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*महान क्रान्तिकारी संत रैदास* 

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रजनीश भारती

चेतना हमेशा पदार्थ से निकलती है। पदार्थ से अलग चेतना का कोई वजूद नहीं हो सकता। रैदास के जो क्रान्तिकारी विचार हैं वे विचार उस वक्त की भौतिक परिस्थितियों में ही पैदा हो सकते थे। हम उस वक्त की भौतिक परिस्थितियों से जोड़कर ही रैदास के क्रान्तिकारी विचारों को सही अर्थों में जान सकते हैं।

क्रान्तिकारी संत रैदास का जन्म पंद्रहवीं सदी में हुआ। इनका जन्म स्थान आज के उ.प्र. के वाराणसी जिले में हुआ था। इन्हें रविदास के नाम से भी जाना जाता है। परन्तु इनका नाम “रविदास” कत्तई नहीं था, ‘रविदास’ नाम तो पाखण्डियों द्वारा अभी हाल ही में दिया गया है। 

महान क्रान्तिकारी संत रैदास जी संत कबीर के समकालीन थे। ये वो दौर था जब हमारा समाज दस्तकारी युग से मैन्यूफैक्चरी के युग की ओर बढ़ रहा था। आप जानते होंगे कि दस्तकारी में एक कारीगर एक माल के सभी हिस्से को अकेले तैयार करता है, जब कि मैन्यूफैक्चरी में एक माल के अलग-अलग भाग को अलग-अलग कारीगर बनाते हैं। उदाहरण के लिये एक जूते को अकेले एक कारीगर पूरी तरह बनाता है तो इसे दस्तकारी कहते हैं, और जब जूता बनाने के लिये एक छत के नीचे कई कारीगर होते हैं और प्रत्येक कारीगर जूते के अलग-अलग हिस्से को बनाता है, तब जाकर सभी हिस्सों को जोड़कर एक जूता पूरी तरह तैयार होता है। इस तरह किसी एक जूते के अलग-अलग हिस्से को अलग-अलग कारीगर बनाते हैं, इसी को मैन्यूफैक्चरी कहते हैं। 

इस तरह दस्तकारी के उत्पाद को बनाने वाला कोई कारीगर यह दावा कर सकता है कि इसे मैंने बनाया है मगर मैन्यूफैक्चरी के उत्पाद को कोई एक कारीगर नहीं कह सकता कि यह मेरा उत्पाद है। इसमें सामूहिक उत्पादन होता है। यह मैन्यूफैक्चरी आगे चलकर बड़े उद्योगों का आधार तैयार करती है।

मैन्यूफैक्चरी में सामूहिक उत्पादन होता था, इसी लिये दस्तकारी के मुकाबले मैन्यूफैक्चरी कम श्रम में अधिक उत्पादन होता है। कई कारीगरों के हाथों से गुजरने के बाद ही माल तैयार हो पाता है तो उत्पादित माल की गुणवत्ता भी दस्तकारी की अपेक्षा बढ़िया होती है।

रैदास कोई साधारण मोची नहीं थे, वे एक शाही मोची थे। मैन्यूफैक्चरी के रूप में इनकी छोटी सी कार्यशाला थी, जिसमें इनके कई शागिर्द काम करते थे। इनकी मैन्यूफैक्चरी के बने जूते बहुत बड़े-बड़े राजे-रजवाड़े पहनते थे। राजे-रजवाड़े इन्हें जूते की कीमत तो देते ही थे, साथ-साथ बक्शीश भी देते थे। जिससे ठीक-ठाक आमदनी हो जाती थी। जब पेट भरने लगता है तो नये-नये विचार भी पैदा होते हैं, सम्मान की भूख भी जाग उठती है।

जब शूद्रों के पास कोई सम्पत्ति नहीं हुआ करती थी तो उन्हें मन्दिर में प्रवेश करने की बात छोड़िये। उनको मंत्र उच्चारण तक की मनाही थी। परन्तु जब शूद्रों के पास भी थोड़ी सम्पत्ति आने लगी तो कुछ प्रगतिशील पण्डों ने समझा कि उन शूद्रों से भी दान, चन्दा, चढ़ावा वसूला जा सकता है, अत: उन्हें भी गुरुमंत्र देने और मन्दिर में प्रवेश देने की वकालत शुरू कर दिया।

इसी समय भारत में इस्लाम धर्म का प्रचार तेजी से बढ़ रहा था, हिन्दू धर्म के मठाधीशों को लगा कि अब कहीं सारे शूद्र मुसलमान बन जायेंगे तो हमें कौन पूछेगा। इस दबाव के कारण जहां तुलसी दास को अपनी रचना में राम द्वारा शबरी नामक भीलनी का जूठा बेर खाने वाली कहानी गढ़ कर सवर्णों को शूद्रों के प्रति छुआछूत खत्म करने की प्रेरणा देना पड़ा। वहीं गुरु रामानन्द ने रैदास और कबीर जैसे लोगों को गुरुमंत्र देना शुरू किया।

ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध रैदास हर मनुष्य में ईश्वर का वास मानकर सबका बराबर सम्मान चाहते थे। मगर लोग सोचते थे कि ईश्वर तो सिर्फ मन्दिर-मस्जिद में होता है। इसी वजह से बड़े-बड़े धर्म के ठेकेदार दान, चन्दा, चढ़ावा, खैरात, जकात के नाम पर गरीबों को निचोड़ रहे थे। तब रैदास ने लोगों को बताया-

मस्जिद से कुछ घिन्न नहिं, मन्दिर से नहिं प्यार।
दोउ में अल्ला राम नहिं कह रैदास चमार।।

रैदास जैसे लोगों की छोटी सी कार्यशाला ज्यों-ज्यों बड़ा रूप लेने लगती है, त्यों-त्यों रैदास जैसे लोगों का सम्मान भी बढ़ता गया। यह बात उन पाखण्डियों को खटकती है जो ‘पूजिय विप्र शील गुण हीना। शूद्र न गुन-गन ज्ञान प्रवीणा।।’ वाली धारणा पाले हुए थे। ऐसे पाखण्डियों को रैदास ने चुनौती भरे लहजे में कहा-

एक बूंद से सब जग उपज्या, को बाभन को शूदा।

उस वक्त वर्ण-व्यवस्था और जाति व्यवस्था में शूद्रों को कूड़े-कचरे के समान समझा जाता था। शूद्र लोग गुलामी भरी जिन्दगी जी रहे थे। रैदास ने उन्हें आजाद होने के लिये प्रेरित किया-

पराधीनता पाप है जानि लेउ रे मीत।
पराधीन बेदीन से, कौन करे है प्रीत।।

इस तरह रैदास ने गुलाम बनने को पाप बताया और उससे मुक्ति के लिये लोगों को उकसाया। साथ ही साथ आजादी क्या चीज़ होती है उस का नक्शा भी प्रस्तुत किया-

ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिलै सभन को अन्न।
ऊंच-नीच सब मिटि रहे, रैदास रहे प्रसन्न।।

रैदास सिर्फ हथकड़ी बेड़ी खोल देने को आजादी नहीं कहते बल्कि सबकी मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति को आजादी कहते हैं। वे एक ऐसा समाज चाहते हैं जिसमें बराबरी हो, सबकी मानवीय आवश्यकताएं जैसे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, सम्मान, आदि सुलभ हो सकें। अभावों से भरी जिन्दगी को रैदास आजादी नहीं मानते।

उस दौर में इस्लामिक इफेक्ट के कारण ही निराकार ईश्वर की भक्ति का प्रभाव बढ़ रहा था। अपने-अपने धर्म की दुकान चलाने के लिये कुछ पण्डे-पुरोहित मुस्लिम धर्म के खिलाफ नफरत पैदा कर रहे थे तो वहीं कुछ कठमुल्ले हिन्दू धर्म के खिलाफ आग उगल रहे थे। मुगलों के रूप में जो नया शासक वर्ग आ चुका था, उसे मालूम था कि हिन्दुओं में यदि मुसलमानों के प्रति नफ़रत बढ़ेगी तो मुस्लिम शासकों के प्रति भी नफरत बढ़ेगी, तब भारत भूमि पर लम्बे समय तक शासन करना मुश्किल होगा। ऐसी परिस्थिति के कारण इन शासकों ने भी कबीर और रैदास जैसे संतों को सहयोग दिया। वरना उस वक्त कबीर यह नहीं कह पाते कि-

ब्राह्मण से गदहा भला, गढ़े देव से कुत्ता।
मुल्ला से मुर्गा भला, नगर जगावे सुत्ता।।

प्राय: मौसम और समय के मामले में ब्राह्मण की भविष्यवाणी गलत पायी गयी हैं, मगर गधा बहुत ठीक समय पर प्रतिदिन बोलता है। अगर वह अचानक घाट से भागकर घर आ जाये तो समझिये, आंधी या पानी कुछ तो आने ही वाला है। उस गधे की भविष्यवाणी गलत नहीं होती। इसीलिये गधे को भला कहा। दोहे का बाकी अंश तो सभी जानते ही हैं।

अगर रैदास शाही मोची न होते तो वे यह नहीं कह पाते कि-

चारों वेद करे खण्डवतो।
तेहि रैदास करे दण्डवतो।।

अर्थात जो चारो वेदों को नहीं मानता है रैदास ऐसे लोगों को दण्डवत प्रणाम करता है। अगर रैदास शाही मोची नहीं होते तो ऐसा नहीं कह पाते।

रैदास अपने शुरुआती दौर में भले ही ईश्वर भक्त रहे हों मगर अनुभव की ऊंचाइयों पर पहुंचने के बाद ईश्वर को भी झूठ समझने लगे थे।
बाभन झूठा, वेद भी झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे।
जीवन चारि दिवस का मेला रे ।
मंदिर भीतर मूरति बैठी,
पूजत बाहर चेला रे ।
लड्डू भोग चढावत जनता,
खाते बाभन चेला रे ।
सबको लूटत बाभन सारे,
प्रभु जी देत न धेला रे ।
पुण्य-पाप और पुनर्जन्म का,
बाभन कीन्हा खेला रे ।
स्वर्ग नरक बैकुंठ पधारो,
गुरु शिष्य या चेला रे ।
जितना दान देउगे जैसा,
वैसा निकले तेला रे ।
बाभन जाति सबको बहकावे,
जँह तँह मचे बवेला रे ।
छोड़ि के बाभन आ संग मेरे,
कहै रैदास अकेला रे ।

उपरोक्त चंद लाइनें तो झांकी भर हैं। उन्होंने अपने दौर में सभी धर्मों के पाखण्डियों को जमकर लताड़ा है। कुछ लोग जो सुनी-सुनाई अतार्किक बातों के आधार पर संविधान को बहुत बड़ा तोप समझते हैं और कहते हैं कि ‘संविधान नहीं था तो हम बोल भी नहीं पाते थे’, वे अपनी धारणा बदल दें। रैदास के समय में यह संविधान नहीं था, फिर भी वे जैसा बोल लेते थे। आज वैसा बोलने पर धार्मिक आस्था पर ठेस पहुंचाने के नाम पर जेलों में ठूंस दिया जायेगा।

अगर अंग्रेज़ नहीं आते तो कबीर जैसे लोगों की पीढ़ियों में से टाटा पैदा होते, रैदास जैसे लोगों की पीढ़ियों में से बांटा पैदा होते। तब बड़े-बड़े स्लाटर हाउसों के मालिक कोई ब्राह्मण नहीं बल्कि कसाईयों में से होते, डेयरी उद्योग के मालिक अहीरों और गड़ेरियों में से होते। यूरोप की तर्ज पर भारत में भी दस्तकारों में से पूंजीपति निकलते तो आज यही लोग शासक होते, तब वर्ण-व्यवस्था जातिवाद कूड़ेदान में चले जाते। परन्तु ऐसा विकास भारत में नहीं हो पाया।

दरअसल जब भारत में कबीर और रैदास जैसे दस्तकारों की छोटी सी कार्यशाला विकसित होकर मैन्यूफैक्चरी में प्रवेश कर चुकी थी, और सत्रहवीं सदी आते-आते उनकी मैन्यूफैक्चरी विकसित होकर उद्योग का रूप लेने जा रही थी, उसी वक्त अंग्रेज आ गये। शुरुआत में तो अंग्रेज हमारी मैन्यूफैक्चरी का कुछ नहीं बिगाड़ पाये थे, परन्तु जब उनके पास भाप का इंजन आ गया तब वे भाप के इंजन के सहारे बड़े पैमाने का उत्पादन करने लगे, जिससे उनका माल हमसे सस्ता पड़ने लगा। जिससे वे पूरे बाजार में छा गये। उनकी पूंजी ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी त्यों-त्यों हमारी आदिम पूंजी को निगलती गयी। हमारी छोटी-छोटी मैन्यूफैक्चरी जो विकसित होते हुए आगे चल कर कल कारखाने का रूप ले सकती थी उसे अंग्रेजों ने ध्वस्त कर दिया। और अन्ततः हमारे मैन्यूफैक्चरर और दस्तकार उजड़ गये तथा उनमें से बहुत से लोग अंग्रेजों के यहां मामूली तनख्वाह पर नौकरी करने के लिये बाध्य हो गये।
अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में जहां किसानों व दस्तकारों में से कुछ लोगों को सिर्फ छोटी-मोटी नौकरियां दिया, वहीं सामन्ती वर्गों को ठेका,पट्टा, कोटा, परमिट, लाइसेंस, एजेंसी, अनुदान, जमींदारी, सस्ते कर्ज, आधुनिक शिक्षा, अपनी सेना पुलिस का संरक्षण आदि देकर उन्हें बहुत मजबूत बना दिया।

अंग्रेजों के आने से पहले ही कबीर और रैदास के विचार भारत ही नहीं कई पड़ोसी देशों तक में फ़ैल चुके थे। जब अंग्रेजों ने भारत में अपनी सत्ता कायम की तो उनको कबीर और रैदास के विचार खटकने लगे। वे जानते थे कि कबीर और रैदास जैसे क्रान्तिकारी सन्तों की तार्किक विचारधारा जिन्दा रहेगी तो भारत को लम्बे समय तक गुलाम नहीं बनाये रखा जा सकता। इसलिए एक सुनियोजित साज़िश के तहत ही अंग्रेजों ने रैदास और कबीर जैसे संतों के क्रान्तिकारी विचारों को कुचलने का काम किया। इन संतों के विचारों को कुचलने के लिये अंग्रेजों ने हिन्दू धर्म के पाखण्डियों को बढ़ावा दिया। उन्हें मठ-मंदिर बनाने के के नाम पर पूरे देश में लाखों एकड़ जमीन दिया। कई मठों को तो जमींदारियां भी दे दिया। भारी आर्थिक मदद पाने से इनका पाखण्ड बढ़ता गया। इन पाखण्डियों ने रैदास और कबीर के विचारों को कुचलने के लिये उनके विचारों में बहुत घाल-मेल किया। जैसे- सीना फाड़कर जनेऊ दिखाना, कटौती में से कंगन निकालना, मरे हुए को जिन्दा कर देना…. और अन्ततः उन्हें भगवान का अवतार घोषित कर देना ये सब रैदास के विचारों में घालमेल के ही रूप हैं।

ज्ञान पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बनाने के लिये जहां कबीर को विधवा ब्राह्मणी के पेट से पैदा हुआ बताया गया, वहीं रैदास को पूर्व जन्म में ब्राह्मण बता दिया गया। इन मनगढ़ंत कहानियों से वे सिद्ध करना चाहते हैं कि ब्राह्मण जाति में पैदा होने वाला ही विद्वान हो सकता है।

आज शोषक वर्ग अपनी शोषणकारी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए एक साज़िश के तहत पाखण्ड को बढ़ावा दे रहा है। ऐसी परिस्थिति में कबीर व रैदास के विचार पहले से अधिक प्रासंगिक हो गये हैं।

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