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भावात्मक और बौद्धिक दुर्गति की कथा लिखता चुनाव आयोग

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प्रफुल्ल कोलख्यान

केंद्रीय चुनाव आयोग ने प्रेस वार्ता में राजनीतिक दलों एवं प्रचारकों से अनुरोध और अपील किया है कि आदर्श आचार संहिता की मर्यादा का पालन किया जाना चाहिए। आचार संहिता का उल्लंघन किये जाने पर कड़ी कार्रवाई की जायेगी। आदर्श स्थिति तो यही है। मुश्किल तब होती है जब आदर्श के प्रति हमारा रवैया महज औपचारिकता निर्वाह बनकर रह जाता है या फिर चेहरा देखकर चाल पकड़ता है। लोकतंत्र के राजनीतिक समय की दुरवस्था को समझने की कोशिश करें तो उसके पीछे भावात्मक और बौद्धिक दुर्गतियों की क्रमबद्ध कहानियां मिलेगी। आदर्श का औपचारिक बनकर रह जाना भावात्मक और बौद्धिक दुर्गति की कथा लिखता है।

राज नारायण ने 1971 के लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी के निर्वाचन में आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर याचिका पर  अदालत के फैसले का ध्यान आता है। जस्टिस सिन्हा ने उन्हें उस चुनाव में दो भ्रष्ट आचरणों का दोषी ठहराया था-पहला दोष था अपनी चुनावी संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिए प्रधानमंत्री सचिवालय में तैनात विशेष कार्य अधिकारी यशपाल कपूर की सेवा का उपयोग करना। हालांकि, यशपाल कपूर ने इस्तीफा दे दिया था, उनके इस्तीफे की तारीख में पांच-सात दिन के अंतर को मुद्दा बनाया गया था। दूसरा आरोप था बिजली आदि के बंदोबस्त के लिए उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की सेवा का उपयोग करना।

आपातकाल के अतिचारों के शिकार प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘इमर्जेंसी की इनसाइड स्टोरी’ में लिखते हैं — राज नारायण एक लाख से अधिक वोटों के अंतर से हार गए थे। वास्तव में, ये अनियमितताएं वैसी नहीं थीं, जिनसे हार-जीत का फैसला हुआ हो। ये आरोप एक प्रधानमंत्री को अपदस्थ करने के लिए बेहद मामूली थे।यह वैसा ही था जैसे प्रधानमंत्री को ट्रैफिक नियम तोड़ने के लिए अपदस्थ कर दिया जाए।

यह जरूर है कि आम चुनाव में आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का मामला केंद्रीय चुनाव आयोग के स्तर पर न सुलझकर, न्यायालय के स्तर पर सुलझा था। आदर्श स्थिति तो यह होती है कि ऐसे मामलों का निपटारा चुनाव आयोग के स्तर पर हो जाया करे। स्थापित संवैधानिक प्रावधानों और मान्य नैतिक मानदंडों को ध्यान में रखकर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव को सुनिश्चित कराने के लिए सभी दलों की सहमति से आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) बनाई गई है। निश्चित ही निर्वाचन की पवित्रता और विश्वसनीयता के लिए आचार संहिता का अनुपालन बहुत ही महत्वपूर्ण है।

इनकार नहीं किया जा सकता है कि हालिया वर्षों का हमारा अनुभव तिक्त ही रहा है।  चुनावों में चुनाव आयोग की भूमिका आदर्श स्थिति में नहीं रही है। विपक्षी दलों के अनुरोध और अपील पर चुनाव आयोग ने कोई खास तवज्जो नहीं दिया है। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव को सुनिश्चित कराने के लिए खुद चुनाव आयोग एक स्वायत्त और संवैधानिक संस्था की तरह आचरण करने के बदले सरकार के ही किसी विभाग की तरह आचरण करने लगा है-चुनाव आयुक्त सरकार के आदेशाधीन एक सरकारी अधिकारी बन रह गया प्रतीत होता है। यह ठीक है कि स्वतंत्रता और स्वायत्तता की कोई भी मात्रा स्वतंत्रता और स्वायत्तता को संप्रभुता का समानार्थी नहीं बना सकता है।

भारत में संप्रभुता का निवास लोक में है। लोक के ‘प्रतिनिधि’ के रूप में संसद के विश्वास से समर्थित सरकार भी ‘संप्रभु’ होती है। यह भी सच है कि किसी भी देश की तरह, हमारे देश की संप्रभुता भी अविभाज्य है। लेकिन, यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि संप्रभुता की अविभाज्यता का इस्तेमाल संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तताकी गरिमा और पवित्रता को अतिक्रमित और खंडित करने के लिए नहीं किया जा सकता है।

संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता की गरिमा की रक्षा का पहला दायित्व संवैधानिक पदों पर कर्तव्य निष्ठा से काम करनेवाले व्यक्तियों  का होता है। संवैधानिक पदों को सुशोभित करनेवाले व्यक्तियों के चरित्र में संवैधानिक ईमानदारी और अखंडनीय दृढ़ता (Honesty and integrity) का जरा-सा भी अभाव लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था को तहस-नहस  कर देता है। जाहिर है किसी भी संवैधानिक पद पर नियुक्ति के लिए चयन बहुत ही गंभीर और संवेदनशील काम होता है। संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों के लिए सरकार के प्रति नहीं, संविधान के प्रति अपनी निष्ठा कायम रखना जरूरी होता है।

चुनाव आयोग जैसी लोकतंत्र की बुनियादी संस्था के आयुक्तों की नियुक्ति को अधिक-से-अधिक पारदर्शी और विश्वसनीय होना चाहिए। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की नियुक्ति के लिए चयन समिति में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता को रखने का न्यायिक आदेश दिया था। तर्क यह था कि चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति के पास सिफारिश करने का अधिकार का पूरी तरह से प्रधानमंत्री या सरकार के हाथ में सिमट जाना संवैधानिक संस्था के क्रिया-कलाप में असंतुलन का कारण बन सकता है। सरकार अपने प्रति ‘बफादारी’ साबित करनेवाले या कर चुके व्यक्ति को ही आयुक्त नियुक्त करने की सिफारिश राष्ट्रपति से करेगी, व्यावहारिक तौर पर इस से इनकार नहीं किया जा सकता है। सरकार की ‘कृपा’ से बना आयुक्त केंद्रीय चुनाव आयोग की स्वतंत्रता, स्वायत्तताऔर निष्पक्षता की रक्षा करने की कितनी विश्वसनीयता बहाल रख सकेगा, कहना मुश्किल है।

लोकतंत्र का मूल आधार है उसके प्रति लोक का अविभक्त विश्वास। लोकतंत्र में संसद के बहुमत की महिमा अपरंपार होती है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को चयन समिति में रखे जाने के प्रावधान को हटा दिया। अब चयन समिति में प्रधानमंत्री, उनके द्वारा नामित कोई प्रमुख मंत्री और विपक्ष के नेता को रखे जाने का प्रावधान है। इस तरह अंततः चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति के लिए चयन समिति  का कोई मतलब नहीं रह गया है और वह  पूरी तरह सिमटकर प्रधानमंत्री के हाथ में आ गया है। संविधान को संविधान के सामने खड़ा कर देने के अद्भुत प्रसंग के रूप में इतिहास इसे याद रखेगा। अब चुनाव आयोग की स्वतंत्रता, स्वायत्तता और निष्पक्षता का आश्वासन का आधार आत्मा की पुकार है।

इन दिनों भारत के लोकतंत्र पर आत्मा का बोझ बहुत बढ़ गया है। सुख और सुविधा की तलाश में आत्म-हनन एवं आत्म अतिक्रमण की प्रवृत्ति लोगों को आत्म-विलोपन की बलिवेदी तक पहुंचा चुकी है। आत्मा की पुकार का असर सब से ज्यादा राजनीति से जुड़े लोगों पर पड़ रहा है। कब किस की आत्मा घसीटकर उसे कहां पटक दे किसे पता! आत्मा इतनी खतरनाक हो गई है कि बार-बार लोकतंत्र के मुहं से आठवीं सदी की चीख निकल जाती है। जैसे अमर आत्मा ससमय शरीर बदल लेने की प्रेरणा देती है, वैसे ही दल और निष्ठा बदल लेने की भी प्रेरणा दिया करती है!

यह आत्मा कब कैसे चीखती है, कब आवाज देती है, कहना मुश्किल है। इंदिरा गांधी कांग्रेस संसदीय  दल के बहुमत के समर्थन से प्रधानमंत्री बनी थी। लेकिन कांग्रेस पार्टी में उनके विरोधी नेताओं की सक्रियता इतनी अधिक थी कि उन्हें हमेशा अपने अपदस्थ कर दिये जाने का डर सताता रहता था। 1969  में राष्ट्रपति का चुनाव होना था। कांग्रेस पार्टी ने नीलम संजीव रेड्डी को अपना अधिकृत उम्मीदवार बनाया था।

इंदिरा गांधी की आशंका थी, दल के अंदर के उनके विरोधियों द्वारा चयनित राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के राष्ट्रपति बन जाने से उनको परेशान और अपदस्थ तक कर दिये जाने का खतरा बढ़ सकता है। वी वी गिरि स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ खड़े थे या खड़े कर दिये गये थे। अपदस्थ किये जाने की आशंकाओं से डरी हुई इंदिरा गांधी ने आत्म-रक्षा में ‘आत्मा की आवाज’ पर राष्ट्रपति के चुनाव में मतदान के लिए अनुरोध और अपील किया। ‘आत्मा की आवाज’ पर कांग्रेस पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार हार गये और वी वी गिरि चुनाव जीत गये।

अंततः कांग्रेस प्रमुख एस निजलिंगप्पा ने12 नवंबर 1969 को ‘अनुशासनहीनता’ के लिए इंदिरा गांधी को पार्टी से निष्कासित कर दिया। फलतः इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आर – Requisition) का गठन कर लिया। ‘आत्मा की आवाज’ और ‘आत्मा की चीख’ में अंतर करने के विवेक से काम लेने पर सारा माजरा समझ में आ सकता है। एक बात और गौरतलब है कि वह आत्म-विलोपन का युग नहीं था। मुद्दे की बात यह है कि ‘आत्मा की आवाज’ हो या ‘आत्मा की चीख’ इसका संबंध डर से जरूर होता है।

बहरहाल, केंद्रीय चुनाव आयोग ने आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct)के पालन का अनुरोध किया है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। उल्लंघन पर कड़ी कार्रवाई की भी घोषणा की है। आत्म-विलोपन के दौर में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह सब औपचारिक बनकर रह जाता है या ‘कड़ी कार्रवाई’ भी होती है। आदर्श का औपचारिक बनकर रह गया तो फिर भावात्मक और बौद्धिक की दुर्गति की नई कथा लिखी जायेगी।

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