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कहीं ज्‍यादा प्रासंगिक हो चुका है हिटलर की सत्‍ता का उदय आज 2024 में

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1933 में अडॉल्‍फ हिटलर की सत्‍ता का उदय आज 2024 में कहीं ज्‍यादा प्रासंगिक हो चुका है। दुनिया का ज्‍यादातर हिस्‍सा इस साल निर्णायक चुनावों में जा रहा है। दुनिया की आधी आबादी अपनी किस्‍मत का फैसला अपने वोट से करने जा रही है। चेतावनी के संकेत यहां-वहां बिखरे पड़े हैं, लेकिन कुछ जानकार खुलकर अब कह रहे हैं कि लिबरल जनतंत्र चुनावी दांव पर लग चुका है। इतिहासकार मार्क जोन्‍स की महत्‍वपूर्ण टिप्‍पणी

30 जनवरी, 1933 को अडॉल्‍फ हिटलर जर्मनी का चांसलर नियुक्‍त किया गया। उसके समर्थकों के लिए वह राष्‍ट्रीय क्रांति और पुनर्जन्‍म का दिन था। वे मानते थे कि चौदह साल के उदारवादी-जनतांत्रिक वायमर ‘सिस्‍टम’ के बाद जर्मनी को एक ऐसे निरंकुश बाहुबली की जरूरत है जिसके पास चीजों को बहाल करने की ताकत हो। उस रात, भूरी शर्ट वाला हिटलर का हिरावल दस्‍ता नए युग के आगाज का संदेश लेकर सेंट्रल बर्लिन की सड़कों पर मार्च करने उतरा था।

लोकप्रिय छलावों के इतिहास में भी वह दिन विजय का एक पल था। वायमर गणराज्‍य के शुरुआती दिनों से ही उसकी राजनीति कुप्रचार अभियानों पर टिकी थी, जिसमें एक झूठ यह था कि वायमर का जनतंत्र दरअसल यहूदियों और सोशलिस्‍टों के एक ऐसे गिरोह का किया-धरा था जिन्‍होंने पहले विश्‍व युद्ध में जर्मनी की हार सुनिश्चित करने के लिए उसकी पीठ में छुरा घोंपा था।

आज कुछ ही लोग होंगे जो इस बात से इत्‍तेफाक नहीं रखते होंगे कि हिटलर का उदय विश्‍व इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था- एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया का आरंभ जिसने दूसरे विश्‍व युद्ध को जन्‍म दिया और होलोकॉस्‍ट को पैदा किया। लेकिन हिटलर ने ‘सत्‍ता छीनी नहीं’ थी, जैसा कि बाद में नाजियों का दावा रहा। इसके बजाय, जैसा कि उसके जीवनी लेखक इयान करशॉ ने विस्‍तार से लिखा है, उसे कुछ रसूखदार लोगों के एक छोटे से समूह ने ‘सत्‍ता में बैठाया’ था।   


Hitler did not “seize power,” as the Nazis later claimed. Instead, as his biographer Ian Kershaw has explained, he was “levered into power” by a small group of influential men. Photo via Project Syndicate

इनमें एक शख्‍स थे फ्रांज़ वॉन पापेन, जो 1932 में जर्मनी के चांसलर रहे। उन्‍हीं का (कुख्‍यात) खयाल था कि हिटलर और नाज़ी पार्टी- 1932 के राइश्‍टैग चुनावों के बाद उभरी सबसे बड़ी पार्टी- का इस्‍तेमाल एक रूढ़िवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने में किया जा सकता है। इसी तरह, जर्मनी के राष्‍ट्रपति, पूर्व फील्‍ड मार्शल पॉल वॉन हिंडेनबर्ग राजतंत्र को बहाल करने के लिए हिटलर का इस्‍तेमाल करना चाहते थे।

इन रूढ़िवादियों की योजनाओं को बहुत जल्‍द हिटलर ने अपने निर्मम नेतृत्‍व और नाज़ी हिंसा से झाड़-बुहार कर किनारे लगा दिया। जिस राष्‍ट्रीय पुनरोदय का वादा किया गया, जर्मनी की जनता उसका हिस्‍सा बनने और हिटलर की सत्‍ता का साथ देने के लिए उमड़ पड़ी। लिहाजा, हिटलर का विरोध करने वाले लिबरल और सोशल डेमोक्रेट (उदारपंथी और सामाजिक जनवादियों) से या तो हिंसा से निपटा गया या फिर वे अपने ही आशावादी पलायनवाद के जाल में फंस कर रह गए। चीजें जितनी बुरी होती जाती थीं, वे खुद को उतना ही आश्‍वस्‍त करते जाते थे कि एक न एक दिन हिटलर का राज जरूर खत्‍म होगा। वे मानते थे कि नाज़ी पार्टी का अंदरूनी संघर्ष निश्चित रूप से नई सरकार के पतन का कारण बनेगा।

लिबरल और सोशलिस्‍टों से इतर, जर्मन समाज का एक बड़ा तबका यह मानकर चल रहा था कि सभी जर्मनों का राष्‍ट्रपति होने के चलते हिंडेनबर्ग कम से कम हिटलर के ऊपर लगाम रखेंगे। कुछ और लोग ऐसी उम्‍मीद फौज से लगाए बैठे थे। वायमर गणराज्‍य के अंतिम वर्षों में सम्‍माननीय दिखने के हिटलर के सामर्थ्‍य ने इन सभी की आंख में धूल झोंक दिया।

हिटलर के चांसलर बनने के 100 दिन के भीतर, जैसा कि इतिहासकार पीटर फ्रित्‍ज़े लिखते हैं, सत्‍ता के लिए नाजियों की निर्मम भूख एकदम से साफ हो गई। 1933 की गर्मियां खत्‍म होते-होते जर्मनी का समाज एकदम पटरी पर लाया जा चुका था। अब न कोई स्‍वतंत्र पार्टी बची थी, न ट्रेड यूनियन या कोई सांस्‍कृतिक संगठन। केवल कुछ ईसाई चर्चों को एक हद तक की आजादी मिली हुई थी।

साल भर बाद 1934 की गर्मियों में हिटलर ने अपनी पार्टी के आंतरिक प्रतिद्वंद्वियों की हत्‍या का आदेश जारी किया। इसके बाद 2 अगस्‍त को हिंडेनर्ग की मौत हुई और उसने खुद को जर्मन फ्यूरर घोषित कर डाला। उसकी तानाशाही अब मुकम्‍मल हो चुकी थी। उस वक्‍त तक शुरुआती यातना शिविर चालू हो चुके थे और काम कर रहे थे। समूची अर्थव्‍यवस्‍था को जंग की राह में झोंका जा चुका था।

इतिहास का यह दौर आज भी उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है। इस साल दुनिया भर में करोड़ों लोग निर्णायक माने जा रहे चुनावों में अपना वोट देंगे। चेतावनी के संकेत यहां-वहां बिखरे पड़े हैं, हालांकि कुछ टिप्‍पणीकार खुलकर इस बात को कहने के लिए तैयार हैं कि: 2024 नया 1933 हो सकता है।


At least 64 countries as well as European Union is going into elections this year
दुनिया की आधी आबादी इस साल कम से कम 64 देशों और यूरोपीय संघ के चुनाव में वोट देगी
(साभार: टाइम डॉट कॉम)

मसलन, आप आज से साल भर बाद की दुनिया का तसव्‍वुर कर के देखिए, जब कुप्रचार ने दुनिया भर की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकारों को गिरा दिया होगा। राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रम्‍प के नेतृत्‍व में अमेरिका, युक्रेन का समर्थन बंद कर दे। ऐसे में समूचे पूर्वी यूरोप में एक नया रूसी साम्राज्‍य खड़ा करने के व्‍लादीमिर पुतिन के सपने को पूरा करने की राह में नाटो की अड़चन न रह जाए। उधर यूरोपीय संसद में अतिदक्षिणपंथी दलों का बड़ा धड़ा इस घटनाक्रम पर यूरोप की समेकित प्रतिक्रिया को ही आने से रोक दे। पोलैंड, एस्‍तोनिया, लिथुआनिया और लातविया अकेले पड़ जाएं। तब तक गाजा की जंग एक क्षेत्रीय संघर्ष बन चुकी होगी, जिसका लाभ उठाकर पुतिन लंबी दूरी वाली मिसाइलों के सहारे एक और हमला झोंक देंगे। उधर, इस तमाम अस्थिरता के बीच चीन तय कर ले कि उसे ताइवान को कब्‍जाना है।

2024 के लिए इस दुनिया की संभावनाएं इतनी नाजुक हैं कि बहुत से लोग उसके बारे में सोचने से भी कतरा रहे हैं। जिस तरह 1933 में लिबरलों ने भविष्‍यवाणी की थी कि जल्‍द ही हिटलर का पतन हो जाएगा, ठीक वैसे ही आज सदिच्‍छापूर्ण सोच हमारी निर्णय क्षमता को धुंधला कर रहा है। पहले विश्‍व युद्ध के छिड़ने पर क्रिस्‍टॉफर क्‍लार्क ने जो सटीक मुहावरा इस्‍तेमाल किया था, उसे उधार लेकर कहें तो, हम सब सोये में चले जा रहे हैं एक नई अंतरराष्‍ट्रीय व्‍यवस्‍था की ओर!    

युद्ध के दौर पर दो अंकों में लिखे अपने शानदार इतिहास में ज़ारा स्‍टीनर 19129-33 के दौर को ‘हिन्‍ज ईयर्स’ यानी कब्‍जे के वर्ष कहती हैं, जब अंतरराष्‍ट्रीय सम्‍बंधों में आदर्शवाद की जगह ‘अंधेरे की जीत’ ने ले ली। लेकिन उससे पहले 1926 तक भी देखें, तो हम पाते हैं कि लिबरल जीतते हुए दिख रहे थे: फ्रेंच विदेश मंत्री एरिस्‍टाइड ब्रायंड और जर्मन विदेश मंत्री गुस्‍ताव स्‍त्रेसमान को फ्रांस-जर्मनी सम्‍बंध बहाली पर उनके काम के लिए साझे में नोबेल शांति पुरस्‍कार मिला था और जर्मनी लीग ऑफ नेशंस का हिस्‍सा बना था। मुसोलिनी के इटली का अतिराष्‍ट्रवाद उस समय एक पृथक परिघटना थी जो अलग-थलग सी दिखती थी।  

आज के मौजूदा वैश्विक संकट के सामने आशावाद के लिए कोई जगह नहीं है। हम सब संभवत: कब्‍जे के वर्षों में प्रवेश कर चुके हैं। फिर भी, अगर लिबरल ताकतें तत्‍काल सक्रिय होती हैं तो वे खुद को बचा सकती हैं।



इस संदर्भ में संकेत उम्‍मीद बंधाते हैं। सैकड़ों हजारों जर्मनों ने हाल ही में जनतंत्र और विविधता के हक में सड़कों पर उतर पर प्रदर्शन किया है और अतिदक्षिणपंथ को खारिज किया है। किसी एक देश में हालांकि प्रदर्शन होने पर्याप्‍त नहीं हैं। जर्मनी के लिबरलों के साथ दूसरे देशों के लोगों को भी आना होगा। समूचे महाद्वीप के स्‍तर पर अगर कोई प्रदर्शन होता है, तो उससे एक मजबूत संदेश जाएगा। इसकी जरूरत का अहसास ऊपर तक भी जाना चाहिए, जैसे जेपी मॉर्गन चेज के सीईओ जेमी डिमॉन सरीखे बिजनेस लीडरों तक, जिन्‍होंने अपना नफा-नुकसान नापने-तौलने के बाद ट्रम्‍प को तेल लगाना शुरू कर दिया है।         

बहुत दिन नहीं बीते जब यूरोप के तमाम नेता साथ आए थे और यूरो को बचाने के लिए उन्‍होंने अपनी सारी ताकत झोंक दी थी। वे इस बात को समझ रहे थे कि इस एक मुद्रा का नाकाम होना यूरोपीय संघ के अंत का पर्याय होगा। अब यूरोप के लोगों को ऐसी ही आपात स्थिति का हवाला देकर उन्‍हें चेताना चाहिए, उनसे मांग करनी चाहिए ताकि इस साल आने वाले खतरों से निपटा जा सके। यूरोपीय संघ को नाटो-रहित दुनिया की एक वैकल्पिक योजना की दरकार है। उसे वे नए तरीके चाहिए जिससे वह सदस्‍य-देशों के नेताओं, जैसे हंगरी के प्रधानमंत्री विक्‍टर ओर्बन और स्‍लोवाकिया के प्रधानमंत्री रॉबर्ट फिको से निपट सके, जो जनतंत्र को बचाने के बजाय पुतिन का हाथ चूमने को तैयार बैठे हैं। इसके बाद भी यूरोपीय संघ के भीतर ओर्बन के पास निर्णयों के मामले में वीटो का अधिकार होना सर्वथा अस्‍वीकार्य है।     

अमेरिका में जनता की राजनीतिक एकजुटता एक बड़ा फर्क डाल सकती है। ट्रम्‍प के विरोधियों को अपने मतभेद दरकिनार कर के राष्‍ट्रपति जो बाइडेन के साथ खड़ा होना चाहिए। हम सब इस बात को अच्‍छे से समझते हैं कि हमारे बीच एकता का न होना और थोथे आशावाद का होना हमें कहां ले जा सकता है।

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