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रहमत, बरकत और फज़ीलत का महीना है रमज़ान

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मुस्ताअली बोहरा

इस्लाम के पांच फर्ज में से एक है रोजा रखना। जो पांच फर्ज हैं उनमें कलमा (अल्लाह को एक मानना), नमाज, जकात (दान), रोजा और हज (मक्का में काबा) शामिल हैं। रमजान को पाक महीना भी कहा जाता और माना जाता है ये महीना रब को इंसान से और इंसान को रब से जोड़ता है। माना जाता है कि इस्लामिक कैलेंडर के नौंवे महीने रमजान में रोजा रखने की शुरुआत दूसरी हिजरी में हुई है। इस्लामी कैलेंडर चांद की स्थितियों के आधार पर चलता है। हिजरी कैलेंडर की शुरुआत 622 ई. में हुई थी, जब हजरत मुहम्मद साहब मक्का से मदीना गए थे। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार रमजान एक महीने का नाम है, जो शाबान के महीने के बाद आता है। यह महीना आठ महीने के बाद यानि नौवें नंबर पर आता है। चांद देखकर रमजान की शुरूआत होती है और चांद देखकर ही ईद मनाई जाती है। अमूमन, सबसे पहले सऊदी अरब में रमजान या फिर ईद का चांद नजर आता है। कुरान की दूसरी आयत सूरह अल बकरा में कहा गया है कि रोजा तुम पर उसी तरह का फर्ज है जैसे तुम से पहले की उम्मत पर फर्ज था। कहा जाता है कि पैगंबर साहब के हिजरत कर मदीना पहुंचने के एक साल बाद मुस्लिम समुदाय के लोगों को रोजा रखने का हुक्म मिला। तब रोजा रखे जाने की परंपरा की शुरुआत दूसरी हिजरी में हुई। रमजान का पाक महीना हर मुसलमान के लिए बेहद खास माना जाता है। रोजे को अरबी में सौम कहा जाता है, इसलिए इस मास को अरबी में माह-ए-सियाम भी कहा जाता हैं। सोम का मतलब होता है संयम, रोजदार अपने मन और शरीर को वश में कर नमाज पढ़ता है और खुदा की इबादत करता है। फारसी में उपवास को रोजा कहते हैं। रमजान चांद दिखने पर शुरू होता है और उसके अगले दिन से रोजा रखा जाता है। रमजान की महीने को भागों में बांटा गया है, जिसे अशरा कहा जाता है। रमजान के हर अशरे का अलग महत्व है। अशरा अरबी का शब्द है, जिसका मतलब 10 होता है। इस तरह रमजान के महीने के 30 दिनों को 10-10 दिनों में बांटा गया है. जिन्हें पहला अशरा, दूसरा अशरा और तीसरा अशरा कहा जाता है। शुरुआती 10 दिन पहला अशरा कहलाते हैं, 11वें दिन से 20वें दिन तक दूसरा अशरा और 21वें दिन से 29वें या 30वें दिन तक तीसरा अशरा होता है। रमजान के मुकद्दस महीने का खास महत्व है। कुरान शरीफ में बताए नियमों का पालन करते हुए जो रोजा रखते हुए खुदा की इबादत करते है उन्हें 70 गुना सवाब यानी पुण्य मिलता है। कई देशों में रमजान के महीने को कुरान का महीना भी कहा जाता है।


रमजान महीने के पहले दस दिनों को रहमत के दिन कहा जाता है। कहा जाता है कि इन दस दिनों में मुसलमान जितने नेक काम करता है, जरूरतमंदों की मदद करता है अल्लाह उस पर रहमत करता है। दूसरे अशरे को मगफिरत यानी माफी का अशरा कहा जाता है। ये अशरा 11वें रोजे से 20वें रोजे तक चलता है। माना जाता है कि इसमें अल्लाह की इबादत करके अगर सच्चे मन से अपने गुनाहों की माफी मांगी जाए तो अल्लाह गुनाहों को माफ कर देता है। तीसरे अशरे को बेहद अहम माना जाता है। ये जहन्नम की आग से खुद को बचाने के लिए है। रमजान के आखिरी अशरे में कई मुस्लिम पुरूष और औरतें एतकाफ में बैठते हैं। माना जाता है कि एतकाफ में बैठने वाले लोगों पर अल्लाह की विशेष रहमत होती है। एतकाफ के दौरान दस दिनों तक एक ही स्थान पर बैठते हैं, वहीं सोते हैं, खाते हैं और इबादत करते हैं। मुस्लिम पुरुष मस्जिद में एक जगह बैठकर अल्लाह की इबादत करते हैं, जबकि महिलाएं घर के किसी कमरे में पर्दा लगाकर एतकाफ में बैठती हैं।

  • शब-ए-कद्र की है अहमियत
    शब-ए-कद्र रमजान की पाक रात है। मान्यता है कि इस रात कुरान की आयतों का जिबरील नाम के फरिशते के जरिए पैगम्बर मुहम्मद साहब पर अवतरण (नाजिल) होना शुरू हुआ था। माना जाता है कि इस रात खुदा ताअला नेक व जायज तमन्नाओं को पूरी फरमाता है। तरावीह पढ़ाने वाले इसी शब में कुरआन मुकम्मल करते हैं, जो तरावीह की नमाज अदा करने वालों को सुनाया जाता ह। इसके साथ घरों में कुरआन की तिलावत करने वाली मुस्लिम महिलाएं भी कुरआन मुकम्मल करती हैं। शबे कद्र को रात इबादत के बाद लोग कब्रस्तान जाते हैं और अपने मरहूमांे की कब्रों पर फातिहा पढ़कर उनकी मगफिरत के लिए दुआएं करते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि शब-ए-कद्र की रात इबादत करने पर गुनाह बक्श दिए जाते हैं।
  • महज भूखे-प्यासे रहने का नाम ही रोजा
    रमजान…एक ऐसा बा-बरकत महीना है जिसका इंतेजार साल के ग्यारह महीने हर मुसलमान को रहता है। रोजा केवल भूखे प्यासे रहने का नाम नहीं है। रोजा आंख से मतलब बुरा मत देखो, कान से गलत बात न सुनो, मुंह से अपशब्द न निकले, हाथ से अच्छा काम ही हो, पांव सिर्फ अच्छाई की राह पर चले। कुल मिलाकर बुराई से बचने और भलाई के रास्ते पर चलने का नाम रोजा है। यह महीना गरीब और जरूरतमंद बंदों के साथ हमदर्दी का है। इस महीने में रोजादार को इफ्तार कराने वाले के गुनाह माफ हो जाते हैं। पैगम्बर मोहम्मद सल्ल. से आपके किसी सहाबी ने पूछा यदि हममें से किसी के पास इतनी गुंजाइश न हो क्या करें। तो हजरत मुहम्मद ने जवाब दिया कि एक खजूर या पानी से ही इफ्तार करा दिया जाए। यह महीना मुस्तहिक लोगों की मदद करने का महीना है। गरीब और जरूरतमंद चाहे वह किसी भी मजहब के क्यों न हो, उनकी मदद करने की नसीहत दी गयी है। रमजान के महीने में तमाम मुस्लिम लोग जकात देते हैं। बता दें कि जकात का मतलब अल्लाह की राह में अपनी आमदनी से कुछ हिस्सा गरीबों में देना होता है। जकात, सदका, फित्रा, खैर खरात, गरीबों और जरुरतमंद हैं उनकी मदद करना जरूरी समझा और माना जाता है। अपनी जरूरीयात को कम करना और दूसरों की जरूरीयात को पूरा करना अपने गुनाहों को कम और नेकियों को ज्यादा कर देता है। रोजा परहेजगारी पैदा करता है। रोजा का मतलब तकवा यानी खुद को बुराई से बचाना और भलाई के काम करना है। मुस्लिम मान्यताओं के मुताबिक पवित्र कुरान इसी महीने नाजिल हुआ था यानी आसमान से उतरा था। रमजान में इबादत खास महत्व माना जाता है। रमजान में गुनाहों की माफी होती है और अल्लाह रहमतों का दरवाजा आपने बंदों के लिए खोलता है।
  • इन्हें छूट है रोजा रखने की
    मुस्लिमों का धर्मग्रंथ कुरान भी इसी महीने में नाजिल (दुनिया में आया) हुआ था। ये महीना नेकियों का महीना है जिसमें मुस्लिम रोजा रखने के अलावा कुरान की तिलावत करते हैं। जब रमजान का महीना शुरू होता है तो जहन्नुम के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं और जन्नत के दरवाजे खोल दिए जाते हैं। इसी महीने में लैलतुल कद्र आती है जिसे साल की सबसे पाक रात माना जाता है। माना जाता है कि रमजान के आखिरी दस दिनों के दौरान एक विषम संख्या वाली रात होती है। दाऊदी बोहरा समाज का मानना है कि शब-ए-कद्र रमजान के 23वीं रात है। रमजान के महीने में रोजा रखने और अल्लाह की इबादत करने के साथ ही जकात देने, गरीब, लाचार और जरूरतमंदों की मदद करने से आम दिनों के मुकाबले सत्तर गुना अधिक सवाब मिलता है। रमजान के 30 रोजे फर्ज किए गए हैं लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें रोजा न रखने की छूट होती है। कुरान और हदीस में कहा गया है कि हर तंदुरूस्त बालिग मर्द और औरत पर रमजान का रोजा रखने का फर्ज है लेकिन जो लोग बीमार हैं, बहुत वृद्ध हैं, शरीर में रोजा रखने की क्षमता नहीं है, मानसिक रूप से बीमार हैं, बहुत छोटे बच्चे, गर्भवती महिलाओं को रोजा न रखने की छूट होती है। मासिक धर्म के दौरान भी महिलाओं को रोजा न रखने की छूट होती है लेकिन मासिक धर्म में जितने दिनों का रोजा छूट जाता है, उतने ही रोजे बाद में रखकर इसे पूरा किया जाता है। कोई व्यक्ति अगर यात्रा में है और उसे रोजा रखने में परेशानी हो तो सफर खत्म होने के बाद वह रोजा रख सकता है। गर्भवती महिलाओं को रोजे रखने से छूट दी गई है। 30 दिन रोजे के बदले 60 गरीबों को दोनों वक्त का खाना खिलाने या 60 गरीबों को पौने दो किलो गेहूं या इसके बराबर बाजार की कीमत पर रकम अदा करने की बात कही गई है। ये भी बताया जाता है कि अगर किसी वजह से कोई मुसलमान इन दिनो के छूटे रोजे नहीं रख सकता, तो वो एक इंसान के एक दिन के रोजे के बदले में एक किलो छह सौ तैतीस ग्राम गेंहू या इसकी कीमत किसी जरूरतमंद को सद्का (दान) करके एक रोजे का बदल दे सकता है।
  • तराबीह में पढ़ा जाता है कुरान
    रमजान में रोजेदार को रात के तीसरे पहर में अजान से पहले उठकर सहरी करते हैं। इसके बाद रोजे की नीयत की जाती है और फिर सुबह की नमाज अदा की जाती है। रोजाना की तरह दिनभर काम-काज करते हुए जोहर व असर की नमाज अदा की जाती है। शाम में अजान होने के बाद इफ्तार करने यानी रोजा खोलने के बाद तुरंत मगरीब की नमाज अदा की जाती है। रात में ईशा की नमाज के बाद तरावीह होती है, तरावीह में कुरान पढ़ा जाता है। इस महीने के गुजरने के बाद शव्वाल (इस्लामी पंचांग का दसवां महीना) की पहली तारीख को ईद उल-फित्र या ईद मनाई जाती है।
    इबादत का महीना रमजान चांद नजर आते ही शुरू हो जाता है। रमजान में तराबीह का भी खासा महत्व है। तराबीह भी एक नमाज है, जिसमें इमाम साहब नमाज की हालत में कुरआन पढ़ते हंै। ऐसा माना जाता है कि कुरआन को सुनने से भी पुण्य मिलता है। जो लोग किसी वजह से कुरआन नहीं पढ़ पाते वे तराबीह में शामिल होकर इसका सवाब या पुण्य हासिल कर लेते हैं। तराबीह को रात की आखरी यानि इशां की नमाज के बाद पढ़ा जाता है। पूरा कुरआन एक दिन में नहीं पढ़ा जा सकता इसलिए कुरआन को तराबीह में पढ़ने और सुनने के लिए रमजान के दिनों में से कुछ दिन तय कर लिए जाते हैं। इसमें हर मस्जिद अपनी सहूलत के मुताबिक रमजान के तीस दिनों में से तराबीह पढ़े जाने के दिन तय कर लेती है और उन्हीं दिनों में कुरआन को पूरा पढ़ते और सुनते हैं। आमतौर पर तराबीह की नमाज में डेढ़ से दो घंटों का वक्त लग जाता है।
  • रमज़ान या रमादान
    पिछले कुछ सालों में ये भी देखने में आया है कि कई लोग रमजान और रमदान को लेकर भ्रम मंे उलझे हुए हैं। सोशल मीडिया पर रमजान और रमदान के मैसेज फारवर्ड होने पर क्रिया और प्रतिक्रिया भी देखने मिली है। दरअसल, रमजान और रमदान का ये मामला फारसी और अरबी की वर्णमाला की वजह से है। रमजान फारसी का शब्द है जो उर्दू में शामिल हो गया। रमदान अरबी का लफ्ज है। असल में रमजान लिखने में अरबी में ज्वाद अक्षर का इस्तेमाल होता है। ज्वाद बोलने में ज (जेड) की बजाय द (डी) की ध्वनि देता है। ऐसे में अरबी बोलने वाले लोग रमदान कहते हैं। भारत में फारसी का प्रभाव ज्यादा रहा, ऐसे में भारत में रमजान कहते हैं। अरब दुनिया में इसे रमदान या रमादान कहा जाता है। भारत में उर्दु ज्यादा लिखी-पढ़ी और बोली जाती है जबकि खाड़ी देशों में अरबी। अब चाहे रमजान कहें या रमदान दोनों ही शब्द सहीं हैं।
  • हर आज़ा का होता है रोज़ा
    रमजान का मकसद इंसान को बुराइयों के रास्ते से हटाकर अच्छाई के रास्ते पर लाना है। इसका मकसद एक दूसरे से मोहब्बत, भाइचारा और खुशियां बाटना है। रमजान का मकसद भूख और प्यास बर्दाश्त कर गरीब और जरूरतमंदों की तकलीफ को महसूस करना है। जरूरतमंदों की मदद करना है, आपस में भाईचारा और मोहब्बत रखना है। रमजान का मकसद महज एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान से नहीं बल्कि गैर मुसलमान के प्रति भी मोहब्बत और सम्मान रखना है। रोजे के मायने सिर्फ यही नहीं है कि इसमें सुबह से शाम तक भूखे-प्यासे रहना होता है। बल्कि रोजा वो है, जो रोजदार को पूरी तरह से पाकीजगी का रास्ता दिखाता है। रोजा वो अमल है जो इंसान को बुराइयों के रास्ते से हटाकर अच्छाई का रास्ता दिखाता है। रोजा सिर्फ ना खाने या ना पीने का ही नहीं होता, बल्कि रोजा शरीर के हर आजा (अंग) का होता है। इसमें इंसान के दिमाग का भी रोजा होता है, ताकि इंसान के खयाल रहे कि उसे कुछ गलत बातें सोचना नहीं करनी। उसकी आंखों का भी रोजा है, ताकि उसकी आखों से भी कोई गुनाह ना हो। उसके मूंह का भी रोजा है ताकि, वो किसी से भी कोई बुरे अल्फाज ना कहे और अगर कोई उससे किसी तरह के बुरे अल्फाज कहे तो वो उसे भी इसलिए माफ कर दे कि उसका रोजा है। उसके हाथों और पैरों का भी रोजा है ताकि, उनसे कोई गलत काम ना हों। आपको बता दें कि, इस तरह इंसान के पूरे शरीर का रोजा होता है जिसका मकसद ये भी है कि इंसान हर बुराई से दूर रहे। यही अल्लाह चाहता है कि उसका बंदा नेक रास्ते पर चले शायद इसलिए इस्लाम में रोजे को फर्ज किया गया है ताकि इंसान पूरी जिंदगी इसी तरह से गुजार सके।
  • जहां सूरज ना डूबे तो
    दुनिया के अलग अलग देशों में रमजान की शुरूआत भी अलग अलग तारीखों पर होती है और ऐसा चंद्रमा की वजह से होता है। उन जगहों पर जहां चंद्रमा देखना संभव नहीं है, वहां मुस्लिम पास के किसी स्थान जहां चांद दिख गया हो उसकी तस्दीक यानि पुष्टि कर रोजा शुरू कर लेते हैं। कुछ इस्लामी विद्वानों ने पवित्र शहर मक्का में चांद को देखने के आधार पर रोजे के महीने की शुरुआत करने की बात कहते हैं। हालांकि, दुनिया भर में अलग अलग देशों में अलग अलग तारीखों पर ही रमजान की शुरूआत होती है। ये अंतर एक या दो दिन का हो सकता है। बोहरा मुस्लिम इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से तय तारीख से रोजे शुरू करते हैं और तीस रोजे मुकम्मल हो जाने के बाद अगले दिन ईद मनाते हैं, ये कैलेंडर भी चांद के हिसाब से बना होता है। ठीक उसी तरह जैसे हिन्दु धर्म में पंचांग। खैर, जूनू, अलास्का जैसे देशों में मुसलमान कैसे रोजा रखते होंगे? सूर्य आर्कटिक सर्किल में मध्यरात्रि में दिखाई देता है, और उत्तरी फिनलैंड में, यह गर्मी के दौरान 60 दिनों तक बिल्कुल भी नहीं दिखता। इसलिए किसी दूसरे देश की सुबह और सूर्यास्त के समय का पालन करने की इजाजत है। इस्लामिक सेंटर ऑफ नॉर्थ नॉर्वे ने इस्लामिक कानून या मुस्लिम न्यायिक प्राधिकरण के विद्वान के मुताबिक स्थानीय मुसलमानों को मक्का के घंटों के हिसाब से रोजे रखने की अनुमति है। अमेरिका के मुस्लिम न्यायविदों की असेंबली ने इसी तरह का फैसला किया कि अलास्का के सबसे पूर्वोत्तर क्षेत्रों में रहने वाले मुसलमान देश के दूसरे हिस्से के सुबह और सूर्यास्त के वक्त का उपयोग कर सकते हैं, जहां दिन रात से अलग हैं।
  • कहीं 10 तो कहीं 18 घंटे का होता है रोज़ा
    सहरी और इफ्तार का वक्त भी अलग-अलग होता है। सबसे ज्यादा चुनौती नार्वे के मुसलमानों के सामने होती है। यहां सूरज डूबने के इंतजार में तारीख ही बदल जाती है। यहां दो लाख से ज्यादा मुसलमान रहते हैं। रमजान के पाक महीने की शुरूआत करते हुए नार्वे की मस्जिदों से लाउड स्पीकर पर अजान दी जाती है जिससे पता चल जाता है कि रोजा रखने का वक्त शुरू हो गया। इसी तरह इफ्तार के वक्त भी अजान होती है लेकिन इस सहरी और इफतार के बीच का वक्त करीब 18 से 20 घंटे का हो जाता है। आइसलैंड के रिक्जेविक में रोजे 18 घंटे से ज्यादा के होते हैं। आइसलैंड में दिन के बजाय रात छोटी होती है। दिन 18 घंटे और रात 6 घंटे की ही होती है। रात 10 बजे इफ्तार के साथ जैसे ही एक रोजा पूरा होता है, तो अगले 4 घंटे बाद दूसरे रमजान की सहरी शुरू हो जाती है। सिडनी, ऑस्ट्रेलिया में रोजा 9 से 10 घंटे का होता है। कुल मिलाकर, चाहे किसी देश में रोजा 20 घंटे का हो या फिर 8 से 10 घंटे का, हर मुसलमान पूरे उत्साह और खुलूस के साथ रोजा रखता है। ऐसा भी माना जाता है कि अल्लाह अपने बंदों को इबादत करने और रोजा रखने की कुव्वत अता करता है।
  • इस्लाम से पहले से है रोजा रखने की परंपरा
    इतिहासकारों के मुताबिक मक्का या मदीना में इस्लाम धर्म के प्रचार के पहले से ही रोजा रखने की परंपरा थी। हालांकि, उस वक्त आज की तरह रोजा नहीं रखा जाता था। इस्लाम के पैगम्बर हजरत मोहम्मद के बीच-बीच में रोजा रखने के बावजूद शुरुआती दौर में उनके सहबियों या समर्थकों के लिए 30 रोजे रखना जरूरी नहीं था। हजरत मोहम्मद के हिजरत करने यानी मक्का से मदीना जाने (622 ईस्वी) के दूसरे साल यानी साल 624 ईस्वी में इस्लाम में रमजान के महीने में रोजा रखने को फर्ज या जरूरी दिया गया। इसके बाद से ही पूरी दुनिया में बिना किसी बदलाव के रोजा रखने की परंपरा चली आ रही है। यहूदियों और कई अन्य जातीय समूहों में भी पूरे दिन खान-पान नहीं करने जैसी धार्मिक परंपरा देखने को मिलती रही है, वैसे ये उन महीनों में भी होता था जब रमजान ना हो। जिस साल रोजा को फर्ज किया गया था उसके दो साल पहले वर्ष 622 में पैगंबर मोहम्मद साहब मक्का से सहाबियों (अपने साथियों) को लेकर मदीना चले गए थे। इस्लाम में इसे हिजरत कहा जाता है। हिजरत की तारीख से ही मुसलमानों के वर्ष की गिनती शुरू की गई।
  • आशूरा पर भी रखते हैं रोजा
    इस्लामी जानकारों का कहना है कि हिजरी द्वितीय वर्ष के दौरान रमजान के महीने में रोजा रखने को कुरान के जरिए फर्ज किया गया था। कुरान की जिस आयत के जरिये रोजा को फर्ज किया गया है उसमें कहा गया है कि पहले की जाति समूह या लोगों पर भी रोजा फर्ज था। इससे यह समझा जा सकता है कि विभिन्न जातियों में पहले से ही रोजा रखने की परंपरा थी, हो सकता है उसका स्वरूप अलग हो। मसलन यहूदी अब भी रोजा रखते हैं, कई अन्य जातियों में भी ऐसी परंपरा है। उस समय मक्का या मदीना में रहने वाले लोग कुछ खास तारीखों पर रोजा रखते थ। कई लोग आशूरा यानी मोहर्रम महीने की दसवीं तारीख को रोजा रखते थे, जिसकी परंपरा आज भी कायम है। इसके अलावा कुछ लोग चंद्र मास की 13, 14 और 15 तारीख को रोजा रखते थे।
  • हजरत आदम से लेकर हजरत मोहम्मद साहब तक
    इस्लामी इतिहासकारों के अनुसार अन्य पैगंबरों के लिए रोजा फर्ज था लेकिन वह एक महीने तक का नहीं बल्कि कुछ रोज का था। पैगंबर साहब भी मक्का में रहने के दौरान चंद्र वर्ष में तीन दिनों के लिए उपवास रखते थे। यह साल में 36 दिन होता है, इसका मतलब यह है कि वहां पहले से ही रोजा रखने की परंपरा थी। हजरत आदम के समय महीने में तीन दिन और नबी दाऊद के समय एक-एक दिन के अंतराल पर रोजा रखा जाता था। नबी मूसा ने शुरुआत में तुरा की पहाड़ी पर तीस दिन रोजे रखा था। बाद में और दस दिन जोड़ कर उन्होंने लगातार चालीस दिन रोजा रखा था। हजरत मोहम्मद ने वर्ष 622 में मक्का से मदीना जाकर हिजरत करने के बाद मदीना के लोगों को आशूरा (मोहर्रम महीने की दसवीं तारीख) के दिन रोजा रखते देखा था। उसके बाद वह भी उसी तरह रोजा रखने लगे। पहले के नबियों पर 30 रोजा रखना फर्ज नहीं था। किसी नबी पर आशूरा का रोजा रखना फर्ज था तो किसी पर चंद्र मास की 13,14 और 15 तारीख को रोजा फर्ज था।
    मदीना में हिजरत करने के बाद मोहम्मद साहब ने जब देखा कि मदीना के लोग आशूरा की तारीख पर रोजा रखते हैं तो लोगों से इसकी वजह पूछी। उन लोगों ने बताया कि इसी दिन अल्लाह ने हजरत मूसा को फिरौन के चंगुल से छुड़ाया था, इसी वजह से हम रोजा रखते हैं। इसके बाद हजरत मोहम्मद साहब ने भी रोजा रखा और अपने साथियों से भी रखने को कहा। वो नफिल रोजा के तौर पर यानी अपनी स्वेच्छा से चंद्र मास की 13,14 और 15 तारीख को पहले से ही रोजा रखते थे। इस्लामी जानकारों का मानना है कि नबी आदम के समय चंद्र मास के तीन दिनों तक रोजा रखा जाता था।
    नबी हजरत मूसा के दौर में आशूरा का रोजा रखा जाता था। अरब देशों में इन दो तारीखों को रोजा रखने का प्रचलन था लेकिन इस्लाम के नबी मोहम्मद साहब के समय ही तीस दिनों के रोजा को फर्ज किया गया। हजरत मोहम्मद साहब इन दोनों रोजा को नफिल के तौर पर यानी स्वेच्छा से रखते थे। उन्होंने हिजरी द्वितीय वर्ष से पहले फर्ज के तौर पर कोई रोजा नहीं रखा था। साल 624 में कुरान की आयत के जरिए मुसलमानों के लिए रोजा फर्ज किया गया। रोजा फर्ज करने के बावजूद अगर कोई किसी बीमारी या यात्रा की वजह से रोजा नहीं रख पाता तो वह अपनी इच्छा के मुताबिक प्रति दिन के रोजे के बदले तय मात्रा में दान कर सकता था। हालांकि, रोजे के बदले दान देना ही उपाय नहीं था इसलिए बाद में रमजान के महीने में रोजा सबके लिए जरूरी कर दिया गया। इतिहासकारों का कहना है कि यह तमाम बदलाव द्वितीय हिजरी में रोजा को फर्ज करने वाले रमजान के महीने में ही हुए थे। उस समय रोजा शुरू होने के पहले और बाद में मूलतः खजूर, पानी और दूध का सेवन किया जा सकता था। अरब के लोग सहरी और इफ्तार में एक जैसा ही भोजन करते थे, इनमें खजूर और जमजम का पानी शामिल था।
  • शहादत-ए-मौला अली 21 वें रोज़े को
    माहे रमजान के सभी 30 रोजों की अहमियत हैं। इनमें कुछ न कुछ तारीखी वाक्यात हुए हंै, जिसमें 21 वां रोजा भी शामिल है, इसे हजरत अली की शहादत के रूप में जाना जाता है। हजरत अली को पूरी दुनिया में मौला अली, मुश्किल कुशा और शेर-ए-खुदा के नाम से भी जाना और पुकारा जाता है। हजरत अली पूरी दुनिया की इकलौती ऐसी शख्सियत हैं जिनकी पैदाईश काबा शरीफ के अंदर हुई थी। उन्होंने हमेशा गरीबों, यतीमों, मजलूमों और बेसहाराओं की खिदमत में पूरी जिंदगी गुजार दी। आपने लोगों को नसीहत दी कि हमेशा गरीबों, जरूरतमंदों और बेसहारा लोगों की मदद करते रहो। मौला अली के पास खेत थे जिनसे वे अनाज उगाते थे। इसी अनाज से मौला अली हर रमजान में कूफा में लोगों को खाना खिलाते थे। मौला अली ने 21 वें रोजे को आपने जामे शहादत नोश फरमाई। माहे रमजान में आपको मानने और चाहने वाले आपके नाम पर लोगों को इफतार कराते हैं। 21वें रोजे पर पूरी दुनिया में शहादत-ए-मौला अली मनाया जाता है।
  • हिन्दुस्तान जैसी ईद कहीं नहीं
    रमजान खत्म होने के बाद अगले दिन ईद मनाई जाती है। इसे मीठी ईद, सेवईयों वाली ईद और ईद-उल-फित्र भी कहा जाता है। ईद की नमाज के बाद लोग एक दूसरे को बधाई देते हैं। गैर मुस्लिम भी अपने मुस्लिम दोस्तों के घर जाकर उन्हें उपहार देते हैं और गले मिलकर ईद की मुबारकबाद पेश करते हैं। मलेशिया में इसे हरि राय एडिल्फीत्री कहा जाता है, उर्दू में यह चोई डीडी का अर्थ है छोटे ईद, जबकि तुर्की में यह शकर बेरामी या चीनी दावत है। भारत में रमजान के महीने पर बाजारों में खूब रौनक देखने को मिलती है। बड़ों से लेकर बच्चों तक हर कोई खुदा की इबादत में डूबा दिखाई देता है। कई शहरों में मुस्लिम इलाकों पर दिन के समय होटल को बंद रहते हैं। मस्जिदों में नमाज पढ़ने वालों की तादाद खासी बढ़ जाती है। रमजान में लोग एक-दूसरे को सहरी व इफ्तार की दावत देते हैं। कई जगहों पर मुस्लिम संस्थाओं के अलावा अन्य सामाजिक संस्थाओं द्वारा भी इफतार का आयोजन किया जाता है। पाकिस्तान में होटल व खाने-पीने की सभी दुकाने बंद रहती है। इसके साथ लोग इस समय में टी.वी भी नहीं देखते हैं। वे अपना सारा समय अल्लाह की इबादत में बिताते हैं। बाजार व दुकानें खूब सजाई जाती है। मगर बाजार रात से सुबह सेहरी के समय खोला जाता है। ईराक में रमजान और ईद के मौके पर खजूर से बनी कलैचा पारम्परिक स्वीट डिश खाने की परंपरा है। इसे लोग खासतौर पर घर पर बनाकर खाते हैं। यह एक तरह की कुकीज है, जिसमें ड्राई फ्रूट्स व खजूर की स्टफिंग भरी जाती है। ट्यूनीशिया में लोग रात को दूरबीन की मदद से चांद का दीदार करते हैं। यहां भी मुसलमान रोजे रखकर कुरान की तिलावत करते हैं। इंडोनेशिया में रमजान के पाक महीने में बार व नाइट क्लब पूरे तरह से बंद किए जाते हैं। इसके अलावा होटल में दिन के दौरान पर्दे लगाए जाते हैं। ताकि रेस्टोरेंट में भोजन करने आने वाले का चेहरा छुप जाएं। हालांकि, बदलते वक्त के साथ अब पर्दे डालने की परंपरा भी कम होती जा रही है। मिस्र में रमजान के महीने में लालटेन जलाने की परंपरा है। यह फानूस नाम से जाना जाता है। उसे इफ्तार की मेज, खिड़की या बालकनी में लटकाया जाता है। लेकिन, हिन्दुस्तान में जिस भाईचारे, अमनो-अमान और सदभाव के साथ ईद मनाई जाती है उसकी मिसाल दुनिया के और किसी भी मुल्क में देखने को नहीं मिलती।
    (अधिवक्ता एवं लेखक)

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