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पहले आत्माओं को मारा गया फिर चुनाव के जनादेश को बदला गया ….

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राकेश अचल

| आत्मा अजर-अमर है। आत्मा निकाया है, लेकिन उसकी आवाज होती है। ये आवाज़ जीवित आत्माओं की मुखर होती है।इसे या तो ओझा सुन पाते हैं या नेता।आवाज सुनकर जो फैसले होते हैं, उन्हें क्रास बीड फैसला कहते हैं।इन फैसलों से जो भी होता है उसे वर्णसंकर कहा जाता रहा है।
राजनीति में सबसे पहले अंतरात्मा की आवाज कांग्रेस ने सुनी थी। वैसे कांग्रेस को पता था कि राजनीति में अधिकांश लोग अपनी आत्मा को मारकर आते हैं।जो जीवित आत्मा के साथ राजनीति के आंगन में कदम रखते हैं,उनकी आत्मा को सप्रयास मार दिया जाता है। राजनीति में आत्मा की आवाज प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है। अंततोगत्वा नेता को अपनी अंतरात्मा मारना पड़ती है।जो ऐसा नहीं कर पाते वे आत्मा और शरीर दोनों से हाथ धो बैठते हैं।
आजादी से पहले नेता आत्मा के साथ राजनीति में आता था, इसीलिए उससे अंग्रेज हार गए। आत्मा से काम करने वालों को आज 75 साल बाद बेईमान, वंशवादी और राष्ट्रद्रोही कहा जाता है। राजनीति में आत्माएं तो पहले आम थी,उस जमाने में महात्मा भी होती थीं। गुजरात को मोहनदास करमचंद गांधी के पास महात्मा थी, हालांकि संघी ऐसा नहीं मानते।वे गोड़से को महात्मा कहते हैं। यानि महात्मा को भी भारतरत्न की तरह विवादास्पद बनाने की कोशिश जारी है।
बात अंतरात्मा की आवाज की हो रही है। सबसे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अंतरात्मा की आवाज को पहचाना।आवाज दी। उसे जगाया।कमाल देखिए कि उस समय के नेताओं की अंतरात्मा जागी। नेताओं ने अपनी अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी और इंदिरा गांधी की पसंद के प्रत्याशी को राष्ट्रपति चुन लिया था। अंतरात्मा की चौतरफा जय जय हुई।
राजनीति में अंतरात्मा के साथ ही मृतात्मा जैसा ही व्यवहार किया जाता है। उन्हें भारतरत्न से अलंकृत किया जाता है।खास चुनाव के समय आत्माओं को सम्मानित करने का बड़ा फल मिलता है। अंतरात्मा पार्टी का व्हिप,सिप नहीं मानती।जो उसका आव्हान करता है, उसे आशीर्वाद दे देती है। दरअसल अंतरात्मा राजनीति से ऊपर उठकर फैसला करती है। लेकिन फैसला करने से पहले चढ़ौती देखती है।
अंतरात्मा को जागृत करना,मुद्दई को उसकी आवाज सुनवाना बड़ा तकनीकी काम है। पहले इस विधा में कांग्रेसी दक्ष थे।अब ये दक्षता भाजपाई सीख गये हैं।वे हिमाचल हो या बिहार, किसी भी राज्य में किसी भी दल के विधायक, सांसद की मरी हुई आत्मा को जगाने की सुपारी ले लेते हैं।
जिन नेताओं की आत्मा जीवित होती है, उन्हें चिन्हित कर उनकी आत्मा को मार देते है।मरी हुई आत्मा की आवाज सुनना किसी जीवित नेता की आत्मा की आवाज से ज्यादा मुखर होती है। निडर होती है।साफ सुनाई देती है।
अंतरात्मा को बुलवाने से पहले उसे जागृत करना पड़ता है। आत्मा काले तिल, काले वस्त्र, काले धन और पतंजलि के शुद्ध घानी के सरसों के तेल से खुश होती है।आप जितना काला धन अर्पण करेंगे,सोयी हुई अंतरात्मा उतनी जल्दी जागेगी,बोलेगी। इतना तेज बोलेगी कि बहरा भी सुन ले।कान वाले तो सुन ही सकते हैं। इसमें किसी पंडित, पुजारी की जरूरत नहीं होती।छठे कान तक इसकी आवाज जाती ही नहीं है।
आत्माएं न मरें तो जनादेश का अपहरण असंभव है। भारत में जहां जहां बिना चुनाव के जनादेश बदला गया वहां पहले आत्माओं को मारा जाता है। आत्मा का कत्ल ही तो क्रास वोटिंग कहलाती है।क्रास वोटिंग दल बदल की सहोदर है। ये अजर अमर है। लेकिन ये मृत आत्माएं हैं। इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती।
दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में हमारे देश की मरी हुई आत्माओं को लेकर कोई सानी नहीं है। हमें राजनीति में उलट फेर कराने वाली इन मरी हुई आत्माओं पर गर्व है।मरी हुई आत्माएं हमेशा लोकतंत्र के काम आती हैं।हमारा लोकतंत्र मरी हुई आत्माओं का लोकतंत्र है। हमारी लोक सभा, विधानसभाएं मरी हुई अंतरात्माओं से भरी पड़ी हैं।एक खोजिए,दस मिल सकती हैं।
मेरी जीवित आत्मा मुझे हरदम धिक्कारने की कोशिश करती है। शुभचिंतक कहते हैं कि पंडित जी कुछ दिनों के लिए अपनी आत्मा को मरने के लिए तैयार कर लीजिए मालामाल हो जाएंगे।घर वालों की तमाम शिकायतें दूर हो जाएगी। कोई आपको कंगाल,अलाल होने का ताना नहीं मारेगा। लेकिन मैं हूं कि किसी जीवित आत्मा की सलाह नहीं मानता।

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