर भी भाजपा से हार जाना दिखाता है कि न तो उनका अंकगणित काम कर रहा है और न कैमिस्ट्री काम कर रही है।’

जाहिर है कि संघ-भाजपा के नेता चंडीगढ़ नगर निगम चुनाव में अपनी ‘जीत’ और ‘इंडिया’ गठबंधन की हार के दावों के जरिए, जिस तरह की चुनावी मनमानी को छुपाने की कोशिश कर रहे हैं, उसे विपक्ष के ‘जनतंत्र की हत्या’ कहने में शायद ही कोई अतिरंजना है। सोशल मीडिया में वाइरल हुए वीडियो में मेयर के चुनाव के लिए जिम्मेदार अधिकारी को साफ तौर पर डाले गए वोटों के साथ छेड़छाड़ करते, उन पर निशान लगाते हुए देखा जा सकता है। बाद में उसी चुनाव अधिकारी ने मनमाने तरीके से, इंडिया गठबंधन के बीस वोट में से आठ को ‘अवैध’ घोषित कर दिया और इसी आधार पर कुल छत्तीस में से सोलह वोट हासिल करने के बाद भी, भाजपा के उम्मीदवार को ‘विजयी’ घोषित कर दिया। पेंतीस सदस्यीय नगर परिषद में भाजपा के कुल 14 सदस्य हैं, जबकि आम आदमी पार्टी के 13 और कांग्रेस के 7 तथा शिरोमणि अकाली दल का एक पार्षद है। इस चुनाव में भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में, इस पार्टी के अपने पार्षदों के अलावा चंडीगढ़ की इकलौती लोकसभा सदस्य ने और अकाली दल के पार्षद ने भी वोट डाला था।

वैसे चंडीगढ़ नगर निगम पर अपना कब्जा बनाए रखने के लिए, भाजपा ने कोई पहली बार धांधली का सहारा नहीं लिया है। वास्तव में वर्तमान नगर परिषद के दो साल पहले हुए चुनाव में, इससे पहले तक इस नगर निगम पर काबिज भाजपा जब 12 सीटें हासिल कर दूसरे नंबर पर खिसक गई और 14 सीटों के साथ आम आदमी पार्टी पहले नंबर पर आ गई, जबकि 8 सीटों के साथ कांग्रेस तीसरे नंबर पर तथा अकाली दल एक सीट के साथ चौथे नंबर पर गए, तभी से मोदी-शाही का इस प्रकट अल्पमत को बहुमत में तब्दील करने का खेल शुरू हो गया। सबसे पहले, कांग्रेस के एक पार्षद से दल-बदल करा के उसे भाजपा के पाले में लाया गया। उसके बाद, 2022 के शुरू में हुए मेयर चुनाव में, आप के बराबर 14 वोट भाजपा के पक्ष में करने के बाद, आप के एक पार्षद का वोट किसी प्रकार फटा हुआ होने के नाम पर खारिज कर भाजपा के उम्मीदवार को जिताया गया था, जिसे हाई कोर्ट में आम आदमी पार्टी ने चुनौती भी दी थी।

बहरहाल, इस बार इंडिया गठबंधन के सामने आने के बाद, चंडीगढ़ में मेयर और एक वरिष्ठ डिप्टी मेयर तथा एक डिप्टी मेयर के पद के लिए चुनाव पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच सहमति हो गई। जहां पिछले चुनावों में कांग्रेस के सात बचे हुए पार्षदों के चुनाव का बहिष्कार करने के सहारे भाजपा का, एकाध वोट की अपेक्षाकृत छोटी हेरा-फेरी से ही काम चल जाता था, इस बार कुल छत्तीस वोट में से बीस वोट के खिलाफ ‘जीत’ हासिल करने के लिए, उसे सीधे-सीधे मेयर चुनाव को ही हाईजैक करना पड़ गया। इसी खेल के हिस्से के तौर पर विपक्ष के बीस में से आठ वोट खारिज कर दिए गए और इस तरह भाजपा उम्मीदवार के सोलह वोट को, उसके विरोधी के बीस वोट से गिनती में ज्यादा कर दिया गया और भाजपा उम्मीदवार को चार वोट से जिता दिया गया।

याद रहे कि 30 जनवरी को, महात्मा गांधी के शहादत दिवस पर, खुलेआम जनतंत्र के अपहरण का यह खेल भी, मोदी-शाही को हाई कोर्ट के आदेश पर मजबूरी में खेलना पड़ा था। आप-कांग्रेस गठबंधन के चुनाव में उतरने केे ऐलान के बाद, चुनाव की तारीख पर अचानक चुनाव कराने के लिए जिम्मेदार अधिकारी के अस्वस्थ हो जाने और 6 फरवरी को ही चुनाव कराए जाने की घोषणा कर दी गई। इसे विपक्ष द्वारा अदालत में चुनौती दिए जाने पर, हाई कोर्ट ने इस प्रकार चुनाव स्थगन को मनमाना घोषित करते हुए, 30 जनवरी को ही चुनाव कराने का आदेश दिया था। लेकिन, ऐसा लगता है कि इस बीच मोदी-शाही ने यह चुनाव कराने का जिम्मा एक ऐसे अधिकारी को सौंपे जाने का इंतजाम कर दिया, जो पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के अनुसार, ‘भाजपा के अल्पसंख्यक विंग का पदाधिकारी’ है। याद रहे कि विरोधियों के ज्यादा वोटों को भी गिनती में कम कर देने के लिए, किसी न किसी बहाने से थोक के हिसाब से विरोधी वोटों को ‘अवैध’ घोषित करने का यह खेल भी, मोदी राज में कोई पहली बार नहीं खेला गया है। इससे पहले, बगल में ही हरियाणा में राज्यसभा के एक चुनाव में, भाजपा समर्थित और अब प्राय: दीवालिया मीडिया मुगल, सुभाष चंद्रा को ठीक इसी तिकड़म से जिताया गया था। उस चुनाव में विधायकों की इससे भी बड़ी संख्या के वोट, किसी दूसरे ही पैन से निशान लगाए जाने का तकनीकी बहाना बनाकर, खारिज किए गए थे।

बहरहाल, अगर बहस के लिए हम चुनाव में खुली धांधली के सवाल छोड़ भी दें, तब भी इस तरह के चुनाव के जरिए भाजपा चंडीगढ़ कार्पोरेशन पर काबिज तो बनी रह सकती है, लेकिन वह इसे अपनी ‘जीत’ और जाहिर है कि इंडिया की ‘हार’ भी किस तर्क से कह सकती है? आखिरकार, उसके उम्मीदवार की इस तरह की ‘जीत’ के बाद भी, यह सच्चाई तो बदलने नहीं जा रही है कि चंडीगढ़ नगर परिषद में भाजपा, एकजुट विपक्ष से काफी पीछे है। किसी जनतांत्रिक व्यवस्था में इस तरह की ‘जीत’ को एक विकृति ही माना जाएगा, न कि उसे ऐसी कामयाबी माना जाएगा, जिस पर कोई गाल बजा सके। आखिरकार, जनतंत्र का अर्थ बहुमत का आदर करने वाली व्यवस्था है, न कि बहुमत को किसी तिकड़म से पीछे धकिया देने वाली व्यवस्था। यह दूसरी बात है कि मोदी-शाही ने किसी भी तिकड़म से प्रकट अल्पमत को बहुमत बनाने को भी न सिर्फ जनतंत्र में सामान्य बना दिया है बल्कि ऐसा करने को अपने लिए चाणक्य नीति आदि, आदि के रूप में बहुत गर्व का विषय भी बना दिया है। चंडीगढ़ के मेयर चुनाव में जीत पर भाजपा अध्यक्ष, जेपी नड्डा की बधाई, इसी सच्चाई को दिखाती है।

बेशक, इस तरह की तिकड़मों से हासिल होने वाली सत्ता को भी, तानाशाह मिजाज की कोई भी ताकत सत्ता के रूप में ही देखेगी और इसका इस्तेमाल और ज्यादा सत्ता अपने हाथ में केंद्रित करने के लिए ही करेगी। विधानसभाई चुनाव में हार के बाद गोवा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि, अनेकानेक राज्यों में सरकारें बनाने से लेकर अब, चंडीगढ़ के मेयर चुनाव तक, सत्ता के लिए किसी भी छल-कपट का सहारा लेने में न हिचकने का ही सबूत दिया है। किसी भी तरह से सत्ता हथियाने को अगर कोई सत्ताधारी अपने लिए जनता के अनुमोदन या जनतांत्रिक अनुमोदन के साक्ष्य के रूप में चलाने में कामयाब हो सकता है, तो यह जनतंत्र के सुनिश्चित विनाश की ओर ही ले जाएगा। और इमरजेंसी का अनुभव गवाह है कि भारत की जनता, किसी भी तनाशाह को आसानी से जनतंत्र का विनाश नहीं करने देगी।

इसीलिए, बिहार में नीतीश कुुमार की पल्टी हो या अब, चंडीगढ़ के मेयर चुनाव में ‘खेला’, इन्हें मोदी-शाही अपनी ताकत के सबूत के रूप में चलाने की चाहे कितनी ही कोशिश कर ले, इन से उनकी बढ़ती असुरक्षा झांक ही जाती है। कर्नाटक के लिए जनता दल सेकुलर नाम की पार्टी के साथ गठबंधन, पंजाब में अकाली दल को फिर से साथ लेने के लिए किए जाते इशारे, महाराष्ट्र्र में शिव सेना में विभाजन कराने के बाद, एनसीपी में फूट डलवाने का खेल और अब बिहार का खेला, इसी तरह की कोशिशों के हिस्से हैं। ये आत्मविश्वास के नहीं, बदहवासी के ही इशारे हैं! यह दूसरी बात है कि इस बदहवासी पर ‘अति आत्मविश्वास’ के स्वांग का पर्दा डाला जा रहा है और मीडिया पर लगभग मुकम्मल नियंत्रण, यह पर्दा डाले रखने का मुख्य साधन है।

*(लेखक साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)*

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