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दक्षिणी महाद्वीप अंटार्कटिका में उल्का पिंडों का अकूत खजाना ! 

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निर्मल कुमार शर्मा

हमारी धरती अपने निकटवर्ती तारे सूर्य से व्यास के मामले में 109 गुनी छोटी है,लेकिन द्रव्यमान के मामले में यह उससे तेरह लाख गुनी छोटी है ! परन्तु सूर्य से इतनी छोटी होने के बावजूद भी यह हम मानवों के लिए इतनी बड़ी है कि इसके बहुत से दुर्गम इलाकों में अभी तक मनुष्य पहुंच नहीं पाया है ! उन्हीं दुर्गम इलाकों में इस धरती के धुर दक्षिणी छोर पर स्थित 14.2 मिलियन वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को घेरे औसतन 1.6 किलोमीटर मोटी बर्फ की चादर से ढका यह जगह अंटार्कटिका महाद्वीप के नाम से जाना जाता है,इसके पश्चिमी भाग में समुद्र के पानी में इस पर जमे बर्फ की मोटाई 2.5 किलोमीटर गहराई तक जमी हुई है ! इसी महाद्वीप में हमारी धरती का दक्षिणी ध्रुव भी स्थित है। इस पर जमे बर्फ की मात्रा कितनी है,इसका अंदाजा हम ऐसे लगा सकते हैं कि यहां जमें बर्फ का आयतन 26.5 मिलियन घन किलोमीटर है,जिसका वजन 2करोड़ 65लाख गीगा टन है ! भूवैज्ञानिकों के अनुसार इस पर करोड़ों साल से जमें बर्फ की मात्रा का अंदाजा ऐसे भी लगा सकते हैं कि अगर अंटार्कटिका महाद्वीप पर जमी सारी बर्फ किसी अप्रत्याशित कारण से पिघल जाय तो दुनिया भर में समुद्र का जलस्तर 58 मीटर तक उठ जाएगा !
ऐसे अद्भुत अंटार्कटिका महाद्वीप के बारे में लब्धप्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका साइंस एडवांस जर्नल ( Science Advanced Journal ) में अभी हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार यह महाद्वीप हमारी पृथ्वी पर गिरने वाले कुल उल्का पिंडों में से 62 प्रतिशत तक को अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है ! भूवैज्ञानिकों द्वारा बनाए गए एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस प्रोग्राम के तहत किए गए आकलन से यह पता चला है कि अंटार्कटिका महाद्वीप में 600ऐसे स्थान हैं,जहां अंतरिक्ष से गिरे उल्का पिंडों की प्रचुरता है। हमारी धरती पर करोड़ों-अरबों सालों से उल्का पिंडों की अनवरत बारिश होती रही है। उल्कापिंड हमारे सौरमंडल की प्रारम्भिक अवस्था और हमारी धरती पर जीवन की कैसे उत्पत्ति हुई,इसके समाधान की भी सबसे बड़े कुंजी हैं ।
भूवैज्ञानिकों के अनुसार अंटार्कटिका की मोटी बर्फ के नीचे लगभग 3 लाख उल्का पिंडों के होने की संभावना है। बेल्जियम की एक यूनिवर्सिटी के ग्लेशियोलाजिस्ट प्रोफेसर के अनुसार अंटार्कटिका में अब तक केवल 45हजार उल्का पिंड खोजें जा चुके हैं,जो वहां संभावित कुल उल्का पिंडों के लगभग 15 प्रतिशत भाग ही हैं ! अंतहीन बर्फ से ढके इस महाद्वीप में उल्का पिंडों को ढूंढने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा ड्रोन का उपयोग कियाजा रहा है । सफेद बर्फ से ढके अंटार्कटिका महाद्वीप में करोड़ों-अरबों सालों से बर्फ में दफन रंग-बिरंगे उल्कापिंड बहुत दूर से दिखाई देने लगते हैं । अंटार्कटिका महाद्वीप पर जमी मोटी बर्फ जो इसके 98 प्रतिशत भाग तक को ढकी हुई है,वही बर्फ इस पर गिरने वाले उल्कापिंडों को लाखों-करोड़ों सालों से बिल्कुल सुरक्षित सहेज कर रखी हुई है !
उल्का पिंडों पर शोध करनेवाले भूवैज्ञानिकों के अनुसार बर्फ से ढके अंटार्कटिका महाद्वीप पर करोड़ों-अरबों सालों से उल्कापिंड गिरते गये और उसके ऊपर हर साल बर्फ गिरकर जमती गई, जिससे ये उल्का पिंड वहां उपस्थित ग्लेशियरों में और अधिक गहराई में दफन होकर सुरक्षित होते गए। बाद में ये ग्लेशियर पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण बल की वजह से निचाई वाले स्थानों या समुद्रों की तरफ स्थानांतरित होते गए । यहां के अधिकांश उल्कापिंड ग्लेशियरों के साथ सदा के लिए अपने निकटवर्ती महासागरों में जलसमाधि ले लिए,लेकिन कुछ उल्कापिंड स्थलीय गड्ढों में भी सुरक्षित हो गये हैं। इसी तरह के उल्का पिंडों से समृद्ध 600गड्ढों को भूवैज्ञानिकों ने चिन्हित किए हैं। उल्का पिंडों से समृद्ध इन गड्ढों को मीटियोराइट स्ट्रैंडिंग जोन ( Meteorite Stranding Zone ) या MSZ भी कहते हैं।
दुनिया भर में पृथ्वी के प्रबल गुरूत्वाकर्षण की वजह से प्रतिदिन लाखों की संख्या में उल्कापिंड हमारी पृथ्वी पर गिरते रहते हैं,लेकिन ये रात्रि के समय ही दिखाई देते हैं, क्योंकि दिन में सूर्य के तेज प्रकाश में ये हमारी आंखों को दिखाई नहीं देते हैं। वास्तव में अंतरिक्ष में लाखों-करोड़ों की संख्या में छोटे-बड़े उल्कापिंड चक्कर काटते रहते हैं,जब वे पृथ्वी जैसे ग्रहों के निकट आ जाते हैं,तब वे इन ग्रहों के गुरूत्वाकर्षण बल से बहुत तेज गति से इनकी तरफ खिंचते चले आते हैं,जब उस ग्रह विशेष के वायुमंडल में ये उल्का पिंड प्रवेश करते हैं,तब ये वायुमंडल के घर्षण से जल उठते हैं,इनका तापमान लाखों डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है,ज्यादेतर उल्का पिंड अंतरिक्ष में ही जलकर खाक हो जाते हैं,लेकिन बहुत बड़े आकार के उल्कापिंड वायुमंडलीय घर्षण के बावजूद पूरी तरह अंतरिक्ष में जलकर नष्ट नहीं हो पाते,और वे किसी भी ग्रह या धरती पर गिर कर भारी तबाही मचाते हैं !
उदाहरणार्थ 6.5करोड़ साल पूर्व ऐसा ही एक अतिविशाल लगभग 81किलोमीटर चौड़ा उल्कापिंड हमारी धरती के आज के मेक्सिको देश के युकाटान प्रायद्वीप की खाड़ी में बहुत तीव्र गति से आ टकराया,जिसकी ताकत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उसकी ताकत हिरोशिमा पर गिराए गए 1000 करोड़ परमाणु बमों के बराबर विध्वंसक शक्ति थी,उससे हमारी धरती के क्रेटर में 100 किलोमीटर लम्बा और 30 किलोमीटर गहरा छेद हो गया था,धरती का तापमान अप्रत्याशित रूप से इतना बढ़ गया कि इस धरती पर उस समय उपस्थित सबसे विशाल जीव डायनोसोरों की 1000प्रजातियों सहित 80प्रतिशत तक अन्य जीवधारी सदा के लिए इस दुनिया से विलुप्त हो गए ! इस भयंकरतम् टकराव से हमारी धरती से 32500 करोड़ टन पदार्थ वातावरण में सैकड़ों किलोमीटर ऊंचाई तक विखर गया,जिससे सूर्य का प्रकाश वर्षों तक बाधित हो गया,फलस्वरूप कई वर्षों तक की लगातार रात्रि हो गई,जिससे भयंकरतम् ठंड और अंधेरे से धरती की सारी वनस्पतियों का समूल तौर पर सर्वनाश हो गया,जिससे बचे-खुचे शाकाहारी जीव भी भूख से बिलबिला कर मौत के मुंह में चले गए !
कितने आश्चर्य की बात है कि वैज्ञानिकों के अनुसार इस धरती पर जीवन इन्हीं उल्का पिंडों द्वारा लाए गए तमाम जरूरी तत्वों के संलयन से हुआ,लेकिन वही कुछ ज्यादा बड़े उल्का पिंड 6.50करोड़ साल पूर्व जुरासिक युग के अन्त में इस धरती पर रह रहे डायनोसोर जैसे विशालकाय जीव के सामूहिक विलोपन और 80प्रतिशत तक अन्य जीवों के लिए सर्वनाश के कारण भी बने ! लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार आशा की ये बात है कि इस धरती पर जब-जब महाविनाश हुआ है,उसके बाद तब-तब इस धरती पर उपस्थित प्रकृति ने पहले से ज्यादा परिष्कृत और बुद्धिमान प्राणियों का सृजन किया ! ये भी संभव है कि अगर 6.5करोड़ साल पूर्व अगर उल्कापिंड से डायनोसोरों का महाविनाश नहीं हुआ होता तो उन ताकतवर डायनासोरों के रहते बिल में छिपे स्तनधारियों का विकास कतई संभव ही नहीं होता,जिसकी अन्तिम परिणति आज इस धरती पर मानव का अस्तित्व ही नहीं होता !

     -निर्मल कुमार शर्मा 'गौरैया एवम् पर्यावरण संरक्षण तथा देश-विदेश के सुप्रतिष्ठित समाचार पत्र-पत्रिकाओं में वैज्ञानिक,सामाजिक, राजनैतिक,पर्यावरण आदि विषयों पर स्वतंत्र, निष्पक्ष,बेखौफ,आमजनहितैषी,न्यायोचित व समसामयिक लेखन
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