शेखर गुप्ता
सबसे पहले उन लोगों की गिनती करें जिन पर विपक्ष, खासकर कांग्रेस अडाणी मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपनी विफलता के लिए आम तौर पर संदेह कर रही होगी. लेकिन स्थिति यह है कि विपक्ष तब तक विफल होता रहेगा जब तक वह इस सबसे महत्वपूर्ण सवाल का जवाब नहीं ढूंढ लेता कि मोदी सरकार के खिलाफ उसकी कोई भी मुहिम राजनीतिक विमर्श पर हावी क्यों नहीं हो पाती?
उसकी पहली उंगली उठेगी नरेंद्र मोदी और उस चीज की ओर, जिसे विपक्ष न्यायपालिका पर ‘संस्थागत कब्जा’ कहता है.
दूसरी उंगली खुद न्यायपालिका की ओर उठेगी. कहा जाएगा कि वह मोदी सरकार के खिलाफ तभी खड़ी होती है जब उसका अपना हित दांव पर लगा होता है, मसलन राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) एक्ट को रद्द करना.
और तीसरी उंगली समाचार मीडिया की ओर उठेगी. काश मीडिया ने अडाणी मामले को उस तरह के घोटाले की तरह उछाला होता जिस तरह उसने 2011-14 के दौरान 2जी आदि को या उससे पहले 1987-89 में बोफोर्स मामले को उछाला था.
इस सबके बाद हम मसले की जड़ तक पहुंचते हैं. नोटबंदी से लेकर रफाल और कृषि क़ानूनों से लेकर लद्दाख में चीनी चुनौती तक, या सामाजिक न्याय से लेकर अब अडाणी मसले तक को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ तमाम आरोपों का असर लोगों पर क्यों नहीं पड़ता?
यह स्तंभकार पहले लिख चुका है कि नरेंद्र मोदी एक ऐसे अनूठे नेता हैं जिनका कद सरकार विरोधी भावनाओं के कारण छोटा नहीं होता बल्कि वह जितने लंबे समय तक सत्ता में रहते हैं उनका कद और ऊंचा होता जाता है. इस कॉलम में हमने उनके लिए जिस विशेषण, ‘टेफ़्लॉन कोटेड’ का प्रयोग किया था वह भी अपर्याप्त होगा, क्योंकि टेफ़्लॉन भी समय के साथ कमज़ोर हो जाता है. इसलिए उन्हें टाइटेनियम धातु से बना नेता कहा जा सकता है.
याद रहे कि यह कॉलम 19 मई 2018 को प्रकाशित हुआ था. उसके बाद पूरे छह साल बीत जाएंगे जब अगला आम चुनाव इस साल मई में संपन्न होगा. क्या यह टाइटेनियम थोड़ा भी कमजोर पड़ा है?
क्या मोदी ने इस बीच कोई गलती नहीं की है? गलती किसी से भी हो सकती है, नीतियों के मामले में झटका लग सकता है. और भारत का जो माहौल है उसमें घोटालों के गंभीर आरोपों के जवाब देने पड़ सकते हैं. विपक्ष ने कई घोटालों की पहचान की है, मसलन— नोटबंदी, दोषपूर्ण जीएसटी, कृषि कानून (जिनका हमने संपादकीय तौर पर समर्थन किया था), और कोविड की दूसरी लहर के दौरान आया संकट. विपक्ष ने रफाल विमानों की खरीद और अडाणी के मामलों को लेकर बड़े घोटालों का माहौल बनाने की कोशिश भी की. लेकिन कुछ भी कारगर नहीं हुआ.
भारत में राजनीतिक बदलाव लाने के लिए सबसे पहला और सबसे जरूरी काम यह है कि आप इसमें कारगर हों. ऐसे पर्याप्त उदाहरण हैं कि हमारी राजनीति में तेजतर्रार विपक्षी नेता सिर्फ किसी एक आइडिया को आधार बनाकर जनभावनाओं को बदलने और नाटकीय राजनीतिक बदलाव लाने में सफल रहे. यह जरूरी नहीं है कि वह आइडिया पूरी तरह से वास्तविकता पर आधारित हो.
बोफोर्स ऐसी तोप नहीं थी जो आगे नहीं बल्कि पीछे की ओर मार करती हो, और इनकी खरीद में रिश्वत की कोई रकम 37 साल बाद भी बरामद नहीं हो पाई है. टेलिकॉम का 2जी घोटाला निश्चित ही 1.76 ट्रिलियन रुपये का नहीं था, न ही कोयला घोटाला 1.86 ट्रिलियन का था, न ही राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ा घोटाला 70,000 करोड़ का था. न ही चोरी के खरबों डॉलर स्विस बैंकों में पाए गए.
हर मामले में महत्वपूर्ण बात यह रही कि चुनौती देने वाला न केवल उसे भावनात्मक मुद्दा बनाने में सफल रहा बल्कि एक ऐसी मुहिम खड़ा करने में भी कामयाब रहा जिसने वोटरों को कायल कर दिया कि वे मुद्दे उनके लिए महत्वपूर्ण थे. उन्हें वोटरों ने इतना महत्वपूर्ण माना कि उन्होंने सरकार बदलने के बारे में सोच लिया. यह सिलसिला 1967 में शुरू हुआ जब वास्तविक अर्थों में पहला प्रतियोगी आम चुनाव हुआ.
हम घटनाओं के क्रम को थोड़ा उलट-पुलट करेंगे, और शुरुआत 1987-89 से करेंगे, बोफोर्स वाले दौर से. तमाम घोटालों के आकार को देखें तो बोफोर्स घोटाला (64 करोड़ रुपये का) 1987 वाले दौर के लिहाज से भी कोई बहुत बड़ा घोटाला नहीं था.
इसके बावजूद वी.पी. सिंह इसके बूते इतना बड़ा मुहिम खड़ा करने में सफल रहे कि लोग राजीव गांधी को चोर मानने लगे और चुनाव में उन्हें गद्दी से उतार दिया. वी.पी.सिंह को प्रधानमंत्री की गद्दी मिली लेकिन थोड़े समय के लिए ही. वीपी सिंह ने हिंदी ‘हार्टलैंड’ में अपनी पार्टी और उसके सहयोगियों को लगभग उसी तरह बड़ी जीत दिलाई, जिस तरह मोदी ने 2014 और 2019 में जीत हासिल की.
वी.पी.सिंह के जमाने में न टीवी समाचार चैनल थे और न सोशल मीडिया था, तो आखिर वे अपना संदेश वोटरों तक कैसे पहुंचा पाए, और उनका संदेश क्या था? 1988 की गर्मियों में हुए उप-चुनाव में वे जब इलाहाबाद के गांवों में मोटरसाइकिल पर चुनाव प्रचार करते घूम रहे थे तब उन पर करीब से नजर रखने वाले पत्रकारों में मैं भी शामिल था.
उनकी पार्टी के कार्यकर्ता गांवों में लोगों को किसी पेड़ के नीचे इकट्ठा करते. लोगों की संख्या प्रायः कम ही होती थी. वी.पी.सिंह अपना भाषण प्रायः इस तरह शुरू करते कि “मैं आपको यह बताने के लिए आया हूं कि आपके घरों में किस तरह सेंध लगाई गई है.” इसके बाद वे अपनी जेब से माचिस की डिब्बी निकालते और लोगों से कहते कि आप लोग चाहे कितने भी गरीब हों, आप दियासलाई तो खरीदते ही हैं. इसकी जो कीमत आप देते हैं उसमें से कुछ पैसा टैक्स के रूप में सरकार को जाता है. वह आपका पैसा है. इस पैसे से सरकार आपकी सेना के लिए तोप खरीदती है. अगर इसमें से कुछ पैसा उन्होंने चुराया है तब क्या उन्होंने आपके घर में सेंध नहीं लगाई? यह, और राजीव गांधी की कांग्रेस का 414 सीटों से 197 सीटों पर सिमट जाना मेरी नजर में भारतीय राजनीति में आया सबसे नाटकीय और अप्रत्याशित बदलाव था.
घटनाक्रम में उलटफेर करते हुए हम आगे-पीछे जा सकते हैं. 1971 में पूरे विपक्ष और कांग्रेस (ओ) (कांग्रेस विभाजन के बाद उसके एक गुट) की एकजुट चुनौती को तोड़ने के लिए इंदिरा गांधी ने किस मुद्दे को उछाला था? उन्होंने कहा था– वे कहते हैं, इंदिरा हटाओ; इंदिरा कहती है, गरीबी हटाओ. अब फैसला आपको करना है.
उस समय कोई भी यकीन नहीं करता कि भारत से गरीबी हटाना आसान है. लेकिन 1971 में इंदिरा गांधी को 518 में से 352 सीटें मिलीं और उन्होंने लगभग जवाहरलाल नेहरू की बराबरी कर ली जिन्हें 1962 में अपने आखिरी चुनाव में लगभग इतनी ही सीटें मिली थीं.
इंदिरा गांधी को इमरजेंसी के कारण हार का सामना करना पड़ा, लेकिन देखिए कि उन्होंने अपनी वापसी किस तरह की. जनता पार्टी की सरकार बिखर चुकी थी, और उन्होंने एक नए जुमले का आविष्कार करते हुए उसे ‘खिचड़ी सरकार’ नाम दे दिया. आप वही खिचड़ी सरकार चाहते हैं या मेरी मजबूत सरकार की वापसी चाहते हैं? और वे फिर से सत्ता में आ गईं, 529 में से उतनी ही 353 सीटों के साथ.
2004 में भी, जब वाजपेयी सरकार दोबारा जनादेश हासिल करने में नाटकीय और अप्रत्याशित रूप से विफल रही, तब कांग्रेस राजनीतिक कल्पनाशीलता ही नहीं बल्कि भावनात्मक अपील के लिहाज से भी जोरदार आइडिया लेकर आई थी. भाजपा का अभियान ‘इंडिया शाइनिंग’ (भारत उदय) के नारे पर केन्द्रित था. कांग्रेस का जवाब था- ‘इंडिया शाइनिंग’ तो ठीक है मगर इसमें आपको क्या मिला? यह जवाब कारगर रहा. मेरी नजर में यह 1989 में वी.पी. सिंह प्रकरण के बाद दूसरा सबसे नाटकीय राजनीतिक बदलाव था.
अब मैं आपको फिर से 1967 में ले जा रहा हूं, जब वास्तव में पहला प्रतियोगी चुनाव लड़ा गया था. तब कांग्रेस का आंकड़ा पहली बार 300 सीटों से नीचे चला गया था. भारत कई संकटों से जूझ रहा था और अपनी पार्टी पर इंदिरा गांधी की पकड़ कमजोर थी, लेकिन विपक्ष के पास भी देने को कोई विकल्प नहीं था. उस समय का एक नारा मुझे याद आता है– ‘इंदिरा तेरे शासन में, कूड़ा बिक गया राशन में’. आप इसकी यह भी व्याख्या कर सकते हैं कि इंदिरा के राज में राशन कार्ड पर जो बिक रहा है वह सब कूड़ा है. जो भी हो, देश का मूड ऐसा बना कि इंदिरा गांधी को बहुमत से महज 21 सीटें ज्यादा (लोकसभा की 523 में से 282 सीटें) मिलीं. कई प्रमुख राज्यों में उनकी पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा और वहां ढीले-ढाले गठबंधनों ने सत्ता संभाली.
और अंत में पांचवीं घटना, 2014 में मोदी का उत्कर्ष. भाजपा-आरएसएस मशीन ने भ्रष्टाचार विरोधी जोरदार मुहिम तो खड़ी कर दी थी और मनमोहन सिंह की छवि एक कमजोर प्रधानमंत्री वाली बना डाली थी, लेकिन मोदी अपना नारा लेकर आए, ‘अच्छे दिन’ लाने का नारा. इस सबका कुल असर यह हुआ कि 2009 में 206 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 2014 में मात्र 44 सीटों पर सिमट गई.
यानी निष्कर्ष यह है कि चुनौती देने वाले घोर निराशाजनक स्थिति से भी उबरकर ताकतवर सत्ताधारी को हराने में सफल रहे हैं. लेकिन इसके लिए उन्हें एक बड़े ‘आइडिया’, विश्वसनीयता, और मतदाताओं के दिलों में उतर जाने वाले नारे की जरूरत होती है. यह सब जुटा लेने के बाद भी आपको ज़मीन पर कम-से-कम दो साल कड़ी मेहनत करने की जरूरत होती है.
सबसे महत्वपूर्ण सबक यह है कि आपको अपना राजनीतिक संदेश तय करना और उसे खुद लोगों के बीच मान्य करवाना पड़ता है. यह काम आप अदालतों, मीडिया, एनजीओ और सिविल सोसाइटी (मसलन नागरिकता कानून विरोधी आंदोलनों) के भरोसे नहीं छोड़ सकते कि वे विपक्ष की भूमिका निभाएंगे. मोदी को चुनौती देने वाले दरअसल यही करते रहे हैं, जिसका नतीजा हम देख चुके हैं.
(संपादनः शिव पाण्डेय)