Schaschikkantte Trriviedy
कल रात से रीढ़ में फिर से बहुत दर्द है लेकिन उससे ज़्यादा दर्द एक पोस्ट पढ़कर हुआ जिसमे लिखा है
‘गौरी लंकेश का असली नाम पैट्रिक था और वो मूलतः ईसाई थी और उसे ईसाई धर्म प्रचार करने के लिए पैसे देते थे इसलिए उसने उनके लिए गौरी लंकेश पैट्रिक अखबार शुरू किया था.’
एक और बुद्धिजीवी ने लिखा है, ‘गौरी ने अपने नाम के आगे लंकेश रखा था इसी से पता चलता है कि उसकी मानसिकता क्या है.’
और एक अति विद्वान ने लिख मारा कि ‘उसे दफनाया गया है फिर तो वो पक्की ईसाई है.’
भारत के कन्नड़ मूल के महान हिंदी नाटककार बी वी कारंत की किस्मत अच्छी थी कि समय रहते चले गए.
गौरी के बारे में मैं कुछ नहीं लिखना चाहता क्योंकि सोशल मीडिया के पोस्ट पढ़कर लगता है कि भारत के हिंदी क्षेत्र में पिछले बीस पच्चीस सालों से पढाई बंद है. पढाई लिखाई पर पाबन्दी है. ऐसे में क्या लिखा जाय और क्यों?
गौरी ईसाई समुदाय से नहीं बल्कि लिंगायत समुदाय से थी जो शिव को मानता है. लंकेश परिवार दावणगेरे में हर साल नन्दितावरी शिव मंदिर जाता है, हाल ही में टाइम्स ऑफ़ इंडिया में इस बारे में खबर छपी थी की इंद्रजीत (गौरी के भाई) ने मंदिर जाकर अपनी पत्नी का जन्मदिन मनाया।
वीरशैव या लिंगायत समुदाय, वैदिक काल से ही, ब्राह्मणों के हिन्दू धर्म पर कब्जे और कुरीतियों का विरोध करता आया है. वे मृतक को ध्यान मुद्रा में दफनाते हैं वे विश्वाश करते हैं “स्थरावक्कलीवुन्तुजङ्गमागक्कलीविल्ला”
(मतलब जो स्थिर है वह मर जाता है और चलायमान ही जीता है)
वे वैदिक काल की सभी कुरीतियों का विरोध करते हैं मसलन केवल ब्राह्मण ही वेद पढ़ें, स्त्रियां मंदिर में न जाएँ, ब्राह्मणों के अलावा कोई पूजा न करे वगैरा।
ये लंकेश संभवतया लिंगेश का अपभ्रंश है क्योंकि वीरशैव इष्टलिंग को ही मानते हैं. वे शिव के उपासक हैं. क्या ये हिन्दू विरोध है?
लंकेश (पैट्रिक)/पत्रिका गौरी ने नहीं उसके पिता पाल्यदा लंकेशप्पा ने 1980 में शुरू किया था. इस अखबार को निकालने से पहले गौरी के पिता ने कर्नाटक का चप्पा चप्पा छाना और दलितों, गरीबों की स्थिति पर अखबार को फोकस किया। यह अखबार गाँधी जी के “हरिजन” अख़बार की तरह आज भी कोई विज्ञापन नहीं लेता केवल सब्सक्रिप्शन पर ही चल रहा है. इसका सर्क्युलेशन लगभग 4.5 लाख है और पाठक संख्या लगभग 25 लाख.है.
सन 2000 में उनकी मौत के बाद गौरी ने इसका संपादन संभाला। उसके पिता एक सुप्रसिध्द लेखक थे जिन्होंने मूर्खता की पराकाष्ठा को पार करते हुए अंगरेजी साहित्य में मास्टर्स डिग्री हासिल की और बैंगलोर विश्विद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी छोड़ कर पत्रकारिता शुरू कर (हाँ बिलकुल बैंगलोर के माध्यम से विज्ञापन, घूमने के लिए गाड़ी और सरकारी मकान लेने के लिए) दी.
उन्होंने अपना गंवारपन जारी रखते हुए करीब दस नाटक लिखे, तीन उपन्यास, छै लघु-कथा संकलन जो कन्नड़ की लोक, संस्कृति और परम्पराओं पर आधारित थीं. और तो और 429 ईसा पूर्व के नाटक Oedipus Tyrannus या Oedipus Rex का रूपांतरण किया।
उस मूढ़मति के चार काव्य संकलन भी हैं. और मरने के बाद पांच काव्य संकलन छपे. उसने अपनी मातृभूमि के प्लाट काट कर बेचने और कॉलोनी बनाकर बिल्डर बनने के बजाय कन्नड़ संस्कृति पर तीन फिल्मे भी बनाई।
उस मूर्ख के उपन्यास बिरुकु (The Fissure) को पूरे भारत भर के बुद्धिजीवी, जो ईसाईयों और कॉंग्रेस के गुलाम हैं, ने सराहा।
गौरी की एक और गलती थी कि उसकी एक बहिन जानी मानी फिल्मकार, गीतकार और पटकथा लेखक है. उसका नाम कविता लंकेश है और वो भी संभवतया रावण खानदान से ताल्लुक रखती है, उसने 1999 में एक फिल्म बनाई दीवारी जिसे, राज्य, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड मिले। उसने आर के नारायणन जैसे मूर्खों के उपन्यास मालगुडी पर भी फिल्म बनाई उसकी बच्चों पर बनी फिल्म बिम्बा को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। उसने पांच फिल्मे बनाई जिसमे प्रीती प्रेम प्रणय को सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय भाषा की फिल्म होने का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उस वक्त साहित्य प्रेमी आदरणीय अटल जी प्रधानमंत्री थे.
जाहिर है उस वक्त ऐसी मूर्ख महिला फिल्मकारों की ज़्यादा छानबीन नहीं की गई होगी।
पर अभी 2013 में उसकी फिल्म करिया कान बिट्टा को सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का अवार्ड मिल जाना आश्चर्य की बात है. और तो और ऐसे बिना पढ़े लिखे परिवार की सदस्य को ऑस्कर फिल्म चयन की ज्यूरी में रखा गया. वह कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय फिल्म फेस्टिवल की ज्यूरी में रहती थी. उसने महान नालायक तमिल लेखक जिन्होंने पता नहीं किस ईसाई से प्रेरणा लेकर अपना नाम रामास्वामी अय्यर कृष्णमूर्ति के बजाय विष्णु अवतार के नाम पर कल्कि रख लिया था, उनकी कथा पर एक संगीत-नाटक तनानम तनानम की पटकथा लिखी और निर्देशित भी किया।
मूर्ख पिता की “राष्ट्रद्रोही” संतान बच्चों के लिए एक रिसोर्ट भी चलाती है जिसका नाम ग्रामीण कैम्प है. इसमें बच्चे कन्नड़ के पारम्परिक खेलों को सीखते और खेलते हैं. वह नालायक पता नहीं कैसे अँग्रेजी साहित्य में फर्स्ट क्लास एम् ए है और एडवरटाइजिंग में डिप्लोमा लेकर बैठी है.
गौरी का एक भाई भी है इंद्रजीत है वह भी पत्रकार और फिल्मकार है. सुना है वह भी उतना ही बिना पढ़ा लिखा और नालायक है जितना परिवार के दूसरे सदस्य। वह कर्नाटक की तरफ से क्रिकेट भी खेल चुका है. वह एक खेल पत्रिका ऑल राउंडर निकालता था जिसका सर्क्युलेशन पांच लाख था. बाद में उसने अपने पिता की रावण लंकेश पत्रिका (पत्रिके) को ज्वाइन कर लिया।
पर मूर्ख मूर्ख होते हैं उसे बाप की पत्रिका में सब एडिटर की पोस्ट पर क्यों आना चाहिए था. अब जाकर मैनेजिंग एडिटर बना है. उसने भी करीब सात फिल्मे बनाई जिनमे ऐश्वर्या को फिल्मफेयर अवार्ड मिला है.
मैंने हाल ही में गलती से उसकी फिल्म Luv U Alia देखी है.
गौरी ने गौरी लंकेश पत्रिका (पत्रिके) इसलिए शुरू किया क्योंकि उसका उसके भाई से झगड़ा शुरू हो गया था. सुना है दोनों ने एक दूसरे के खिलाफ पुलिस में शिकायत भी दर्ज करवाई थी. चूँकि इंद्रजीत लंकेश पत्रिका (पत्रिके) का प्रकाशक था उसे गौरी के एक रिपोर्ट को छपने की अनुमति देने पर आपत्ति थी जिसमे उसने, इंद्रजीत के मुताबिक, नक्सलवाद का पक्षपात झलक रहा था. इंद्रजीत ने गौरी पर ऑफिस से कम्प्यूटर चुराने जैसे आरोप लगाए थे. दोनों ने प्रेस कांफ्रेंस कर एक दूसरे के आरोपों का खंडन भी किया था. गौरी ने सीधे अपने पिता के अखबार से शुरुआत नहीं की वह टाइम्स ऑफ़ इंडिया में थी बाद में प्रसिद्ध पत्रकार चिदानंद राजघट्टा (जिससे शादी और तलाक हुआ) के साथ दिल्ली आ गई फिर बाद में दिल्ली से बैंगलोर आई और संडे मैगज़ीन में करीब नौ दस साल पत्रकार रही. गौरी ने ईनाडु टी वी में भी काम किया. जिस लिंगायत समुदाय से वह थी उसे वह opressed मानती थी और कहती थी हिन्दू धर्म में महिलाओं को दोयम दर्जा दिया गया है.
मैंने पिछले बीस सालों में लगभग 5000 stories लिखी हैं, कई लोग मुझसे कहते हैं कि बहुत सी रिपोर्ट भाजपा सरकार की तरफ हैं. लेकिन मैंने वही लिखा है जो देखा है और विश्वास किया है. इसकी सजा भी मुझे मिल रही है. लेकिन मैं किसी वामपंथी विचार धारा को अपना नहीं सकता भले ही वह कितनी भी तार्किक हो. न ही मैं जल्दबाजी में लिखे गए अर्थशास्त्र को अपना सकता. मैंने नोटबंदी या जी एस टी की कमियों को उजागर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है. सरकार कोई भी हो. मुझे मालूम है और विश्वास है कि चाँद पर इंसान 1969 में तो जा ही नहीं जा सकता था क्योंकि टेक्नोलॉजी नहीं थी.
अब नासा अगर कोई विचारधारा है तो जो मर्जी आये करे.
पत्रकार लेखक, कवि, साहित्यकार अपने में जीता है. वह अपने विचार किसी पर थोपता नहीं है. वह इस उम्मीद में लिखता है कि समाज की आगे की पंक्ति के लोग इसे पढ़ेंगे और कुछ सुधार करेंगे। उसके साथ समस्या यह होती है की वह अपने परिवेश में लगातार सुधार चाहता है और ये सुधार पचास दिनों में नहीं समय की गति से चाहता है. उसे ख़त्म कर देने पर वह बहुत तेजी से बढ़ता है और लोक में समा जाता है. फिर उसे नष्ट करना असंभव हो जाता है,
राम, बुद्ध, कृष्ण, गांधी,प्रचंड शक्तियों के नष्ट करने के प्रयासों के बाद लोक में समाते गए.अब वे हर घर में हैं. भले वह घर किसी भी धर्म को मानता हो. .
एक अदनी सी गौरी अमर हो गई.
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