अग्नि आलोक
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भोग से अधिक आनन्द त्याग में 

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        राजेंद्र शुक्ला, मुंबई

      हम भोग में आनन्द अनुभव करते हुए नहीं जानते कि इस संसार में और भी कुछ श्रेष्ठताएँ हैं। विचार द्वारा यदि आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व की बात समझ में आए तो भोग की अपेक्षा त्याग में आनन्द का अनुभव करने लगेंगे और तब दिन-प्रतिदिन मूल लक्ष्य की ही ओर बढ़ते भी चलेंगे। फिर यह शिकायत न रहेगी कि ईश्वर चिन्तन में आनन्द नहीं आता। 

      दृष्टिकोण की उत्कृष्टता का सवाल है, जिस तरह सम्पूर्ण चेष्टाएँ भौतिक उन्नति में लगी हैं, उसी तरह आध्यात्मिक उपलब्धियों में भी मन लग सकता है, पर पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करना पड़ेगा।अपना हर कार्य इस दृष्टि में गायत्री से पूरा करना पड़ेगा कि हम शरीर नहीं आत्मा हैं।

      आध्यात्मिक आनन्द भौतिक और स्थूल आनन्द की अपेक्षा सहस्त्र गुना अधिक है। भोग से त्याग में अधिक आनन्द है। शरीर से आत्मा में आनन्द भाव अधिक है, इसलिए विज्ञजन सदैव ही यह प्रेरणा देते रहते हैं कि मनुष्य शारीरिक हितों को ही पूरा करने में संलग्न न बना रहे, वरन मनुष्य जीवन जैसी असाधारण घटना पर भी आन्तरिक दृष्टि से कुछ विचार करे।

       यह जो सुख विषयों में अनुभव होता है वह उन्मुक्त नहीं है। इसमें साधनों की विवशता है। अज्ञान के कारण जिसे हम उचित समझते हैं, वही व्याधिकारक होती हैं, फलतः क्लेश और कठिनाइयों का वातावरण उमड़ आता है। आनन्द की कल्पना से किया हुआ कर्म यदि विक्षेप उत्पन्न करे, तो उस आनन्द को शुद्ध, पूर्ण और मनुष्योचित नहीं समझा जाएगा।

      प्रश्न यह नहीं है कि हम आनन्द की प्राप्ति की ओर बढ़ें। वह तो हम कर ही रहे हैं। हर घड़ी आनन्द की खोज में ही हमारी जीवन यात्रा पूरी हो रही है। जो शर्त है वह यह है कि हमारा आनन्द शाश्वत, निरन्तर और पूर्ण किस तरह हो ?

       इसके लिए कुछ बड़े परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। घर और गृहस्थ का परित्याग भी नहीं करना, विचित्र वेशभूषा भी नहीं बनानी, केवल इस जीवन का मूल्यांकन सच्चे दृष्टिकोण से करने की आवश्यकता है। हम शरीर के हित तो पूरे करें किन्तु शरीर में व्याप्त यह जो आत्मा है, उसे विस्मृत न करें। 

      आत्मा हमारे अज्ञान, आसक्ति और अभावों को दूर करने में सक्षम है। यह तीन परेशानियाँ विघ्न न पैदा करें, तो जिस आनन्द की तलाश में हैं, वह इसी जीवनक्रम से उपलब्ध हो सकता है। इसके लिए हमें और कुछ नहीं करना, केवल दृष्टिकोण को परिमार्जित करना है। हम इस तरह अपना दृष्टिकोण बदले सकें, तो शाश्वत आनन्द की उपलब्धि इसी जीवन में हो सकती है।

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