(बसंत- बेलेंटाइन पर विशेष)
~नीलम ज्योति
प्रेम करना गलत नहीं, सही है और जरूरी भी है : लेकिन ऐसे इंसान से प्रेम मत करो जो प्रेम सिर्फ तुम्हारे जिस्म से करता हो. आजकल के लड़के-लड़कियां प्यार करते हैं, बस प्यार के इजहार के साथ ही हम-बिस्तर होना शुरू हो जाते हैं।
धिक्कार है ऐसे प्यार पर जिसे निभाने के लिए जिस्म का सौदा करना पड़े. ये कैसा प्यार जो नग्न अवस्था में सेल्फी लेते हो. ये कौन सा प्यार है जो अपने सेक्स की विडियो बना कर समाज को गंदगी का संदेश देते हो.
एक कड़वा सत्य सुनो लड़कियों!
ये सेल्फी और विडियो तुम्हारे जीवन और चरित्र पर खतरा बन जाता है. इस सेल्फी और वीडियो के जरिए बारबार तुम्हे ब्लैकमेल करने का धंधा होता है. धमकी देकर तुम्हें उस प्यार के नाम पर रखैल बन कर रहना पड़ सकता है, कईयों तक से. तुम्हें ये प्यार लगता है.
जिस दिन मना कर दोगी कि नही मुझे ये सब अच्छा नही लगता है क्यूं करते हो ये सब? उस दिन वही नग्न फोटो, वीडियो वायरल किया जायेगा. तुम्हारे चैटिंग भी वायरल किया जाएगा।
तो उस दिन सोचो तुम्हारे परिवार वालो पर क्या गुजरेगी ? तुम्हारा चंद मिनट की मजा तुम्हारे परिवार वालो के लिए जिंदगी भर के लिए सजा बन जाएगा. फिर तुम्हारे पास मरने के अलावा जीवन में कोई मार्ग नहीं बचेगा.
सब लड़कियों से आग्रह है कि ऐसा कोई भी काम ना करे जिससे आपके परिवार को, समाज में नजर झुकाकर चलना पड़े. ये जो इज्जत होती है सबसे अनमोल चीज है, इसे बनाने में पूरी जिंदगी लग जाती है लेकिन बिगाड़ने के लिए एक गलती ही काफी होती है।
प्यार करना गलत बात नहीं है, लेकिन प्यार के नाम पर हवस के शिकार होना ग़लत है. हम-बिस्तर होना ग़लत है. प्यार तो छुए बिना भी संभव है. यह एक एहसास है, समर्पण है, जीवन का आधार है।
बहुत लड़कियां मुझसे ये कहेंगी कि हम लङकियो को समझाने से अच्छा लड़को को समझाओ. तो सुनो,
तुम्हारी मर्जी के खिलाफ लड़को के बाप की भी औकात नही है की वो तुम्हें हाथ तक लगा सके. इज्जत के मायने में एक लड़की अपने पिता के पगड़ी होती है, इसे बचाना तुम्हारा ही धर्म है।
*फैशन में भी पेसेंस की जरूर :*
फ़ैशन के नाम पर अंगप्रदर्शन, आधुनिकता के नाम पर फूहड़ता और लिव इन रिलेशनशिप का समर्थन करते हुए अधिकतर 16 वर्ष से 66 वर्ष की लड़कियों ने अपना मत रखा : पुरुष भी तो करते हैं, ताली एक हाथ से नहीं बजती है. हम भी अपनी मर्जी के मालिक हैं. हमें भी आजादी है अपने फैसले लेने की.
बिल्कुल सही कह रही हो आप कि नारी को भी आजादी चाहिए किंतु आप भूल रही हो कि आज़ादी का अर्थ कपड़े से आज़ादी नहीं है. आप जिन स्टार्स, सेलिब्रिटी आदि लोगो का उदाहरण देते हुए अंगप्रदर्शन, लिव इन रिलेशनशिप और कई लड़कों से संबंध का और आसामाजिक कृत्य का समर्थन कर रही हो : क्या आप नहीं जानती कि ऐसे आचरण वालों को सभ्य और संस्कारी परिवार क्या कहते हैं ? लिव इन रिलेशनशिप को क्या कहते हैं?
नारी को उसके मर्यादित और संस्कारी गुणों के कारण ही देवीतुल्य माना जाता है। नारी के पतिव्रत के कारण ही उसे नारायणी माना जाता है। लिव इन रिलेशनशिप या रखैल रखनी : बात एक ही है. जिसे आज की पीढ़ी आइटम डांस समझती है, उसे ही रंडीनाच कहते हैं।
मार्डन, स्टैंडर्ड, और आधुनिकता के नशे में फैशन के नाम पर अंग प्रदर्शन करने लगे हैं लोग, और हमें एहसास तक नहीं हो रहा है। कितनी लडकियां कट गई, ब्रीफकेस में मिली, उन सबका भी कहना था कि “मेरा वाला ऐसा नही है.
मां-बाप बच्चों का भविष्य बनाने के लिए उन्हें छूट देते हैं और बच्चे उसका नाजायज फायदा उठाते हैं और हादसों का शिकार होते हैं. पीछे छोड़ जाते हैं अपने-अपने मां बाप को जीवनभर घुटघुट कर जीने के लिए।
तुम देवी तुल्य हो. जगत जननी हो. सर्व शक्तिशाली हो. तुम अपनी रक्षा व देश की रक्षा करने मे भी सक्षम हो और संहार करने में भी. तो रानी लक्ष्मीबाई बनो, कोई मुन्नीबाई तवायफ नहीं.
*विवाह बंधन में बंधने की अनिवार्यता स्वीकारें*
जीवन को सार्थक बनाने हेतु पवित्र विवाह बंधनों में बंधना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। जिसका कटुसत्य यह है कि सनातन धर्म का उक्त बंधन अत्यधिक चुनौतीपूर्ण है। चूॅंकि उपरोक्त भारतीय सनातनधर्मी सभ्यता और संस्कृति में मात्र एक बार उक्त बंधन में बंधने के उपरान्त एक जीवन में ही नहीं बल्कि सात जन्मों तक निर्वहन करने का प्रण लिया जाता है।
इसका निर्वहन करना पति एवं पत्नी का मौलिक कर्तव्य बन जाता है। क्योंकि सनातन धर्म में मात्र “शुभ विवाह” का ही प्रावधान है और शुभ विवाह में “विवाह विच्छेद” का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है। अर्थात दम्पत्ति उक्त मौलिक कर्तव्यों का निर्वहन भले कोल्हू का बैल बन कर पूर्ण करें अथवा एक दूसरे में समा कर जीवन का लौकिक, अलौकिक एवं पारलौकिक आनन्द प्राप्त करें।
परन्तु कटुसत्य यह भी है कि भारत विकास कर रहा है और उक्त विकासशील आधुनिकता में भारतीय किशोर अथवा किशोरियॉं भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रायः परित्याग कर पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का अनुसरण करते हुए उस कलॅंकित सभ्यता में ढल रहे हैं जिसमें डिवोर्स नामक डायनासोर इक्कसवीं शताब्दी में भी अर्थात संबंध विच्छेद अर्थात विवाह विच्छेद का बोलबाला है जिसके फलने फूलने की संभावनाऍं तीव्रता से बढ़ रही हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि पहले विवाह करो, बच्चे उत्पन्न करो और तत्पश्चात अपनी विवाहित गलतियों का दण्ड निर्दोष बच्चों को देकर विवाह विच्छेद कर लो। अर्थात दम्पत्ति अपने दुखों को आमंत्रित करने सहित अपने अबोध बच्चों के उज्ज्वल भविष्य का सत्यानाश कर अलग हो जाते हैं।
जिन्हें मानसिक और शारीरिक यातनाऍं व प्रताड़नाऍं कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। जिसका पक्ष भारतीय संविधान भी लेता है। चूॅंकि संविधान निर्माता पश्चिमी सभ्यता से बैरिस्टर बन कर आए हुए थे। जिन्हें एक ओर भारतीय सभ्यता और संस्कृति का मूल ज्ञान ही नहीं था और दूसरी ओर वह लॉर्ड मैकाले शिक्षा पद्धति से प्रभावित थे।
आधुनिक विकासशीलता का एक दुखद पहलू यह भी है कि दम्पत्ति के दोनों ओर के परिवार वालों के बड़े बुजुर्गो से लेकर उनके सगे संबंधियों सहित दोनों ओर की बिरादरियों के उच्च पदस्थ पदाधिकारी भी अपने मौलिक कर्तव्यों को भूलकर अर्थात ठेंगा दिखाकर उनका अद्वितीय अद्भुत नाच अर्थात कलॅंकित तमाशा देखने में व्यस्त हो जाते हैं।
प्रश्न स्वाभाविक एवं संवैधानिक है कि यह आधुनिकता के नाम पर कौन सा विकास और कौन सी आधुनिक विकासशीलता है?
उल्लेखनीय है कि माता पिता के नित्य प्रतिदिन के आधारहीन झगड़ों के बीचों बीच तनावपूर्ण वातावरण में पले बढ़े किशोर किशोरियॉं माता पिता से ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण सभ्य समाज से निर्भीक एवं निसंकोच प्रश्न पूछने लगे हैं कि स्पष्ट बताऍं कि विवाह का उद्देश्य क्या होता है और यह अनिवार्य क्यों होता है? हालॉंकि उत्तर देने में बड़े बड़े विद्वान महारथी उत्तरदाता बगलें झेंपते हुए दिखाई देते हैं।
चूॅंकि यह प्रश्न ही गंभीर है और व्यर्थ के झगड़े में उलझने से डर कर एक रटा रटाया उत्तर देते हैं कि संतान उत्पत्ति अथवा वंश बढ़ाने हेतु विवाह किया जाता है। जबकि यह अर्ध सत्य है।
जबकि एकमात्र कटुसत्य यह है कि निर्धारित ब्रह्मचर्य अवधि की दहलीज लॉंघकर पवित्र विवाह का सर्वप्रथम एवं सर्वोच्च उद्देश्य विवाहित दम्पत्ति के सार्वजनिक सामाजिक एवं धार्मिक “दाम्पत्य सुखद संबंधों” से होता है जिसे पॅंडितों द्वारा चतुराई से संसदीय भाषा का सभ्य प्रयोग करते हुए उपरोक्त सुखद सम्बन्धों की व्याख्या करते हुए मात्र “संतान उत्पत्ति” की शुद्ध संज्ञा दी जाती है।
क्योंकि सार्वभौमिक सत्य है कि दाम्पत्य जीवन में सन्तान स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है। इसका अटल सत्य यह है कि संतान उत्पत्ति के लिए कोई अलग से ठोस क्रिया अथवा कठोर परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं होती और न ही कोई साहित्यिक अथवा जीवविज्ञान का विद्वान विज्ञानिक इसे झूठला सकता है। क्योंकि युगों-युगों से योग और भोग दोनों ही मोक्ष प्राप्ति के आधार माने जाते हैं।
उदाहरणार्थ इसके लिए कामसूत्र पर आधारित खजुराहो के प्राचीन सनातन मंदिर पूर्णतया साक्षी हैं और सत्य यह भी है कि काम, क्रोध, लोह, मोह और अंहकार पर विजयश्री प्राप्ति का सरल सौभाग्य भी पवित्र विवाह-सम्बन्ध से ही संभव है।