अनिल जैन
पिछले कुछ वर्षों से उत्तर भारत में लिटरेचर फेस्टिवल के नाम पर एक नया धंधा शुरू हुआ है। राज्यों की राजधानी या बड़े शहरों में होने वाले इन आयोजनों के नाम से तो ऐसा लगता है कि यह साहित्यकारों का कोई जलसा होता होगा, लेकिन हकीकत में ऐसे जलसों में साहित्यकारों से ज्यादा शिरकत अनुपम खेर, प्रसून जोशी, कंगना रनौत, अशोक पंडित, अक्षय कुमार जैसे दुर्दांत भांडों की होती है। जाहिर है कि इनकी वजह से ऐसे आयोजनों में श्रोताओं से ज्यादा दर्शकों की भीड़ जुटती है।
मनोज तिवारी जैसे फूहड़ भोजपुरी गीतों के गवैये और राजू श्रीवास्तव जैसे भौंडे चुटकुलेबाजों को भी इन आयोजनों की शोभा बढ़ाने के लिए बुलाया जाता है। इनमें भ्रष्ट नौकरशाहों, सत्ता के दलाल पत्रकारों और सत्तारूढ़ दल से जुड़े प्रचारकों और कथित विचारकों भी साहित्यकार के रूप में पेश किया जाता है।
इस बार एक हफ्ते के इंदौर प्रवास के दौरान मालूम हुआ कि यहां भी लिटरेचर फेस्टिवल के नाम पर एक तमाशा हो रहा है। इस सालाना तमाशे में साहित्यकारों के नाम पर जिन लोगों को बुलाया गया, उनमें ज्यादातर की रचनाएं साहित्य की गाजरघास (खरपतवार) श्रेणी में आती हैं।
ऐसी रचनाओं पर ‘अहो रूपम- अहो ध्वनि’ की तर्ज पर जैसी चर्चा हुई और जो लोग चर्चा में शामिल हुए, उन्हें देख कर इस तमाशे को लिटरेचर फेस्टिवल कहने के बजाय ‘लैट्रिन फेस्टिवल’ कहना ज्यादा उचित लगता है। हालांकि ऐसे तमाशों का अपना अर्थशास्त्र भी होता है और राजनीति भी। जो भी हो, गंदा है पर धंधा है
।#अनिल_जैनकी फेसबुक पोस्ट