राजेन्द्र माथुर
देश कैसे बनता है? कैसे यह कायम रहता है? क्या ठंडे सोच-विचार से, हित-स्वार्थों की चतुर समझदारी से, राष्ट्रीयता की सही वैज्ञानिक समझ से देश जन्म लेता है और पनपता है? या देश एक जुनून है, आधी रात में देखा गया तर्कातीत सपना है, भावनाओं का अंधड़ है, इतिहास की भट्टियों में उबाली गई और जातीय स्मृतियों के सिलेण्डरों में सदियों तक सिझाई गई मनपसंद शराब है? या दोनों ही बातें गलत हैं और देश विवेक और आवेश की एक संयुक्त संतान है, जिसके बारे में हम कभी यह नहीं जान सकेंगे कि उसे कितना आवेश ने गढ़ा है और कितना विवेक ने, कितना दोपहर के सूरज ने गढ़ा है और कितना आधी रात के सपने ने?
क्या देश एक सौदा है, जो बनियों की तरह हिसाब लगाकर किया जाता है? या वह प्रेम है, जो हो जाता है? क्या वह हमारी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का अनिवार्य कलश है, सुपर स्ट्रक्चर है या वह परिस्थितियों के पार जाने का दुस्साहस है, जो आगा-पीछा नहीं सोचता? देश एक तर्क है या एक मिथक है? क्या वह एक ऐसा तर्क है, जो मिथक से पोषण पाता है, जैसे हमारे दिनभर के कामकाज आधी रात के सपनों से पोषण और प्रेरणा पाते हैं? तर्कों का जाल तो हम रच सकते हैं।
अखबारों से लेकर प्राथमिक शालाओं तक वह चालीस साल से रचा जा रहा है। लेकिन क्या एक अनुकूल मिथक-विश्व को रच पाना हमारे बस की बात है? आधी रात को हिंदुस्तान के लोग सपने में क्या देखें, इसका प्रबंध क्या कोई कर सकता है?
1947 में भारत का बंटवारा इसलिए नहीं हुआ कि भारत की नियति के बारे में हिंदुओं और मुसलमानों के पास अलग-अलग ठंडे तर्क थे और वैज्ञानिक दृष्टियां थीं। वह इसलिए हुआ कि दोनों कौमों के जुनून अलग होते गए, आधी रात के सपने अलग होते गए, और उनके मिथक विश्व वक्र और विपरीत बनते गए। अंधेरे में घट रहे इस रहस्यमय रसायन को निश्चय ही दिनभर की घटनाओं ने मदद पहुंचाई।
दिन की घटना यह थी कि सिंहासन पर भारतवासियों के बैठने का दिन नजदीक आ रहा था और रात का आतंक यह था कि इस सिंहासन पर कौन बैठेगा, और कैसे बैठेगा?
दिन में यदि पत्ता भी खड़के, तो रात को वह प्रेत बनकर लौट सकता है। मसलन, एनी बेसेंट के जमाने में जिसे होमरूल कहा जाता था, उसे गांधी के आने के बाद स्वराज कहा जाने लगा। स्वराज और सत्याग्रह शब्दों की ध्वनियां ही शायद मुसलमानों के लिए अलग थीं और उसने शायद उन्हें पराएपन का बोध दिया। लेकिन बताइए कि अपनी आजादी की लड़ाई के दौरान यदि हम स्वराज की मांग नहीं करते, तो क्या करते? गोखले और जिन्ना जब तक सूट और टाई पहनते थे, तब तक हिंदू और मुसलमान की साझा संस्कृति में कोई दरार नहीं पड़ी। लेकिन गांधी जब घुटनों तक की धोती पहनकर गांव-गांव जाने लगे और आश्रम के माहौल में रहने लगे और अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि के ग्यारह सूर्ती नियम बताने लगे, अनशन करने लगे, बकरी का दूध पीने लगे और रामराज्य का जिक्र करने लगे, तो दरार पड़ गई।
आज तक कुछ हिंदुस्तानियों को यदि इस बात का अफसोस है कि सूट टाई के आंग्ल-संवैधानिक तरीकों से भारत ने आजादी की लड़ाई क्यों नहीं लड़ी, तो कुछ को इस बात का अफसोस है कि गरीब लोगों के बीच धर्मद्रोही वर्ग चेतना जगाकर, वर्ग संघर्ष के वैज्ञानिक नियमों से हमने अपना रास्ता क्यों नहीं बनाया। काश हम गोखले और जिन्ना के रास्ते चले होते! काश हमने एम.एन. राय और डांगे को नेता माना होता!
वे सब उपलब्ध थे, लेकिन हिंदुस्तान उनके पीछे नहीं चला, क्योंकि पूरे पहाड़ में घोड़ा उसी चट्टान को चाटता है, जिसमें नमक होता है और गाय भी जानती है कि बागड़ की वनस्पति खाने लायक नहीं है। यह भारत का खाद्य-अखाद्य बोध है कि उसने गांधी को नेता माना, दूसरों को नहीं। और भारत के भक्त कवियों की तरह यदि गांधी इस देश के सांस्कृतिक तारों को नहीं झनझनाते, यदि वे देश के अवचेतन को आंदोलित नहीं करते, यदि वे एक गहरी हूक यहां पैदा नहीं करते, तो भारत में वह जन ऊर्जा पैदा ही नहीं होती, जिसने हमारी स्वाधीनता को 1947 में संभव बनाया।
गांधी को छोड़ें और नेहरू की बात करें। नेहरू से ज्यादा धर्मनिरपेक्ष, विज्ञान-पक्षधर, आधुनिकता-चेतन नेता तो हिंदुस्तान ने शायद ही इस सदी में पैदा किया हो। लेकिन यदि हम जवाहरलाल के जुनून की तलाश करें तो क्या पाते हैं? हम पाते हैं कि यह शख्स भारत के एक-एक आदमी का चेहरा यह टटोलते हुए पढ़ सका था कि उस पर भारत माता की छाप कहां है? कौन सा है वह सांस्कृतिक सांचा, जिसमें सदियों तक हिंदुस्तान के लोग ढलते रहे और जो हिंदू, मुसलमान, एंग्लो इंडियन बेने-इजराइली, शक, कुशाण, हूण, द्रविड़, सबको एक-सा बनाता चला गया। विज्ञान का हामी जवाहरलाल जीवनभर भारत की कविता खोजता रहा, क्योंकि वह जानता था कि देश यदि कविता नहीं है, तो कुछ नहीं है। दुनिया में एक ऐसा देश बता दीजिए जिसकी नींव कविता पर नहीं, बल्कि रूखे-सूखे गद्य पर टिकी हो। एक भी नहीं मिलेगा। लेकिन भारत में ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि कविता ने भारत को तोड़ा है, इसलिए जोडऩे के लिए हमें गद्य चाहिए, चतुराई चाहिए, सौदेबाजी चाहिए।
नेहरू ने गंगा के बारे में, हिमालय के बारे में, भारत की मिट्टी के बारे में जो लिखा है, उसे जरा एक बार फि र पढि़ए। गंगा और हिमालय का नाम सुनकर जो झनझनाहट नेहरू को होती थी, वह क्या एक हिंदू प्रतिध्वनि थी? नेहरू ने अपने देश को सौंदर्य-प्रतीकों, प्रेरणा-प्रतीकों और स्मृति-प्रतीकों में देखा। इन सबने उन्हें बिजली दी। इस बिजली के बगैर कोई हिंदुस्तान में रह कैसे सकता है? जब सिंहासन के प्रश्न नहीं थे, तब मध्य युग के हिंदू और मुसलमान कवि उन्हीं प्रतीकों के माध्यम से हिंदुस्तान पहचानते थे। लेकिन यदि जुनूनों के बीच दरार पडऩे लगे तो गंगा का जिक्र भी साम्प्रदायिक लग सकता है।
यदि गंगा और हिमालय का परित्याग जरूरी है, तो बताइए, भारत की कविता किन उपादनों का सहारा लेकर पढ़ें!
धर्म के बिना तो हिंदुस्तान का या किसी भी देश का काम चल सकता है, लेकिन एक साझा मिथकावली के बिना किसी देश का काम नहीं चल सकता। मसलन यदि कोई वामपंथी विशेषज्ञ यह नुस्खा सुझाए कि आप महाभारत की कथाओं को अपनी याददाश्त से बाहर निकाल दीजिए और फिर देश बनाइए, तो यह काम ब्रह्मा और विश्वकर्मा मिलकर भी नहीं कर सकते। महाभारत कोई धर्म ग्रंथ नहीं है! वह इस जमीन के बाशिंदों के अनुभवों का निचोड़ है और होमर या शेक्सपीयर की तरह का सार्वकालिक और पंथ निरपेक्ष है। यूरोप के देशों ने काफी खून खच्चर के बाद जब राष्ट्र स्थिरता प्राप्त की, तो उन्होंने पाया कि तीन किस्म की आवेश-परम्पराओं से वे बने हैं।
एक तो पश्चिमी एशिया का यहूदी ईसाई धार्मिक आवेश था और उसकी सत्तर उपशाखाएं थीं। दूसरे यूनान का ज्ञान-विज्ञान था। वहां के देवी-देवता और महापुराण थे, वहां के साहित्यिक क्लासिक थे। इसके साथ-साथ रोमन साम्राज्य का राज्यतंर्त था, विधि व्यवस्थाएं थीं, प्रशासन-परंपराएं थी। तीसरे, अपना स्थानीय राष्ट्रीय इतिहास था और उनके नायक-महानायक थे।
यूरोप क े कई देश आज भी धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं, लेकिन ईसा मसीह के स्वर्गारोहण की कथा के साथ-साथ प्रोमीथियस की वह कथा भी उनके संस्कृति-विश्व का अंग बन चुकी है, जिसमें प्रोमीथियस अग्नि चुराकर लाता है और जीवनभर दुख झेलता है। बहुईश्वरवादी ग्रीस की कथाएं एकेश्वरवादी यूरोप की जातीय स्मृतियों में रच बच गई हैं। ऐसा ही इंडोनेशिया में भी हुआ है, जहां रामायण की जीवित लोक परंपराएं हैं और साथ ही साथ इस्लाम भी है। राम को वहां ईश्वर के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसे मिथक नायक के रूप में देखा जाता होगा, जो कुछ शाश्वत सत्यों को अपने महाकाव्यात्मक जीवन में उजागर करता है।
ईश्वर के रूप में राम का परित्याग करके भारत का काम चल सकता है, लेकिन एक संस्कृति-पुरुष के नाते, एक काव्य प्रतीक के नाते राम का परित्याग करके कैसे काम चल सकता है?
दरअसल जिसे हिंदू धर्म कहते हैं, वह इस लेख में वर्णित अर्थों में धर्म है ही नहीं। वह मिथक-संचय की भारतीय प्रक्रिया का नाम है। इस संचय प्रक्रिया को त्यागकर कोई देश नहीं बन सका, तो हिंदुस्तान कैसे बनेगा, जिसकी निरंतरता तीन हजार साल से टूटी नहीं है? आशंका इस बात की है कि सिंहासन के झगड़ों के कारण और आसपास के दबावों के कारण कहीं यह संचय प्रक्रिया समाप्त न हो जाए और हिंदुत्व सचमुच एक धर्म न बन जाए। आज हिंदुत्व पर भारी दबाव है कि वह संकीर्ण और एकांगी और असहिष्णु बने। इन दबावों का जो जवाब हम अगले दस बीस साल में देंगे, वहीं हिंदुस्तान की किस्मत का फैसला सैकड़ों सालों के लिए कर देगा।
लेकिन यह उन धर्मों की भी जिम्मेदारी है, जो इस लेख के अर्थों में धर्म हैं कि वे भारत की इस संचय प्रक्रिया को नष्ट न होने दें। यदि वह नष्ट हो गई तो न कोई धर्म शेष रहेगा, न यह प्रक्रिया। तब यह हिंदुस्तान भी शेष नहीं रहेगा, जिसे सिंहासन के झगड़ों के अलावा हम तीन हजार साल से जानते रहे हैं। भारत की निरंतरता को जो खतरा इस माने में 1947 के बाद पैदा हुआ है, वह पहले सचमुच कभी नहीं हुआ, क्योंकि अब तो यह भी निश्चित नहीं है कि बीसियों राजनीतिक बंटवारों के बाद भी हिंदुस्तान ज्यों का त्यों बना रहेगा, जैसे कि वह पहले बना रहता था।
(श्री राजेन्द्र माथुर का देहावसान 30 साल पहले 9 अप्रैल 1991 को दिल्ली में हुआ था। यह लेख श्रीमती मोहिनी माथुर द्वारा सम्पादित राजेन्द्र माथुर संचयन से )