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स्मृति शेष:सुरेंद्र राणा नहीं रहे

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राजकुमार जैन

जैसे ही खबर मिली कि सुरेंद्र राणा नहीं रहे। क्षण भर के लिए सन्र रह गया। फिर उनकी तस्वीर मेरी आंखों के सामने घूमने लगी। यकीन नहीं हो रहा था कि वह चले गए। हंसमुख चेहरा, मजबूत शरीर, बीमारी की भी कोई खबर नहीं,  फिर यह अचानक कैसे हो गया? दरियाफ्त करने पर पता चला क्लास में पढ़ा रहे थे। सहसा हार्ट अटैक हुआ गिर पड़े। साथियों ने कोई भी कसर नही छोड़ी परंतु सारी कोशिश नाकाम साबित हुई।

 दिल्ली के शहरीकृत गांव सिरसपुर के पुश्तैनी बाशिन्दे, प्रोफेसर सुरेंद्र राणा दिल्ली यूनिवर्सिटी में अपना एक अहम मुकाम रखते थे। ‘दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन’ जो  हिंदुस्तान के शिक्षक आंदोलन को  रोशनी दिखाता है, वैचारिक आधार पर बने शिक्षक समूहो से लेकर व्यक्ति आधारित कई संगठन दिल्ली यूनिवर्सिटी की शिक्षक राजनीति में सक्रिय है। लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव प्रक्रिया, पदाधिकारी की नियुक्ति के बाद शिक्षक संघ के कार्यालय में उच्च स्तर के वैचारिक  बहस मुबाहसो  जिसमें यूनिवर्सिटी के मसलों के साथ-साथ देश दुनिया के मुख्तलिफ मुद्दों पर देर रात तक चर्चा होती है। परंतु उसकी हमेशा से एक खुसूसियत रही है की कितनी भी उत्तेजक बहस हुई हो, मतभेद कभी ष मनभेद में नहीं  पलटता। देर रात मीटिंग खत्म होने के बाद कार स्कूटर में सवार साथी आपस में पूछते हे किसी को उस रूट पर तो नहीं जाना!    विश्वविद्यालय में अधिकतर ग्रुप राजनीतिक, वैचारिक रूप से एक मायने में राष्ट्रीय पार्टियों से जुड़े हुए हैं। परंतु सुरेंद्र राणा ने अपने दम पर यूनिवर्सिटी में बिना किसी दलीय आधार के ‘यूनिवर्सिटी टीचर्स फोरम’ को बनाकर चुनावो में अपने उम्मीदवारों को मुसलसल  जीत हासिल करवाई।

 ग्रामीण पृष्ठभूमि के शिक्षकों मरहूम प्रोफेसर राजेंद्र पंवार, डॉक्टर डीबी सिंह, प्रोफेसर महक सिंह, डॉ गोपाल राणा जैसे साथियों  के साथ मिलकर अपने संगठन को खड़ा कर दिया। सुरेंद्र राणा अपने आप में ही संगठन थे। चुनाव के मौके पर मैं देखता था कि अपने उम्मीदवार को जीताने के लिए देर रात तक दिल्ली से 40-50 किलोमीटर दूर तक स्कूटर चला कर, चुनाव प्रचार में जुटे रहते थे। अपने लिए तो सभी मेहनत करते हैं परंतु अपने साथी के लिए, जेब से खर्च कर, पसीना बहा कर जीतोड़ कोशिश आज की सियासत में एक अजूबा बन गई है। व्यक्ति के तौर पर उनका दोस्ताना व्यवहार अदब, खुलूस, विनम्रता से लवरेज रहता था।

 मुझे हमेशा ‘बड़े भाई’ कहकर पुकारते थे। चुनाव वाले दिन एक साधारण कार्यकर्ता के रूप में पसीने से लथपथ, हाथ में उम्मीदवार के कार्ड लेकर हर एक वोटर से अपने उम्मीदवार के लिए वोट देने का इसरार करते थे। लंच के समय आवाज देकर कहते, बड़े भाई, वोट तो आप नहीं दोगे पर लंच तो हमारे साथ कर लो। मैं हमेशा उनसे कहता था कि अकेले दम पर यूनिवर्सिटी में इतना बड़ा समूह आपने कैसे अपने साथ जोड़ लिया इसका गुर तो बता दो? इस पर हंसकर कहते थे, बड़े भाई आप ही से तो यह सीखा है। मुझे यूनिवर्सिटी कैंपस में एक बड़ा स्टाफ क्वार्टर रहने के लिए मिला हुआ था। मैंने उनसे कहा आप अपने ग्रुप की बैठक मेरे क्वार्टर के हाल में कर लिया करें, चाय पानी का इन्तज़ाम कर मैं बाहर चला जाऊंगा, तो उनका जवाब होता था कि आपको सुनाने के लिए ही तो हम वहां अपनी मीटिंग करेंगे।

 उनके आकस्मिक और असामायिक इंतकाल से यूनिवर्सिटी में ऐसे विनम्र नेता की कमी हुई है, जो ग्रुप का संस्थापक होते हुए भी एक कार्यकर्ता से बढ़कर भूमिका निभाता था। सभी ग्रुपों में उनका आदर था। उनकी कमी हमेशा महसूस होगी। दुख कि इस घड़ी में मेरी संवेदना उनके परिवार के साथ है।

 मैं अपने श्रद्धा सुमन भरे दिल से  लाजवाब साथी की याद में अर्पित करता हूं।            

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