ओमप्रकाश मेहता
भारत में हर पांच वर्ष में होने वाले राजनीतिक महासमर की तारीखें चाहे अभी तय नहीं हुई हो, किंतु ‘महाजीत’ के नारों के साथ राजनीतिक दलों ने अपने यौद्धाओं की तैनाती अवश्य शुरू कर दी है, देश पर राज कर रही भारतीय जनता पार्टी ने अपने आधे से अधिक उम्मीदवारों के नामों का ऐलान कर ‘अबकी बार चार सौ पार’ का नारा भी उछाल दिया है। जबकि मुख्य प्रतिपक्षी दल कांग्रेस ने अभी अपनी उपस्थिति तक दर्ज नहीं कराई है।
आगामी पचास दिनांे में ही यह पंचवर्षीय राजतंत्र का समर होना है, पिछले एक दशक से भारतीय जनता पार्टी नरेन्द्र भाई मोदी के नेतृत्व में सत्ता में है, मोदी से पहले कांग्रेस के डाॅ. मनमोहन सिंह भी अपनी सत्ता का एक दशक पूर्ण कर चुके है, उनसे पहले आजादी के बाद के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनकी बेटी इंदिरा गांधी करीब सत्रह-सत्रह वर्ष प्रधानमंत्री रहे है, सन् 1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी सहानुभूति के मत अर्जित कर पांच साल प्रधानमंत्री रहे थे, जिनकी पद से हटने के बाद हत्या कर दी गई थी। अब उन्ही स्व. राजीव गांधी की विदेशी पत्नी सोनिया गांधी और बेटे राहुल गांधी कांग्रेस के सर्वेसर्वा बने बैठे है। जिसे प्रमुख प्रतिपक्षी दल का दर्जा मिला हुआ है।
किंतु आज मोदी की आत्म-लोकप्रियता और प्रतिपक्षी कांग्रेस के प्रमुख दायित्वों के अभाव में देश का राजनीतिक क्षितिज एक अजीब धुंध भरे कोहरे में परिवर्तित हो गया है और धीरे-धीरे देश के मतदाताओं के सामने से भाजपा का विकल्प विलोपित होता जा रहा है, अर्थात् यदि मौजूदा राजनीतिक धुंध यदि और गहरी हुई तो देश के मतदाताओं के सामने मोदी अपना कोई विकल्प ही नहीं रहने देगें और मोदी ही मजबूरी बन जाएगें।
देश के मतदाताओं के सामने से मोदी के विकल्प का विलोपन मजबूत प्रतिपक्ष और उसके सर्वमान्य नेता के अभाव में हो रहा है, इसके लिए मोदी जी या अन्य कोई नहीं बल्कि स्वयं कांग्रेस व उसके मौजूदा सर्वेसर्वा जिम्मेदार है, जो स्वयं भाजपा या मोदी का विकल्प बनने की क्षमता खोते जा रहे है, प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस के नेतृत्व की अनुभवहीन रीति-नीति और दल के वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा के कारण अनुभवी व बुजूर्ग नेता जहां कांग्रेस से बाहर हो गए वही मौजूदा अनुभवहीन नेतृत्व देश में कांग्रेस को जीवित रखने में भी अपने-आपकों असमर्थ घोषित कर रहा है, ऐसे में न तो पार्टी में कोई नया ऊर्जावान युवा नेतृत्व उभरकर सामने आ रहा है और न पुरानों की कोई पूछ-परख हो रही, पार्टी के प्रति जितनी संभावनाएं थी, वे भी धीरे-धीरे नैराश्य के कोहरे में खोती नजर आ रही है, अब ऐसे में देश का निराश मतदाता भाजपा व मोदी को ही अपना नेता मानने को विवश हो रहा है, ऐसी स्थिति में यदि अगले और एक दशक तक मोदी जी ही देश के राजनीतिक क्षितिज पर दैदिव्यमान नक्षत्र के रूप में चमकते रहे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा, और फिर ये चुनाव मात्र औपचारिकता बनकर रह जाएगें।
जहां तक प्रतिपक्षी दलों के चुनावी गठबंधन ‘इण्डिया’ का सवाल है, वे भी लाख प्रयासों के बाद एकजुट नहीं हो पाए है और सभी अपने अपने राजनीतिक स्वार्थ की आपसी लड़ाई में व्यस्त है, अब ऐसे में यदि इस स्थिति का लाभ मोदी जी को मिल रहा है तो इसमें किसका दोष?
इस तरह कुल मिलाकर देश का मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य धुंधला ही है, जिसे न देश के नेता समझ पा रहे है और न राजनेता और जो देश का आम मतदाता इसे समझ रहा है, उसकी मौन रहने की मजबूरी है, इस तरह कुल मिलाकर देश के ज्वलंत सवालों में देश के भविष्य का सवाल भी जुड़ गया है।